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गुरुवार, 8 फ़रवरी 2024

गुरु : अध्यात्मिक -ज्ञान का केन्द्र

  

गुरु : अध्यात्मिक -ज्ञान का केन्द्र

‘गुरु’ एक विशिष्ट , पवित्र एवं भाव-पूर्ण मधुर शब्द है जो श्रद्धा,भक्ति और आस्था से परिपूर्ण है। यह दो व्यंजन वर्ण ‘गु’ तथा ‘रु’ के योग से बना है। ‘गु’ प्रतीक है अंधकार का जिसका तात्पर्य अज्ञानता से है और ‘रु’ प्रतीक है प्रकाश का जो अध्यात्मिक तेज-पुञ्ज का द्योतक है। ‘गु’ प्रतीक है तम का - माया का - मोह का - भ्रांति का अविद्या,जीव और गुणातीत का तथा ‘रु’ का तात्पर्य ज्ञान, विद्या ,ब्रह्म, चेतना और निराकारता से है। जब जीव भक्ति,श्रद्धा एवं विश्वासपूर्वक गुरु का सान्निध्य प्राप्त करता है तो वह उनके कृपा और मार्गदर्शन से अपने माया-मोह, भ्रम, अज्ञानता, अविद्या आदि से मुक्त होकर परम तेजस्वरूप चैतन्य परमसत्ता से सायुज्य प्राप्त कर लेता है।

गुकारश्चान्धकारो हि रुकारस्तेज उच्यते।

अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरुरेव न संशय:।।

गुकारश्चान्धकारस्तु रुकारस्तन्निरोधकृत्।

अंधकारविनाशित्वात् गुरुरित्यभिधीयते।।

गुकारश्च गुणातीतौ रूपातीतौ रुकारक: ।

गुणरूपविहीनत्वात् गुरुरित्यभिधीयते ।।

गुकार: प्रथमोवर्णो मायादि गुणभासक: ।

रुकारोsस्ति परं ब्रह्म मायाभ्रांति विमोचकम् ।

 ( स्क० पु० उ० ख०)

गुरु का होना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है जो अध्यात्मिक अज्ञान रूपी अंःधकार को मिटाते हैं और उसे आध्यात्मिक अनुभूतियां और आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करते हैं ।

 जब हम पाशविक- सभ्यता से ऊपर उठकर अपना उन्नयन चाहने लगे, मानवीय और दैवी-सत्ता को जानने के लिए व्यग्र होकर कहने लगे - तमसो मा ज्योतिर्गमय ---असतो मा सदगमय - --मृत्योर्मामृत गमय । हम सहायतार्थ बेचैन थे - कोई तो हो जो हमारी मदद कर सके -- हमें अज्ञान से ज्ञान का मार्ग बता सके -- सत्य का परिज्ञान करा सके -- जरा-रोग, जन्म-मृत्यु तथा कर्म के बंधन से मुक्त करके सास्वत आत्मज्ञान प्रदान कर मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सके।जी हाँ - हमें मिलें --- सद्गुरु और गुरु रूप में साक्षात् परमपिता परमेश्वर ने हमारी सहायता की और तभी से गुरु-शिष्य के भक्ति,श्रद्धा, विश्वास और पवित्र-प्रेम का उदात्त एवं उदार संबंध का मार्ग प्रशस्त हुआ ।

यूँ तो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हमें मार्गदर्शन के लिए एक प्रवीण, विज्ञ तथा अनुभवी व्यक्ति की आवश्यकता होती है जिसे बोल-चाल की भाषा में गुरु की ही संज्ञा देते हैं लेकिन हम यहाँ केवल आध्यात्मिक गुरु की ही बात करेंगे जो नररूप में साक्षात् नारायण ही हैं जिन्हें ब्रह्मा, विष्णु औरत महेश की समकक्षता प्राप्त है। वे हमारे समस्त पापों का नाश करके, विशुद्धात्मा बनाकर ईश्वरीय ज्ञान के द्वारा हमारे मुक्ति का मार्ग बताकर हमारा मानव-जीवन सफल करते हैं । समस्त दैनिक और दैविक क्रियाएँ गुरु के कृपा और मार्गदर्शन के बिना अधूरे हैं।

