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शनिवार, 4 जून 2016

द्वादश महाकुंभ : एक ऐतिहासिक पुनरावलोकन एवं अन्वेषण

।।श्री गणेशाय नम:।।
।।श्री गुरवे नम: ।।
द्वादश महाकुंभ : एक ऐतिहासिक पुनरावलोकन एवं अन्वेषण।
चिरपरिचित सनातन हिन्दू-धर्म में “कुंभ”, “पूर्ण-कुंभ” अथवा “महाकुंभ” शब्द किसी परिभाषा का अनुगामी नहीं है, प्रत्युत परम-अक्षर ब्रह्म का ही पर्याय माना जाता है। वेदज्ञों, शास्त्रज्ञों तथा मनीषियों के मतानुसार यही एकमात्र महापर्व ऐसा है जिसे सभी हिंदू चाहे वे किसी संप्रदाय या मत के हों, एकजुट होकर सौहार्द एवं प्रेम के साथ श्रद्धा तथा विश्वासपूर्वक मनाते हैं। धार्मिक-सम्मेलनों की यह परंपरा वैदिक-काल से ही चली आ रही है जिसमें सारे धर्मज्ञ, वेदज्ञ, ऋषि-महर्षि, साधु-संत, संयासी, संत एवं गृहस्थ के विशाल जन-समूह एकसाथ किसी पवित्र नदी के किनारे(तीर्थ) संगठित होकर किसी धार्मिक, दार्शनिक, अध्यात्मिक, सामाजिक या सामयिक समस्या पर विचार-विमर्श करते हुए समाधान निकालते हैं। पुण्य तथा धर्म को प्राप्त करने हेतु जनता-जनार्दन के उस जन-सैलाब को देखकर ऋगवेद की वे पंक्तियाँ मनो-मस्तिष्क में गुञ्जित होने लगती है –
संसमिद्युवसे वृषन्नग्ने विश्वान्यर्य आ
इलस्पदे समिध्यसे स नो वसून्या भर
सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते।
समानो मन्त्र: समिति: समानी
समानं मन: सह चित्तमेषाम्
समानं मंत्रभिमन्त्रये व:
समानेन् वो हविषा जुहोमि
समानी व आकृति: समाना हृदयानि व:
समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति ।
उपासना के समय एकता और संगठन के महत्त्व को प्रतिपादित करते वेद के ये सूक्त अनुकरणीय हैं।
कुंभ का हमारे वैदिक संस्कृति में कई दृष्टियों से महत्व है ।पूर्णता प्राप्त करना मानव-जीवन का अमूल्य लक्ष्य है। पूर्णता का अर्थ है -समग्रता । व्यष्टि- रुप होते हुए भी अपने-आप में
समष्टि को समाहित कर लेना ही तो समग्रता है। इस पूर्णता, समग्रता और व्यापकता की अभिव्यक्ति है – पूर्ण-कुंभ तथा महाकुंभ । अथर्ववेद में कालसूक्त के अंतर्गत इस मंत्र में कुंभ शब्द का प्रयोग द्रष्टव्य है-
पूर्ण: कुंभोधिकाल आहितस्तं वै पश्यामो जगत ता इमा विश्वा भुवनानि प्रत्यड. बहुधा नु संत: कालं तमाहु, परमे व्योमन् ।।
अर्थ– पूर्ण कुंभ काल में रखा हुआ है।हम उसे देखते हैं तो जितने भी भिन्न-भिन्न गोचर-भाव हैं, उन सब में उसी की अभिव्यक्ति पाते हैं जो काल परम व्योम में है। अनंत और अंतवाला काल दो नहीं, एक ही है; पूर्णकुंभ दोनों को भरनेवाला है।
