शिववास की गणना कैसे करें ?
किसी कार्य विशेष के लिए संकल्पित शिव पूजा, रुद्राभिषेक, महामृत्युञ्जय अनुष्ठान आदि में शिव वास का विचार करना बहुत जरुरी होता है।
शास्त्रों के मतानुसार यह कहा गया है की भगवान शिव पूरे महीने में सात अलग-अलग जगह पर वास करते हैं। उनके वास स्थान से यह पता चलता है की उस समय भगवान शिव क्या कर रहे हैं और वह समय प्रार्थना के लिए उचित है या नहीं।शिव वास की गणना करके ही शिव से संबंधित पूजा, रुद्राभिषेक जैसे कर्म इसके फल शुभ्रता को प्राप्त कर मनोवांछित फल प्रदान करते हैं।
शिववास की गणना:
नारद जी द्वारा बतायी गई शिव वास देखने की विधि के लिए सबसे पहले तिथि को देखें। शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से पूर्णिमा को 1 से 15 और कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक 16 से 30 मान दें। इसके बाद जिस भी तिथि के लिए हमें देखना हो उसे 2 से गुणा करें और गुणनफल में 5 जोड़कर उसे 7 से भाग दें। शेषफल के अनुसार शिव वास जानें।
तिथिं च द्विगुणी कृत्वा पुनः पञ्च समन्वितम् ।
सप्तभिस्तुहरेद्भागम् शेषं शिव वास उच्यते ।।
शिव वास के स्थान और फल:
शेषफल के अनुसार शिव वास का स्थान और उसका फल इस प्रकार है:-
1 – कैलाश में : सुखदायी
2 – गौरी पार्श्व में : सुख और सम्पदा
3 – वृषारूढ़ : अभीष्ट सिद्धि
4 – सभा : संताप
5 – भोजन : पीड़ादायी
6 – क्रीड़ारत : कष्ट
0 – श्मशान : मृत्यु
कैलाशे लभते सौख्यं गौर्या च सुख सम्पदः ।
वृषभेऽभीष्ट सिद्धिः स्यात् सभायां संतापकारिणी।
भोजने च भवेत् पीड़ा क्रीडायां कष्टमेव च ।
श्मशाने मरणं ज्ञेयं फलमेवं विचारयेत्।।
उपरोक्त अनुसार शुक्ल पक्ष की द्वितीया, पंचमी, षष्ठी, नवमी, द्वादशी और त्रयोदशी तिथियां तथा कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा, चतुर्थी, पंचमी, अष्टमी, एकादशी एवं द्वादशी तिथियां शुभ फलदायी हैं। इन तिथियों पर किए गए सभी काम्य-कर्म एवं संकल्पित अनुष्ठान सिद्ध होते हैं।
निष्काम पूजा, महाशिवरात्रि, श्रावण माह, तीर्थस्थान या ज्योतिर्लिङ्ग में शिव वास देखना जरुरी नहीं होता।
हरि ॐ तत्सत्।
श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'
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अग्निवास के लिए मुहुर्त-गणना कैसे करें ?
अनादि काल से हवन के माध्यम से ही मानव देवी- देवताओं को प्रसन्न करके मनोवांछित फल प्राप्त करते रहे हैं। शास्त्रों में पांच प्रकार के यज्ञ का वर्णन मिलता है। एक 'ब्रह्म यज्ञ' जिसमें ईश्वर या इष्ट देवताओं की उपासना की जाती है। दूसरा है 'देव यज्ञ' जिसमें देव पूजा और अग्निहोत्र कर्म किया जाता है।
हवन तथा यज्ञ भारतीय संस्कृति तथा सनातन हिन्दू धर्म में पर्यावरण शुद्धीकरण की एक विशिष्ट प्रक्रिया है।हवन- कुण्ड में अग्नि के माध्यम से ईश्वर को हवा द्वारा संतुष्ट करने की विशेष विधि से उपासना करने की प्रक्रिया को यज्ञ कहते हैं।
हवि, अथवा हविष्य वैसे पदार्थ हैं जिनकी अग्नि में आहुति दी जाती है। हवन कुंड में अग्नि प्रज्वलित करने के पश्चात इस पवित्र अग्नि में तील, जौ, चावल,शहद, घी, अन्य विशिष्ट पदार्थ इत्यादि पदार्थों की आहुति दी जाती है।
वायु-प्रदूषण को कम करने के लिए भारत देश में ऋषि -मुनि, ब्रह्मण और सनातन संस्कृति वाले यज्ञ किया करते थे और तब हमारे देश में कई तरह के रोग नहीं होते थे। आज भी सनातन संस्कृति में इसका प्रचलन है।
दैवी सम्पदा की प्राप्ति, इष्ट -सिद्धि, पुण्य, धर्म,स्वास्थ्य एवं समृद्धि इत्यादि की प्राप्ति हेतु भी हवन किया जाता है। अग्नि में जलने पर किसी भी पदार्थ के गुण कई गुना बढ़ा जाते हैं । उदाहरण - स्वरूप अग्नि में अगर मिर्च जलाया जाता है तो उस मिर्च का प्रभाव बढ़ कर लोगों को अत्यंत तकलीफ देती है उसी प्रकार अग्नि में किसी विशेष मंत्र जप के साथ अग्निहोत्र कर्म करने से सकारात्मक ध्वनि तरंगित होती हैं और शरीर में ऊर्जा का संचारित होती है।