 यद्यपि गुरु और ब्रह्म में समतुल्यता है तथापि सांसारिक मानव गुरु का दायित्व परमात्मा को नहीं दे सकते । देहधारी मानव अपनी क्षमता, पात्रता और दिव्यता का ध्यान रखते हुए नर-तनधारी ज्ञानी श्रेष्ठ धर्मपरायण सदाचारी ब्रह्मज्ञानी व्यक्ति को ही अपना गुरु बना लें। आधुनिक परिवेश में कुछ लोग शास्त्रों के अर्थ को अनर्थ करते हुए ‘शिव’ अथवा अन्याय देवों को ही गुरु मानकर अपने दायित्व से पल्ला झाड़ लेते हैं --यह यथोचित कर्म नहीं है। यद्यपि ‘शिव’ और ‘गुरु’ में भेद-दृष्टि उचित नहीं है तथापि शिवजी ने स्वयं ही बार-बार गुरु की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए गुरु को स्वयं से श्रेष्ठ बताया है। उन्होंने बताया है कि शिव के अप्रसन्न होने पर गुरु साधक की रक्षा कर सकते हैं लेकिन गुरु के अप्रसन्न होने पर साधक की रक्षा करने में स्वयं शिव भी सक्षम नहीं है।

शिवे क्रुद्धे गुरुस्त्राता गुरौ क्रुद्धे शिवो न हि।

तस्मात् सर्वप्रयत्नेन श्रीगुरुं शरणं व्रजेत् ।।

यद्यपि शिव गुरु हैं तथापि मानव क्या अपने इस पात्रता एवं दिव्यता के सहारे उनसे सीधे दिशा-निर्देश प्राप्त कर सकते हैं ? शिव तक पहुँचने से पहले माया साधक को अपनी जाल में दिग्भ्रमित कर देती है और उसका उद्देश्य सफल नहीं हो पाता । फिर गुरु बनने-बनाने की प्रक्रिया में शिष्य के साथ-साथ गुरु की भी सहमति आवश्यक है चाहे गुरु मनुष्य ही क्यों न हो । आपने उनसे (शिव से) सहमति तो लिया ही नहीं । अगर आपने शिव को गुरु माना है तो कोई जरूरी नहीं कि उन्होंने आपको शिष्य स्वीकार कर ही लिया हो। शिव की दिव्यता के समक्ष अगर साधक में पात्रता नहीं है तो यह गुरु-शिष्य का संबंध कैसा ? अज्ञान,दंभ और भ्रम का त्याग कर दें तथा किसी योग्य सदाचारी ब्रह्मज्ञानी देहधारी व्यक्ति को ही अपना गुरु बनाकर उन्हें उचित मान-सम्मान देकर ,उनकी सेवा-सुश्रुषा कर, उनके मार्गदर्शन में साधना द्वारा इहलोक और परलोक को सुधार लें। अहंकार में जीवन को व्यर्थ न गँवा दें । परमात्मा माता,पिता,बंधु,मित्र,धन-धान्य सबकुछ हैं तो क्या आप संसार के सारे संबंधों को नकार सकते हैं ? शास्त्रों के भाव को समझने की कोशिश करें - अर्थ का अनर्थ करते हुए अविवेक और अविद्या को आत्मसात करते हुए महापाप से बचें, अनाचार की प्रवृत्ति का त्याग करें। साधना-पथ पर भ्रम-जाल से बचने हेतु, शंका के समाधान हेतु कदम-कदम पर देहधारी सदगुरु की जरूरत है - जिनकी पात्रता दिव्य हो , एेसे दिव्य लोगों की , दिव्य साधकों की बात कुछ और है -सभी लोगों को ऐसा सौभाग्य कहाँ कि वे शिव को अपना गुरु बना सके? गुरु और शिष्य का संबंध तो कुम्हार और घड़े जैसा होना चाहिए जिसे कबीर ने इस तरह निर्देशित किया है-

गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़े खोट।

अंतर हाथ सहार दे, बाहर मारे चोट ।।

आत्म-सुधार के लिए सद्गुरु के प्रेम, वात्सल्य और कृपा के साथ जरूरत पड़ने पर डाँट-फटकार और चोट की जरूरत भी जनसाधारण को है। कोई अनपढ़ व्यक्ति सीधे पी०एच०डी नहीं कर सकता। पहले पात्रता तो प्राप्त कर लो। अहंकार का परित्याग करें -सद्भावनापूर्वक मत-मतांतर छोड़कर आत्मोद्धार के लिए किसी सद्गुरु की शरण में जाएँ -अपनी जिज्ञासा प्रकट करें - उनकी कृपा प्राप्त करें - निश्चय ही आपको मार्ग , मार्गी और ध्येय सभी मिल जाएंगे। आपके अमूल्य जीवन सार्थक हो जाएंगे ।

 यह संसार अविद्यात्मक मायारूप है और शरीर अज्ञान से उत्पन्न है, केवल गुरु की कृपा से ही इस आत्मज्ञान को समझा जा सकता है। गुरु की चरणों की सेवा से ही मानव सभी पापों से रहित होकर विशुद्धात्मा ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। गुरुदेव की चरण-सेवा, चरणोदक-पान, नाम-कीर्तन, स्वरूप-चिंतन द्वारा शिष्य जन्म-जन्मांतरों के पाप से मुक्त होकर शुद्ध-चित्त, ज्ञान और बैराग्य को प्राप्त कर लेते हैं। अपनी जाति, धर्म, आश्रम, यश, कीर्ति , धन आदि का मिथ्याभिमान त्यागकर गुरु की सेवा करनी चाहिए । ऐसा करने पर आप निश्चय ही आत्मकल्याण प्राप्त कर लेंगे। चित्त के भ्रमित होने पर संसाररूपी भवसागर को पार कराने में केवल सद्गुरु ही समर्थ हो सकते हैं। गुरु की महिमा का गुणगान करने में साक्षात् सरस्वती,शेष, महेश, गणेश,ब्रह्मा, विष्णु, महर्षि,देव, मुनि,गंधर्व, ज्योतिषी आदि भी अपने को अक्षम पाते हैं । सद्गुरु की कृपा के बिना साधक के सिद्धि की परिकल्पना व्यर्थ है ।

 

गुरु त्रिविध-ताप और विविध पापों को हर लेते हैं। तार्किक, वैदिक, लौकिक अथवा ज्योतिषीय आदि किसी भी ज्ञान द्वारा गुरु-तत्व को जानना असंभव है। गुरुसेवा से विमुख कोई भी जन मुक्त नहीं हो सकता। गुरु ब्रह्मानंदस्वरूप, ज्ञानस्वरूप, सूक्ष्म, व्यापक, नित्य, मलरहित, अचल, त्रिगुणातीत तथा परमसुखदायक होते हैं। उनके उपदिष्ट मार्ग से मन की शुद्धि करनी चाहिए। गुरु का वाक्य शास्त्रों से भी श्रेष्ठ है। 

करुणारूपी तलवार के प्रहार से जो शिष्य के संशय, दया, भय, संकोच, निंदा, प्रतिष्ठा, कुलाभिमान और संपत्ति के अभिमान जैसे आठों पाशों से जो मुक्ति दिला दें, उन्हें सद्गुरु कहते हैं। 