कुंभ पर्व की मूल चेतना का वर्णन पुराणों में मिलता है। पौराणिक कथाओं एवं श्रीरुद्रयामलतंत्र के आधार पर यह पर्व समुद्र-मंथन से प्राप्त अमृतघट के लिए हुए देवासुर-संग्राम से संबद्ध है जिसमें चौदह रत्न निकले थे- कालकूट-विष, कामधेनू , ऐरावत हाथी, कल्पवृक्ष, उच्चै:श्रवा हय, कौस्तुभ मणि, रंभा अप्सरा, कमल-पुष्प, शंख, चंद्रमा, वारुणी(मदिरा), लक्ष्मी, धन्वंतरी तथा अमृतघट । अमृत प्राप्त करने की प्रतिस्पर्धा में भयंकर कोलाहल हुआ जो युद्ध का रुप ले लिया। इस कठिन परिस्थिति में असुरों से अमृत की रक्षा के निमित्त इन्द्र-पुत्र जयंत उस कलश को लेकर वहाँ से पलायन कर गये। वह युद्ध बारह वर्षों तक चला। आदिदेव सूर्य, चंद्रमा एवं गुरु ने अमृत-कलश की रक्षा में सहयोग किया। इन बारह वर्षों में बारह स्थानों पर अमृत-कलश को सुरक्षा हेतु जयंत द्वारा रखे जाने के कारण वहाँ अमृत की कुछ बूँदें छलक गई ।मान्यता है कि उन्हीं द्वादश स्थानों पर ग्रहों के उन्हीं संयोगों पर महाकुंभ का योग बनता है। काल-क्रम में काफी लंबी अवधि बाद विविध कारणों से ये लुप्त होते गये और केवल चार स्थानों पर ही यह लोगों द्वारा मनाया जाने लगा। कुछ विद्वान इस द्वादश स्थानों में चार को भूलोक एवं शेष आठ को देवलोक में मानते हैं जिसके सामयिक प्रमाण तो हैं पर इनके तर्क सत्यरुपी सूर्य पर आच्छादित मेघ के समान है। वेद, शास्त्र, पुराण, ज्योतिष तथा अन्य धर्म-ग्रंथों कतिपय सत्य एवं सिद्धांत पर द्वादश कुंभ की सत्यता स्वत: सिद्ध हैं। काल-क्रम में अनेक ऋषि, महर्षि, संत-महात्माओं, विद्वानों, ज्योतिषीयों एवं मनीषियों द्वारा इस सत्य को प्रकाशित किया जाता रहा है पर चलित मान्यता के समक्ष बीज बनकर सुषुप्तावस्था में अपने भारतीय -संस्कृति के गोद में आश्रय ले लिया ।
द्वादश- कुंभ के प्रबल-समर्थक एवं अन्वेषक 
 संत–शिरोमणि परमपूज्य परमहंस करपात्री अग्निहोत्री अनंतश्री स्वामी चिदात्मनदेवजी महाराज इससे इतने अभिभूत और उत्साहित हैं कि वे अपने आश्रम सर्वमंगला अध्यात्मयोग विद्यापीठ, सिद्धाश्रम, माँ कालीधाम, आदिकुंभस्थली सिमरियाधाम, मिथिलांचल(बिहार) में महाकुंभ की सफलता के निमित्त वर्षों से अपने सान्निध्य में “अनंतश्री कोटि हवनात्मक अम्बा महायज्ञ” को अनवरत जारी रखें हैं । तप, त्याग, दया, करुणा, स्नेह, वात्सल्य,धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ममता एवं सरलता के प्रतिमूर्त्ति महामाया माता जगदंबा के वरद-पुत्र इस पवित्र बाल-ब्रह्मचारी मुक्त यति(संयासी)ने विश्व-ब्रह्मांड के कल्याण, जीव-दया तथा मानवता की सेवा हेतु अपना अमूल्य जीवन ही समर्पित कर दिया है। अपने शिष्यों, श्रद्धालुओं, भक्तों, सुहृदों एवं आम लोगों के बीच द्वादश महाकुंभ की सत्यता की चर्चा करते और सफलता के लिए प्रयास करते कभी थकते नहीं । द्वादश महाकुंभ के वे अन्वेषक संत हैं । इसके प्रति उनके श्रद्धा, विश्वास, निष्ठा,प्रेम एवं आकर्षण उनके सौम्य प्रसन्नचित्त मुखमंडल पर यों प्रदीप्त हो उठता है कि एक अज्ञानी