हम अक्सर ऐसा सुनते हैं कि धन का धर्म से क्या संबंध ? राजनीति को धर्म से मत जोड़ें पर ऐसा नहीं है।धन, धर्म तथा राजनीति में अविछिन्न संबंध है।धर्म के बिना तो हम सुखी हो ही नहीं सकते । प्राचीन काल से ही धर्म को सुखी जीवन का आधार माना जाता रहा है । हमारे युग-द्रष्टा ॠषियों के द्वारा शासक अथवा राजा को धर्म के आधार पर ही शासन करने की अनुमाति दी गयी है।
काम क्रोधो तु संयम्य यो अर्थान् धर्मेण पश्याति।
लोकास्तमनुवर्तन्ते समुद्रमिव सिन्धव:।।
जो व्यक्ति काम तथा क्रोध को त्यागकार धन को धर्म की दृष्टि से देखता है, लोग उनका अनुसरण वैसे ही करते हैं- जैसे नदियाँ समुद्रों की। स्पष्ट है कि विकाररहित होकर शुद्ध वृत्ति से धनोपार्जन को हमारे सनातन हिन्दू-धर्म में शास्त्रीय मान्यता प्राप्त है।
उसी प्रकार नृप अथवा शासक को अपना लाभ-हानि, अपना-पराया, प्रिय-अप्रिय का भाव छोड़कर एवं जितेन्द्रिय बनकर यम के सदृश ही कठोर दंडनीति का पालन करना चाहए।
हित्वा लाभालाभौ स्वयं हित्वा प्रियाप्रिये।
वर्त्तेत् याम्यावृत्तया जितक्रोधो जितेन्द्रिय ।।
उदार चरित्रवालों के लिए तो संपूर्ण विश्व ही परिवार के समान है।
अयं निज: परो वेत्ति गणना लघुचेत्तषां।
उदारचरितानांतु वसुधैवकुटुम्बकं।।
वित्तशास्त्र के जनक तथा राजनीतिशास्त्र के पण्डित कौटिल्य(चाणक्य) ने कुछ अत्यंत महत्वपूर्णसूत्र मानव-जीवन के सम्यक् विकास के लिए प्रदान किए जो द्रष्टव्य है एवं अनुकरणीय भी ।
उसी प्रकार नृप अथवा शासक को अपना लाभ-हानि, अपना-पराया, प्रिय-अप्रिय का भाव छोड़कर एवं जितेन्द्रिय बनकर यम के सदृश ही कठोर दंडनीति का पालन करना चाहए।
हित्वा लाभालाभौ स्वयं हित्वा प्रियाप्रिये।
वर्त्तेत् याम्यावृत्तया जितक्रोधो जितेन्द्रिय ।।
उदार चरित्रवालों के लिए तो संपूर्ण विश्व ही परिवार के समान है।
अयं निज: परो वेत्ति गणना लघुचेत्तषां।
उदारचरितानांतु वसुधैवकुटुम्बकं।।
वित्तशास्त्र के जनक तथा राजनीतिशास्त्र के पण्डित कौटिल्य(चाणक्य) ने कुछ अत्यंत महत्वपूर्णसूत्र मानव-जीवन के सम्यक् विकास के लिए प्रदान किए जो द्रष्टव्य है एवं अनुकरणीय भी ।
सुखस्य मूलं धर्म: । धर्मस्य मूलमर्थ: ।अर्थस्य मूलं राज्यं ।
राज्यमूलमिन्द्रियजय:। इन्द्रिजयस्य मूलं विनय: । विनस्य मूलं वृद्धोपसेवा । वृद्धोपसेवाया विज्ञानं । विज्ञानेनात्मानां संपादयेत् । संपादितात्मा जितात्मा भवति । जितात्मा सर्वार्थै: संयुज्यते।
सुख का मूल धर्म है । धर्म का मूल अर्थ है । अर्थ का मूल राज्य है। राज्य का मूल इन्द्रियों का विजय है । इन्द्रियजय का मूल विनम्रता है । विनम्रता वृद्धों की सेवा द्वारा प्राप्त होती है । वृद्धों की सेवा-सत्कार से ही विशेष ज्ञान की प्राप्ति होती है । इस विशेष ज्ञान से ही व्यक्ति को स्वयं को संपादित करना चाहिए | संपादितआत्मा ही जितात्मा है । जितात्मा पुरुष ही सर्वार्थों से सुसमृद्द हो जाते हैं।
अन्यत्र भी कहा गया है –
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:।
चत्वारि तस्य वर्द्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलं ।।
सुख का मूल धर्म है । धर्म का मूल अर्थ है । अर्थ का मूल राज्य है। राज्य का मूल इन्द्रियों का विजय है । इन्द्रियजय का मूल विनम्रता है । विनम्रता वृद्धों की सेवा द्वारा प्राप्त होती है । वृद्धों की सेवा-सत्कार से ही विशेष ज्ञान की प्राप्ति होती है । इस विशेष ज्ञान से ही व्यक्ति को स्वयं को संपादित करना चाहिए | संपादितआत्मा ही जितात्मा है । जितात्मा पुरुष ही सर्वार्थों से सुसमृद्द हो जाते हैं।
अन्यत्र भी कहा गया है –
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:।
चत्वारि तस्य वर्द्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलं ।।
प्रतिदिन वृद्धों को अभिवादन तथा सेवा-सत्कारआदि करनेवालों की चार चीजें बढ़ती है –आयु ,विद्या , यश एवं बल। वृद्धों की सेवा से विद्या तथा विशेष ज्ञान की प्राप्ति होती है । विद्या विनय को देती है । इससे पात्रताआती है। पात्रता से धन की प्राप्ति होती है । धन से धर्म की प्राप्ति होती है । पुन: धर्म से सुख की प्राप्ति होती है ।वर्तमान परिवेश में आवश्यकता है वृद्धों की सेवा-सम्मान पर समुचित ध्यान देने की क्योंकिअपनी संस्कृति के प्रतिकूल इनपर सम्यक् ध्यान नहीं देने के कारण हमारा समाज दु:ख को प्राप्त कर रहा है – हम अपनी इस भूल के कारण दु:खी बन गए हैं । हम सनातन-संस्कृति के शास्त्रीय , नैतिक तथा धार्मिक ज्ञान के अभाव में अपने संकट का कारण स्वयं ही बन गए हैं ।
हम धर्मशील होकर ही सुखी हो सकते हैं।
शास्त्रकारों ने धर्म के दस लक्षण बताए हैं – इन दस लक्षणों कोआत्मसात् करके मानव अपने जीवन को सुखी बना सकते हैं – धृति, क्षमा , दम, अस्तेय़( चोरी न करना ) , पवित्रता , इन्द्रिनिग्रह , बुद्धिमता , विद्या , सत्य तथा अक्रोध ।
धृति क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणं।।
अस्तु सत्य एवं धर्म को अपनाकार हम अपने मानव –जीवन को सुसमृद्ध करके सुसंस्कृत कर लें।
धृति क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणं।।
अस्तु सत्य एवं धर्म को अपनाकार हम अपने मानव –जीवन को सुसमृद्ध करके सुसंस्कृत कर लें।
धर्मो रक्षति रक्षितः।।
हरि ॐ तत्सत्!
पं श्री तारकेश्वर झा ' आचार्य '