विज्ञ जन ज्ञान-प्राप्ति के बाद भी गुरु का साथ नहीं छोड़ते हैं। प्रज्ञावान शिष्य गुरु के समक्ष डींग नहीं मारते हैं। उनके सामने असत्य-सम्मभाषण सर्वथा निंदनीय है। गुरुदेव का तिरस्कार आदि करनेवाले मरुभूमि में ब्रह्मराक्षस बनता है। सद्गुरु की पूजा प्रपंच से मुक्ति दिलाने में समर्थ है। गुरुदेव द्वारा दिए गए द्रव्य आदि को गरीब की तरह यत्नपूर्वक रखें। उनकी आज्ञा का हमेशा पालन करें। जो धन गुरुदेव ने नहीं दिया हो ,उसका उपयोग न करें। गुरुदेव के पीछे ही चलना चाहिए। उनके परछाईं का भी उल्लंघन न करें। पादुका, आसन, बिस्तर आदि जो उनके उपयोग में आते हों, उन सबको नमस्कार करना चाहिए। उनके समक्ष कीमती वस्त्र, आभूषण आदि धारण नहीं करना चाहिए। गुरु की निंदा खुद न करें , नहीं दूसरों को करने दें । सद्गुरु की कृपा से शिष्य पाशों से भी मुक्ति पा सकते हैं। उनके श्रीचरणों की सेवा करके जो महावाक्य के अर्थ को समझते हैं, वे ही सच्चे संयासी हैं , अन्य तो मात्र वेधशाला हैं। गुरु का हमेशा ध्यान करें, उन्हें नमन करें । 

सद्गुरु का सदा ध्यान करने से जीव ब्रह्ममय हो जाता है। वह किसी भी स्थान में रहता हो, वह मुक्त ही है। इसमें कोई संशय नहीं है।

गुरोर्ध्यानेनैव नित्यं देही ब्रह्ममयो भवेत् ।

स्थितश्च यत्रकुत्रापि मुक्तोsसौ नात्र संशय: ।।

 ( स्क० पु० उ० ख०)

मनुष्य के लिए गुरु ही शिव है, गुरु ही देव है, गुरु ही बांधव है, गुरु ही आत्मा है तथा गुरु ही जीव है, अर्थात् गुरु के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।

गुरु: शिवो गुरुर्देवो गुरुर्बन्धु: शरीरिणाम्।

गुरुरात्मा गुरुर्जीवो गुरोरत्यन्न विद्यते।।

 ( स्क० पु० उ० ख०)

ज्ञानहीन, मिथ्यावादी, ढोंगी गुरु का त्याग करें । जो अपना कल्याण नहीं कर सकते, वे दूसरों का कल्याण कैसे कर सकते हैं। पाषाण का टुकड़ा भला अनेक टुकड़ों को तैरना कैसे सिखा सकता जबकि वह स्वयं तैरना नहीं जानता ?

ज्ञानहीनो गुरुत्याजो मिथ्यावादी विडंबक: ।

स्वविश्रान्ति न जानाति परशान्तिं करोतिकिम्।।

शिलाया: किं परं ज्ञानं शिलासंघप्रतारणे।

स्वयं तर्त्तु न जानाति परं निसतारेयेत्कथम्।।

 ( स्क० पु० उ० ख०)

 सद्गुरु की महिमा अपरम्पार है कल्प-पर्यंत के, करोड़ों जन्मों के यज्ञ, व्रत, तप और शास्त्रोक्त क्रियाएँ, ये सब गुरुदेव के संतोषमात्र से सफल हो जाते हैं। स्वयं शिव ने कहा है -

आकल्पजन्मकोटीनाम् यज्ञ व्रत तप: क्रिया: ।

ता: सर्वा सफला देवि गुरुसंतोषमात्रत: ।।

 ( स्क० पु० उ० ख०)

उनका मानव-जीवन व्यर्थ है जो गुरु-तत्व को नहीं जानते हैं । गुरु-दीक्षा से विमुख लोग भ्रांत हैं और ज्ञान से रहित हैं वे सचमुच पशु के ही समान है । वे परम-तत्व को नहीं जानते हैं ।