व्यक्ति भी इसकी(महाकुंभ की) महत्ता को अल्प शब्दों में शीघ्र समझ लेते हैं । संत की भाव-भंगिमा से यों ही परिलक्षित हो जाता है कि कुछ खास तो जरूर है इस द्वादश महाकुंभ में जो इस शांत मुक्त योगी के भी मन को अह्लादित कर रहा है। एक पावन अवसर पर उनसे भेंट के दौरान पूछा गया कि कुंभ तो चार स्थानों पर ही सर्वविदित एवं जगविदित है फिर इस द्वादश स्थलों का सत्य क्या है ? इस शंका के समाधान के क्रम में उनके गंभीर मुखमंडल पर उभरे भाव उनके आंतरिक पीड़ा को दर्शाता है जैसे किसी सत्य पर प्रश्न-चिह्न लगा दिया गया हो। वे कुछ पुस्तकों, शास्त्रों,वेदों,पुराणों, श्रीरुद्रयामलतंत्र जैसे धार्मिक ग्रंथों को उद्धृत करते हुए इनके अध्ययन पर बल देते हैं साथ ही महाकुंभ के ऐतिहासिक पुनरावलोकन एवं इसकी समीक्षा पर विद्वानों एवं तत्व-मर्मज्ञों का आह्वान करते हैं। वेद के द्रष्टा इस योगी से शास्त्रीय तथा ज्योतिषीय प्रमाण की अपेक्षा अनपेक्षित है तथापि उन्होंने सारे शास्त्रीय एवं ज्योतिषीय प्रमाण देते हुए अनेक संगोष्ठियों तथा सेमिनार आदि में विद्वान ने इसे एकमत से स्वीकार किया है तथा विभिन्न पंचांगों में आश्विन २०१६ ई० में कन्यास्थ महाकुंभ रामेश्वरम् को स्थान दिया है जिससे आगामी द्वादश महाकुंभों के लिए सत्य का मार्ग प्रशस्त हो गया है।
ज्योतिष-शास्त्र में सर्वविदित सत्य है कि सूर्य बारह राशियों में एक-एक माह रहते हैं जिसे सौर-मास(संक्रांति) कहते हैं। चंद्रमा लगभग ढाई दिनों तक एक राशि में रहते हुए गतिमान रहते हैं। देवगुरु बृहस्पति प्रत्येक राशि में एकसाथ एक-एक वर्ष रहते हैं। जब एक ही राशि में इन तीनों ग्रहों की युति होती है तो इस योग को कुंभ-योग कहते हैं। इस प्रकार प्रत्येक बारह वर्षों में किसी राशि पर यह योग बनता है। इसी ज्योतिषीय सत्य को भारत में भौगोलिक द्वादश स्थलों पर आसानी से दर्शाया जाता है जिसके प्रमाण आगम में भी उपलब्ध हैं। विविध कारणों से बहुत सारे सद्ग्रंथ काल -कवलित हो गए और प्रथाएँ भी लुप्त होती चली गयी परंतु इस परिवर्तनशील प्रकृति में हर चीज चक्रवत् ही घुमता रहता है- चाहे वह युग हो या योग। भारत की धर्म-परायण जनता अपने अतीत के गौरव को पुनः प्राप्त करने में उत्साहित, उत्सुक एवं अग्रसर हैं और अपने उद्देश्य की प्राप्ति में निश्चित-तौर पर सफल होंगे ।
श्रीरुद्रयामलतंत्र में आदिकुंभस्थली सिमरियाधाम तथा महाकुंभ के अन्य स्थलों पर इसके योग और महत्व का यशोगान करते जगजननी माता जगदंबा पार्वती विश्व-ब्रह्मांड कल्याणार्थ भगवान शिव से प्रश्न पुछती है –
कस्मिन् देशे कथं देव पुरा सागर मन्थनम्।
किं किं नि:सृतन्तस्माकदा च तद् पद प्रभो ।।
हे देव ! हे प्रभो !! प्राचीन काल में किस देश में किस प्रकार समुद्र-मंथन हुआ और बताइए कि उससे क्या-क्या निकलें ?