हवन के प्रभाव से अनेक दुस्साध्य रोग ठीक हो जाते हैं। आयुर्वेद मे भस्म-चिकित्सा भी इस प्रक्रिया से उत्पन्न प्रतिफल हैं। स्वर्ण का भक्षण लोग नहीं करते हैं तथापि स्वर्ण -भस्म द्वारा विभिन्न व्याधियों की चिकित्सा जगजाहिर है।
किसी भी अनुष्ठान, पूजा , संस्कार आदि में हवन का शास्त्रीय विधान जिसका अनुसरण करना आवश्यक है । इसके अनुसार ही अग्निहोत्र कर्म हवन के फल और प्रतिफल प्राप्त होते हैं। हवन के समय इसके लिए अग्निवास का मुहूर्त होना अनिवार्य है।
विशिष्ट लाभ प्राप्ति हेतु अग्निवास के मुहुर्त-गणना की विधि यहांँ विस्तृत विधि दी गयी है।
अग्निवास मुहुर्त-गणना ज्ञात करने की विधि:
सैका तिथिर्वारयुता कृताप्ता शेषे गुणेभ्रे भुवि वह्निवासः।
सौख्याय होमे शशियुग्मशेषे प्राणार्थनाशौ दिवि भूतले च ।।
शुक्ल प्रतिपदा से वर्तमान तिथि तक गणना करके उसमें वारसंख्या को जोड़कर एक जोड़ें। योगफल में चार का भाग दें। शेष के अनुसार अग्नि- स्थापन के निम्नलिखित फल प्राप्त होते हैं।
शेष अग्निवासः फलः
1 स्वर्ग प्राणनाश:
2 पाताले धननाश:
3,0 पृथ्वी सुखः
उपरोक्त तालिका के अनुसार ही अग्निवास के शुभाशुभ को जाना जा सकता है।
1- जिस दिन आपको होम करना हो, उस दिन की तिथि और वार की संख्या को जोड़कर पुनः एक जोड़ें। फिर कुल जोड़ को 4 से भाग देवें- अर्थात् शुक्ल प्रतिपदा से वर्तमान तिथि तक गिनें तथा रविवार से दिन की गणना करें ,पुनः दोनों को जोड़ करके उसमें एक जोड़ें और चार से भाग दें।
यदि शेष शुन्य 0 अथवा 3 बचे तो अग्नि का वास पृथ्वी पर होगा और इस दिन हवन करना कल्याण कारक होता है ।
यदि शेष 2 बचे तो अग्नि का वास पाताल में होता है और इस दिन हवन करने से धन का नाश होता है ।
यदि शेष 1 बचे तो आकाश में अग्नि का वास होगा, इसमें होम करने से आयु का क्षय अर्थात् प्राणनाश होता है ।
अतः यह आवश्यक है की अग्नि के वास का सही ज्ञान करने के बाद ही हवन करें ।
वार की गणना रविवार से तथा तिथि की गणना शुक्ल-पक्ष की प्रतिपदा से करनी चाहिए। शुक्लपक्ष में 1 से 15 तथा कृष्ण पक्ष में 16-30 की गणना तिथि अनुसार करें।
यथा- 1. शुक्लपक्ष बुधवार सप्तमी तिथि को अग्निवास ज्ञात करें।
शुक्लपक्ष सप्तमी में तिथि संख्या-7, वार संख्या बुधवार के लिए 4 है। अतः नियमानुसार (7+4+1)÷4 में शेष 0 है। अतः नियमानुसार 0 शेष रहने पर अग्निवास पृथ्वी पर है जो सुखप्रद है ।
2. सोमवार कृष्णपक्ष द्वितीया को (17+2+1)÷4, शेष यहाँ भी 0 है। अतः नियमानुसार अग्निवास पृथ्वी पर है और सुखदायक है।
इसी प्रकार किसी भी अभीष्ट तिथि को अग्निवास के फलाफल को जाना जा सकता है।
गर्भाधानादि संस्कार निमित्तक हवन में अग्निवास के मुहुर्त-गणना की अनिवार्यता नहीं है। इसी प्रकार नित्य होम, दुर्गा-होम, रुद्र होम, वास्तुशान्ति, विष्णु की प्रतिष्ठा, ग्रहशान्ति होम, नवरात्र होम, शतचण्डी, लक्ष और कोटि हवनात्मक अनुष्ठान, पितृमेध, उत्पात-शान्ति की स्थिति में अग्निवास के मुहुर्त-गणना देखना आवश्यक नहीं है
नवरात्रि में, चण्डी यज्ञ, नित्य हवन, ग्रहण अवधि में हवन, अमावस्या पर, उपवास के दिन, संस्कार से सम्बन्धित कार्य जैसे मुण्डन, उपनयन समारोह, विवाह, यात्रा आदि के लिये अग्निवास के मुहुर्त-गणना को अनिवार्य नहीं माना जाता है, तथापि यथासंभव यथास्थिति ध्यान रखना सर्वोत्तम है।
हरि ॐ तत्सत् ।
श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'
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