गुरुरेको जगत्सर्वं ब्रह्मविषणुशिवात्कम्।

गुरो:परतरं नास्ति तस्मात्संपूजयेद्गुरुम्।।

 ( स्क० पु० उ० ख०)

ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव सहित संपूर्ण विश्व गुरुदेव में ही समाविष्ट है। गुरुदेव से अधिक और कुछ भी नहीं है। इसलिए गुरुदेव की ही पूजा करनी चाहिए।

( निबंधमिदं सद्गुरवे परमहंसचिदात्मनदेवाय समर्पितम्)

 

सद्गुरु चरणानुरागी

 श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

 बी०एस०सी भौतिकी (प्रतिष्ठा)

 एम०ए (ज्योतिष-विज्ञान)

 ग्राम+पो० -- धनकौल, 

जिला- शिवहर(बिहार) -843325

बुधवार, 7 फ़रवरी 2024

श्रीदुर्गा सप्तशती और उसके सम्पुट-पाठ से कामना-सिद्धि

 श्रीदुर्गा सप्तशती का पाठ कामना- सिद्धि के लिए किया जाता है । श्री दुर्गा सप्तशती दैत्यों के संहार की शौर्य गाथा से अधिक कर्म, भक्ति एवं ज्ञान की त्रिवेणी हैं।इससे बड़ा तंत्र, मंत्र और यंंत्र इस ब्रह्मांड में कुछ भी नहीं है।श्री मार्कण्डेय पुराण का अंश है। यह देवी महात्म्य धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष चारों पुरुषार्थों को प्रदान करने में सक्षम है। इस ग्रंथ मे ऐसी शक्ति है जिससे जीवन के सभी कष्ट दूर हो जाते है,रोग दूर होते है,भय नही होता है,सफलता मिलती है, सप्तशती में कुछ ऐसे भी स्तोत्र एवं मंत्र हैं, जिनके विधिवत पारायण से इच्छित मनोकामनाओं की पूर्ति होती है।

श्रीमार्कण्डेयपुराणान्तर्गत देवीमाहात्म्यमें ' श्लोक ' , ' अर्धश्लोक ' और ' उवाच ' आदि को मिलाकर कुल 700 मन्त्र हैं । यह माहात्म्य दुर्गासप्तशती के नामसे प्रसिद्ध है । सप्तशती  अर्थ , धर्म , काम , मोक्ष - चारों पुरुषार्थोंको प्रदान करनेवाली है । समस्त कामनाओं को पूरी करने वाला है। जो पुरुष जिस भाव और जिस कामनासे श्रद्धा एवं विधिके साथ सप्तशतीका पारायण करता है , उसे उसी भावना और कामनाके अनुसार निश्चय ही फल - सिद्धि होती है । इस बातका अनुभव अगणित पुरुषोंको प्रत्यक्ष हो चुका है । यहाँ हम कुछ ऐसे चुने हुए मन्त्रों का उल्लेख करते हैं , जिनका सम्पुट देकर विधिवत् पारायण करने से विभिन्न पुरुषार्थों की व्यक्तिगत और सामूहिक रूपसे सिद्धि होती है । इनमें अधिकांश सप्तशती के ही मन्त्र हैं और कुछ बाहर के भी हैं ।लेकिन अगर आप भक्तिभाव तथा नि:श्वार्थ भाव से देवी के मंत्रों की आराधना करते है तो आपको मन चाहा फल की प्राप्ति होती है।

1.सामूहिक कल्याण के लिए:-

"देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या, निश्शेषदेवगणशक्तिसमूहमूर्त्या । तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां, 