मंदारस्य गिरे: पार्श्वे पुरा सिन्धुर्वभूव ह।
जाह्नवी चापि तत्रैव सड.ता सागरं प्रति।।
तत्रैव कमठ पृष्ठे दण्डं संस्थाप्य पर्वतम्।
मंदारं शेषनागञ्च रज्युं कृत्वा सुरासुरो:।।
ममन्थु सागरं सर्वे विष्णुं कृत्वा तुसन्निधौ।
मश्यमाने तदाब्धौ च निर्गतश्चन्द्र अग्रत: ।।
मंदार पर्वत के बगल में जहाँ पूर्वकाल में समुद्र-मंथन हुआ था वह स्थान वर्तमान में बिहार में बाँका जिले के अंतर्गत है जहाँ अभी भी मकर संक्रांति को हर वर्ष मेला लगता है। उस मंदार पर्वत की मथानी तथा वासुकी नाग की रस्सी से कच्छप के पृष्ठ पर समुद्र-मंथन हुआ। क्रम से चौदह रत्न विष और अमृत निकले। उस अमृत को शाल्मली वन में मोहिनी रुप में भगवान विष्णु द्वारा बाँट दिए जाने की कथा सुनकर माता पुनः पुछती है –
कुत्रेदं शाल्मली तीर्थं यत्रामृत घट: पुरा ।
दैत्यै: संस्थापिता: पूर्वं देवमाया विमोहितै:।।
तत्तीर्थस्य महद्भाग्यं जाहन्वी चात्र निर्मल: ।
तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि सत्वरं वद मे प्रभो ।।
हे प्रभो ! वह पावन सिमरियाधाम कहाँ है ( सेमर वृक्ष की अधिकता के कारण प्राचीन काल में इसे शाल्मली वन कहा जाता था जिसे बाद में अपभ्रंश में सिमरिया कहा जाता है ।) जहाँ का जल अमृत है, दैत्यों ने पहले वहाँ अमृत-कुंभ स्थापित किया तथा विष्णु द्वारा उन्हें विमोहित कर देवताओं को अमृत बाँटकर उन्हें अमर बनाया गया ? उस तीर्थ का परम सौभाग्य है । मुझे शीघ्र बताइए । इस तीर्थ का महत्व बताते हुए शिवजी ने सिमरियाधाम को अमृतयुक्त अमरधाम सिद्ध किया और आगे बताते हैं-
ममांशभूतो हनुमान् तस्मिन्नेव दिने शुभे ।
कृते युगे सुधां पीत्वा त्रेतायां तु व्याजयत् ।।
तस्मात् शाल्मली तीर्थे जलमस्ति सुधामयम्।
चस्मे यदमृतं देवि तद्देशेषु पपात ह।
तस्मादेतेषु तीर्थेषु जलं नद्या: सुधोपमम् ।।
उपर्युक्त श्लोकों में हनुमानजी के अमरत्व तथा सिमरियाधाम में गंगाजल की सुधामय निर्मलता प्रतिपादित होती है ।
संप्रति भी संत शिरोमणि परमपूज्य परमहंस अग्निहोत्री करपात्री स्वामी चिदात्मनदेवजी महाराज ने गंगा की अविरलता और निर्मलता के लिए काफी प्रयास किए हैं और आगे भी इसके लिए कटिबद्ध हैं ।
आधुनिक “हाथीदह” स्टेशन जो सिमरियाधाम के काफी करीब है, इसके नाम के पीछे इस ग्रंथ का यह श्लोक द्रष्टव्य है –
तस्मात् प्राच्यां न अति दूरे गभीरोजाहन्वीहृद:।
मकरादि समाकीर्णों हस्ति च अत्र निमज्जति ।।
(जहाँ से थोड़ी दूर पूर्व में अत्यंत गहरा जाहन्वीहृद है जहाँ मकर आदि जलीय जीव रहते हैं और हाथी भी उस हृद में डूबकर स्नान करता है ।)
श्रीरुद्रयामलतंत्र में इस अमृत कलश की कथा के क्रम में अनेक बार “शाल्मली वन” शब्द का उपयोग इस तीर्थ की महत्ता को प्रतिपादित करती है। श्लोकों के अर्थ की व्याख्या यहाँ कतिपय कारणों से संभव नही है। केवल श्लोकों के लालित्य एवं इसमें शाल्मली वन शब्द के उपयोग के कारण यहाँ उद्धृत किया जा रहा है –
किञ्चिद्दूरन्ततो गत्वा गहनं शाल्मलीवनम्।
वीक्ष्य तस्थुर्बलिमुख्या: गंगा यत्रोत्तरां गता।।
मायया देव देवस्य विष्णोरतुलतेजस: ।
दैत्या: विमोहिता: सर्वे कुंभ संस्थाप्य ननृतु:।।
जगुर्गीतं जयमिश्रमुच्चे: शाल्मली वने ।
तत्रैववामृत पानाय बभूवर्हतबुद्धय: ।।
तामेकां सुन्दरीं तत्र गहने शाल्मली वने ।
विस्मयेन समाविष्टा वभूवुस्तृषितेक्षणा: ।।
इस क्रम में एक अन्य स्थान पर शिवजी ने कहा-
अत्रैव जाह्नवीतीरे हि उत्तरे तु महत् वनम्।
शाल्मल्या: शोभते देवि गंगा च उत्तरवाहिनी।
हे देवी ! वहीं गंगा के किनारे उत्तर की ओर शाल्मली(सेमर) का महान् वन सुशोभित है तथा उत्तरवाहिनी गंगा भी शोभयमान है ।
पुलिने तत्र पपु: देव: स्नात्वा सुविमले जले।
कार्तिक मासि सूर्यश्च तुलारुढ़ो यदा भवेत् ।
गुरु अपि तुलारुढ़ो पिबन्ति अमृतमक्षयम् ।।
वहीं गंगा के पवित्र जल में स्नान के पश्चात पुलिन में बैठकर देवताओं ने अमृतपान किया था।
जब कार्तिक मास के कृष्णपक्ष में सूर्य तुलाराशि में उपस्थित होते हैं तथा चंद्रमा भी देवकार्य हेतु तुलाराशि में रहते हैं और गुरु भी इस राशि में(तुलाराशि में ) आ जाते हैं तो वह योग देवताओं के अमृतपान का होता है। श्रीरुद्रयामलतंत्र के उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर सिमरियाधाम को आदिकुंभस्थली मानना यथार्थ है और तर्कसंगत भी ।
सिमरियाधाम में कार्तिक मास में तुलाराशि में सूर्य, चंद्रमा एवं गुरु की युति होने पर महाकुंभ योग बनता है। इस प्रकार अन्य तीर्थों में महाकुंभ योग को प्रमाणित करते कुछ श्लोक नीचे दिए गए हैं-
सिंह युतौ च रेवायां मिथुने पुरुषोत्तमे।
मीने ब्रह्मपुत्रे च तव क्षेत्रे वरानने।।
धनराशि स्थिते भानौ गंगासागर संगमे।
कुंभराशौ तु काबेर्या तुलार्के शाल्मलीवने ।।
वृश्चिके ब्रह्मसरसि कर्कटे कृष्ण शासने।
कन्यायां दक्षिणे सिन्धौ यत्राहं राम पूजित:।।
अथाप्यन्योपि योगोस्ति यत्रस्नानं सुधोपमम्।।
सिंह राशि में ऐसा योग होने पर रेवा नदी के तीर पर (वर्तमान गोदावरी नदी , नासिक ), मिथुन राशि में जगन्नाथपुरी , मीन राशि में ब्रह्मपुत्र किनारे गोहाटी, धनुराशि में गंगासागर, कुंभराशि में कावेरी नदी के किनारे कुंभकोणम् , तुला में सिमरियाधाम , वृश्चिक में ब्रह्मसरोवर कुरुक्षेत्र, कर्क में द्वारिकाधाम तथा कन्या राशि में रामेश्वरम् में महाकुंभ शास्त्र प्रमाणित हैं । इसके अतिरिक्त और अन्य भी योग हैं जिसमें स्नान अमृत के सदृश हैं।