भक्त्या नताः स्म विदधातु शुभानि सा न:।।

2.विश्व के अशुभ तथा भय का विनाश करने के लिए:-

"यस्याः प्रभावमतुलं भगवाननन्तो ,

ब्रह्मा हरश्च न हि वक्तुमलं बलं च ।

 सा चण्डिकाखिलजगत्परिपालनाय, 

 नाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु ॥

३.विश्व की रक्षा के लिए:-

या श्री : स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मी :,

पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धिः ।

श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा , 

तां त्वां नताः स्म परिपालय देवि विश्वम् ॥

4.विश्व के अभ्युदय के लिए:-

 विश्वेश्वरि त्वं परिपासि विश्वं , 

विश्वात्मिका धारयसीति विश्वम्  

विश्वेशवन्द्या भवती भवन्ति ।

 विश्वाश्रया ये त्वयि भक्तिनम्राः ॥ 

5.विश्वव्यापी विपत्तियोंके नाश के लिए:-

देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद प्रसीद, 

मातर्जगतोऽखिलस्य । 

प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं ,

त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य ॥

6.विश्वके पाप - ताप - निवारण के लिए:-

देवि प्रसीद परिपालय नोऽरिभीते- नित्यं,

यथासुरवधादधुनैव सद्यः । 

पापानि सर्वजगतां प्रशमं नयाशु,

उत्पातपाकजनितांश्च महोपसर्गान् ॥

7.विपत्ति - नाश के लिए:-

शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे ।

 सर्वस्यातिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥

8.विपत्तिनाश और शुभ की प्राप्ति के लिए:-

करोतु सा नः शुभहेतुरीश्वरी,

 शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः ।

9.भय - नाश के लिए:-

सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते । 

भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते ।।

अथवा

एत्तते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम् । 

पात नः सर्वभीतिभ्यः कात्यायनि नमोऽस्तु ते ॥

अथवा

ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम् । 

त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोऽस्तु ते ॥ 

10.पाप - नाश के लिए:-

हिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्य या जगत् । 

सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्योऽन : सुतानिव ॥ 

11.रोग - नाश के लिए:-

रोगानशेषानपहंसि तुष्टा ,

रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् ।

 त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां,

 त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति ॥

12.महामारी - नाश के लिए:-

जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी । 

दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते ॥

13:-आरोग्य और सौभाग्यकी प्राप्ति के लिए:-

देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम् । 

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥

14.सुलक्षणा पत्नी की प्राप्तिके लिए:- 

पत्नी मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम् । 

तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम् ॥

15.बाधा - शान्ति के लिए:-

सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि । 

एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम् ॥

16:-सर्वविधि अभ्युदय के लिए:-

ते सम्मता जनपदेष धनानि तेषां ,

तेषां यशांसि न च सीदति धर्मवर्गः । 

धन्यास्त एव निभूतात्मजभृत्यदारा , 

येषां सदाभ्यदयदा भवती प्रसन्ना ।।

17.दारिद्यदुःखादिनाश के लिए:-

दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः ,

स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि । 

दारिद्रयदुःखभयहारिणि का त्वदन्या , 

सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽर्द्रचित्ता ॥

18.रक्षा पाने के लिए:-

शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके । 

घण्टास्वनेन नः पाहि चापज्यानि : स्वनेन च ॥ 

19:-समस्त विद्याओं की और समस्त स्त्रियों में मातृभाव की प्राप्ति के लिए:-

"विद्या : समस्तास्तव देवि भेदाः ,

स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्स । 

त्वयैकया पूरितमम्बयैतत्,

 का ते स्तुतिः स्तव्यपरा परोक्तिः ॥

20:- सब प्रकार के कल्याण के लिए:-

सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके । 

शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥

21.शक्ति - प्राप्ति के लिए:-

सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्तिभूते सनातनि । 

गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते ॥

22. प्रसन्नताकी प्राप्ति के लिए:- 

प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वातिहारिणि । 

त्रैलोक्यवासिनामीड्ये लोकानां वरदा भव ॥

23 . विविध उपद्रवोंसे बचने के लिए:-

रक्षांसि यत्रोग्रविषाश्च नागा 

यत्रारयो दस्युबलानि यत्र ।

 दावानलो यत्र तथाब्धिमध्ये 

तत्र स्थिता त्वं परिपासि विश्वम् ॥

24. बाधामुक्त होकर धन - पुत्रादिकी प्राप्तिके लिए:-

सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वितः ।

मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः ॥

25. भक्ति - मुक्तिकी प्राप्ति के लिए:-

" विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम् । 

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥

26. पाप नाश तथा भक्ति की प्राप्ति के लिए:-

"नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चण्डिके दुरितापहे ।

 रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ 

27 . स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्ति के लिए:-

सर्वभूता यदा देवी स्वर्गमुक्तिप्रदायिनी । 

त्वं स्तुता स्तुतये का वा भवन्तु परमोक्तयः ॥

28. स्वर्ग और मुक्ति प्राप्ति के लिए:-

" सर्वस्य बुद्धिरूपेण जनस्य . हृदि संस्थिते । 

स्वर्गापवर्गदे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥

29. मोक्षकी प्राप्ति के लिए:-

" त्वं वैष्णवी शक्तिरनन्तवीर्या ,

विश्वस्य बीजं परमासि माया । 

सम्मोहितं देवि समस्तमेतत्

त्व वै प्रसन्ना भुवि मुक्तिहेतुः

30. स्वप्नमें सिद्धि - असिद्धि जानने के लिए:-

" दुर्गे देवि नमस्तभ्यं सर्वकामार्थसाधिके ।

मम सिद्धिमसिद्धिं वा स्वप्ने सर्वं प्रदर्शय ।।

हरि ॐ तत्सत्।

श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'






मंगलवार, 6 फ़रवरी 2024

शिववास की गणना कैसे करें ?

शिववास की गणना कैसे करें ?

किसी कार्य विशेष के लिए संकल्पित शिव पूजा, रुद्राभिषेक, महामृत्युञ्जय अनुष्ठान आदि में शिव वास का विचार करना बहुत जरुरी होता है। 

शास्त्रों के मतानुसार यह कहा गया है की भगवान शिव पूरे महीने में सात अलग-अलग जगह पर वास करते हैं। उनके वास स्थान से यह पता चलता है की उस समय भगवान शिव क्या कर रहे हैं और वह समय प्रार्थना के लिए उचित है या नहीं।शिव वास की गणना करके ही शिव से संबंधित पूजा, रुद्राभिषेक जैसे कर्म इसके फल शुभ्रता को प्राप्त कर मनोवांछित फल प्रदान करते हैं।

शिववास की गणना:

नारद जी द्वारा बतायी गई शिव वास देखने की विधि के लिए सबसे पहले तिथि को देखें। शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से पूर्णिमा को 1 से 15 और कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक 16 से 30 मान दें। इसके बाद जिस भी तिथि के लिए हमें देखना हो उसे 2 से गुणा करें और गुणनफल में 5 जोड़कर उसे 7 से भाग दें। शेषफल के अनुसार शिव वास जानें।

तिथिं च द्विगुणी कृत्वा पुनः पञ्च समन्वितम् ।

सप्तभिस्तुहरेद्भागम् शेषं शिव वास उच्यते ।।

शिव वास के स्थान और फल:

शेषफल के अनुसार शिव वास का स्थान और उसका फल इस प्रकार है:-

1 – कैलाश में : सुखदायी

2 – गौरी पार्श्व में : सुख और सम्पदा

3 – वृषारूढ़ : अभीष्ट सिद्धि

4 – सभा : संताप

5 – भोजन : पीड़ादायी

6 – क्रीड़ारत : कष्ट

0 – श्मशान : मृत्यु

कैलाशे लभते सौख्यं गौर्या च सुख सम्पदः ।

 वृषभेऽभीष्ट सिद्धिः स्यात् सभायां संतापकारिणी।

भोजने च भवेत् पीड़ा क्रीडायां कष्टमेव च । 

श्मशाने मरणं ज्ञेयं फलमेवं विचारयेत्।।

उपरोक्त अनुसार शुक्ल पक्ष की द्वितीया, पंचमी, षष्ठी, नवमी, द्वादशी और त्रयोदशी तिथियां तथा कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा, चतुर्थी, पंचमी, अष्टमी, एकादशी एवं द्वादशी तिथियां शुभ फलदायी हैं। इन तिथियों पर किए गए सभी काम्य-कर्म एवं संकल्पित अनुष्ठान सिद्ध होते हैं।