मेषराशिस्थिते भानौ कुंभे च गुरौ स्थितौ।
गंगाद्वारे भवेत् योगो भुक्तिमुक्तिप्रद: शिवे।।
मेष राशि में सूर्य तथा कुंभराशि में गुरु होने पर हरिद्वार में भुक्ति और मुक्तिप्रद महाकुंभ योग बनता है।
मेषे गुरौ तथा देवि मकरस्य दिवाकरे।
त्रिवेण्यां जायते योग: सद्यो$मृत फलं लभेत् ।।
मेष में गुरु तथा मकर राशि में सूर्य का योग प्रयाग में अमृतफलप्रद कुंभ योग बनता है ।
शिप्रायां मेषेगे सूर्ये सिंहस्थे च बृहस्पतौ ।
मासं यावन्नर: स्थित्वामृतवयान्ति दुर्लभम् ।।
मेष में सूर्य तथा सिंह राशि में बृहस्पति की उपस्थिति शिप्रा नदी के किनारे मासपर्यन्त अमृतफलदायी कुंभ योग बनाते हैं ।
अन्यत्र वृंदावन में कुंभ के संबंध में द्रष्टव्य है-
कुंभ राशि स्थितौ भानौ तत्रैव च स्थिते गुरौ।
वृंदावने भवेत् कुंभौ वैष्णवानां समागम:।।
शास्त्र-सम्मत विधि से कर्कस्थ महाकुंभ का योग श्रावण मास २०१४ ई० में द्वारिकाधाम में,
सिंहस्थ महाकुंभ भाद्रपद २०१५ ई० में रेवा में, कन्यास्थ महाकुंभ आश्विन २०१६ ई० में रामेश्वरम् में, तुलास्थ महाकुंभ कार्तिक २०१७ ई० में सिमरियाधाम में, वृश्चिकस्थ महाकुंभ मार्गशीर्ष २०१८ ई० में कुरुक्षेत्र में, धनुराशि स्थित महाकुंभ पौष २०१९ ई० में गंगासागर में, मकरस्थ महाकुंभ माघ २०२१ ई० में प्रयाग में, कुंभस्थ महाकुंभ २०२२ ई० में कुंभकोणम् में, मीनस्थ महाकुंभ चैत्र २०२३ ई० में गौहाटी में , वृषभस्थ महाकुंभ ज्येष्ठ २०२४ ई० में बद्रीनाथ में, मिथुनस्थ महाकुंभ २०२५ ई० में जगन्नाथपुरी में ।
बनताहैपरंपरागत विधि से वैशाख २०१६ ई० में शिप्रा(उज्जैन) में , २०२१ ई० में हरिद्वार में तथा माघ २०२५ ई० में महाकुंभ योग बनता है ।
किसी चीज को नया सिरे से बनाना निर्माण है जबकि पहले से विद्यमान तत्व को खोज लेना अन्वेषण कहलाता है। संत-शिरोमणि परमपूज्य परमहंस अग्निहोत्री करपात्री अनंतश्री स्वामी चिदात्मनदेवजी महाराज ने कुंभ के संबंध में सत्य का अन्वेषण कर हमारे सनातन धर्म तथा भारतीय संस्कृति की महती सेवा की है जिसके लिए हमारा सनातन हिंदू धर्म सदैव ही उनक ऋणी रहेगा । संत-शिरोमणि ने न केवल शास्त्र को अन्वेषित कर सत्य को उद्घाटित किया है , अपितु कुंभ को पुनर्स्थापित करने हेतु अपना अमूल्य योगदान भी दिया है।
२००६ ई० में अंतरराष्ट्रीय मैथिली परिषद् द्वारा आयोजित १४वें अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन (२५ २८ मई २००६) में सर्वसम्मति से २०११ ई० में आदिकुंभस्थली सिमरियाधाम में अर्द्धकुंभ को इनके ही नेतृत्व में प्रतिष्ठित करने का निर्णय लिया गया । इन्होंने इसका सफल नेतृत्व किया । लाखों श्रद्धालु, संत, महात्मा , आम जनता, स्वयंसेवी संगठन तथा प्रशासन यहाँ उपस्थित होकर अर्द्धकुंभ को सफल करते हुए पुण्य का भागी बनें । जगन्नाथपुरी में भी इनके प्रयत्नों से कुंभ लगना प्रारंभ हो चुका है ।