निष्काम पूजा, महाशिवरात्रि, श्रावण माह, तीर्थस्थान या ज्योतिर्लिङ्ग में शिव वास देखना जरुरी नहीं होता।

हरि ॐ तत्सत्।

श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'


ज्योतिष शास्त्र में योग

 ज्योतिष शास्त्र में योग 

शुभ मुहूर्त या योग को लेकर मुहूर्त मार्तण्ड, मुहूर्त चिंतामणि, मुहूर्त पारिजात, धर्म सिंधु, निर्णय सिंधु आदि शास्त्रों ज में बहुत कुछ कहा गया है। ज्योतिष शास्त्र में सूर्य-चन्द्र की विशेष दूरियों की स्थितियों को योग कहा जाता है। योग 27 प्रकार के होते हैं। ये योग हमारे जीवन को बहुत प्रभावित किया करते हैं।

1.विष्कुम्भ, 2.प्रीति, 3.आयुष्मान, 4.सौभाग्य, 5.शोभन, 6.अतिगण्ड, 7.सुकर्मा, 8.धृति, 9.शूल, 10.गण्ड, 11.वृद्धि, 12.ध्रुव, 13.व्याघात, 14.हर्षण, 15.वज्र, 16.सिद्धि, 17.व्यतिपात, 18.वरीयान, 19.परिध, 20.शिव, 21.सिद्ध, 22.साध्य, 23.शुभ, 24.शुक्ल, 25.ब्रह्म, 26.इन्द्र और 27.वैधृति।

इसके अलावा भी योग होते हैं- जैसे रवि-पुष्य योग, पुष्कर योग , द्विपुष्कर योग, त्रिपुष्कर योग आदि।

पुष्कर योग :-

इस योग का निर्माण उस स्थिति में होता है जबकि सूर्य विशाखा नक्षत्र में होता है और चंद्रमा कृतिका नक्षत्र में होता है। सूर्य और चंद्र की यह अवस्था एक साथ होना अत्यंत दुर्लभ होने से इसे शुभ योगों में विशेष महत्व दिया गया है। यह योग सभी शुभ कार्यों के उत्तम मुहूर्त होता है।

त्रिपुष्कर और द्विपुष्कर योग:-

वार, तिथि और नक्षत्र तीनों के संयोग से बनने वाले योग को दविपुष्कर योग कहते हैं। इसके अलावा यदि रविवार, मंगलवार या शनिवार में द्वितीया, सप्तमी या द्वादशी तिथि के साथ पुनर्वसु, उत्तराषाढ़ और पूर्वाभाद्रपद इन नक्षत्रों में से कोई नक्षत्र आता है तो त्रिपुष्कर योग बनता है।

ज्योतिष शास्त्र में यह एक शुभ योग है । यदि कोई इस दिन कार्य करता है तो उसे यह काम तीन बार करना पड़ता है इसलिए इसका नाम त्रिपुष्कर योग रखा गया है।

त्रिपुष्कर योग में भगवान विष्णु अथवा अपने आराध्य देव की पूजा करना अथवा पुण्य-कार्य श्रेयस्कर है। इस योग में आप जो भी कार्य करते हैं, उसका तीन गुना फल प्राप्त होता है। गुरुवार को भगवान विष्णु की पूजा पीले फूल, हल्दी, अक्षत, पंचामृत, तुलसी के पत्ते आदि से करनी चाहिए।

इन योगों में किया गया पाप भी उतना ही गुना दोषपूर्ण हो जाता है।

हरि ॐ तत्सत्।

- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'