रामेश्वरम् में आश्विन २०१६ ई० में कन्यास्थ महाकुंभ योग मे . संत-शिरोमणि अत्यधिक उत्साहित रहे और इसके व्यापक प्रचार-प्रसार तथा सफलता हेतु अग्रसर रहे || यह कुंभ पूर्ण सफल रहा है|
आदिकुंभस्थली सिमरियाधाम में कार्तिक २०१७ ई० में तुलास्थ महाकुंभ योग है जो निश्चय ही संत–शिरोमणि के नेतृत्व, प्रयत्न एवं आशीर्वाद से पूर्ण सफल होगा ।
अन्यत्र जहाँ भी महाकुंभ योग है निश्चय ही प्रकृति ने अपनी संस्कृति की सुरक्षा के लिए संत-शिरोमणि के माध्यम से दस्तक दे दी है । सफलता अवश्यंभावी है -ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। सभी सनातन -हिन्दू धर्मावलंबी , श्रद्धालु, साधक, संत , महात्मा, आम जनता, समाजसेवी एवं स्वयंसेवी संगठन तथा प्रशासन अपने अमूल्य संस्कृति की सुरक्षा हेतु संत शिरोमणि को उत्साहपूर्वक द्वादश महाकुंभ को
सफल करने में अपना अमूल्य योगदान देंगे ।” धर्मो रक्षति रक्षित:” की भावना जनमानस में नवचेतना को जागृत कर देगी। श्रद्धा तथा विश्वास की भावना वह कुञ्जी है जो मानव जीवन के इसके परम उद्देश्य की प्राप्ति में सहायक है।
मंत्रे तीर्थे देवे द्विजे दैवज्ञे भैषजे गुरु ।
यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी ।।
मंत्र, तीर्थ, देवता, ब्राह्मण,ज्योतिषी, वैद्य एवं गुरु के प्रति जिसकी जैसी भावना होती है, ठीक वैसे ही उसे सिद्धी मिलती है । क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया सार्वभौमिक सत्य है। भगवती महामाया माता जगदंबा द्वादश महाकुंभ की पुनर्प्रतिष्ठित करने की भावना को जनमानस में लाकर सफल करेगी । जिसे वेद-द्रष्टा संत-शिरोमणि ने अपने जीवन का मुख्य ध्येय बना लिया हो , उसकी सफलता अवश्यंभावी है । हम श्रद्धालु इस मुक्त मुनि की छाया की तरह अनुगामी बने रहें, ईश्वर हमें ऐसी सद्बुद्धि प्रदान करें।
सद्गुरु चरणानुरागी
श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'
ग्राम+पो-धनकौल
जिला-शिवहर (बिहार)
PIN-843325
(इस लेख में कोई भी अंश या भावना अगर किसी व्यक्ति या ग्रंथ से उद्धृत है तो लेखक उसके लिए परम आभारी है। लेख का पूर्ण उद्देश्य द्वादश महाकुंभ के प्रति जनमानस को आकृष्ट कर नवचेतना , उत्साह और उल्लासपूर्वक इस महापर्व के सफलता के लिए आह्वान करना है ।)
(अन्यत्र अन्य पत्रिकाओं में भी मेरा यह निबंध पूर्व -प्रकाशित है)