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शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2024

बीजात्मक तंत्र श्रीदुर्गा सप्तशती

।।बीजात्मक तंत्र श्रीदुर्गा सप्तशती ||
(अद्भुत अतुलनीय तंत्र साधना की दुर्लभ बीजात्मक 
श्रीदुर्गा सप्तशती )
बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती अर्थात् दुर्गा सप्तशती के सभी ७०० श्लोकों का बीजमंत्र रूप। ब्रह्माण्ड में तीन मुख्य तत्व है- सत्, रज् व तम्। उसी प्रकार देवों में भी तीन ही मुख्य हैं- ब्रह्मा, विष्णु और महेश। सप्तशती को भी तीन ही मुख्य भागों में बांटा गया है –प्रथम चरित्र ,मध्यम चरित्र व उत्तम चरित्र । सप्तशती के तीन मुख्य देवता है- महाकाली, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती। सप्तशती में जप किया जाने वाला मंत्र नवार्णमन्त्र भी ३×३ ही है और इनके तीन ही मुख्य बीज है- ऐं , ह्रीं और क्लीं। इनका विस्तार सिद्धकुञ्जिकास्तोत्रम् में दिया गया है। यहाँ ऐं- वाग बीज है जो ज्ञान अर्थात् सरस्वती का बोधक है। ह्रीं- माया बीज है जो धन अर्थात् महालक्ष्मी का बोधक है। क्लीं – काम बीज है जो गतिशीलता अर्थात् महाकाली का बोधक है। हमारे धर्म शास्त्रों में बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती को इन्ही तीन मुख्य बीज ऐं, ह्रीं और क्लीं को आधार बनाते हुए और दुर्गा सप्तशती के सभी ७०० श्लोकों को तीन मुख्य भाग में बाँट कर बनाया गया है अर्थात् नवार्णमन्त्र के जो प्रथम बीजाक्षर ऐं है उनको प्रारम्भ में रख ह्रीं बीज का विस्तार करते हुए दुर्गा सप्तशती के प्रत्येक श्लोक का एक मुख्य बीज मंत्र बनाया गया है।जैसे महाकाली, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती तीन अलग-अलग देवी होते हुए भी एक ही पराशक्ति है । अब अंत में क्लीं जो कामबीज है उसे नम: रूप से कार्य करते बनाया गया है। इस प्रकार तीन मुख्य भागों में सम्पूर्ण दुर्गासप्तशती को बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती बनाया गया है और प्रारम्भ में महाशून्य अर्थात् ॐ प्रणव लिखा गया है । यहाँ मै उन महान ज्ञानी आचार्यों जिन्होने अपने ज्ञान व अथक परिश्रम से इस प्रकार कि कृति हमारे बीच रखा – वैदिक आचार्यों को नमन करते हुए बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती वेदों के प्रचार-प्रसार उद्देश्य से रखता हूँ। यह बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती उन कर्मकांडी आचार्यों के लिए बहुत ही प्रभावी है जिन्हे कि नवरात्रि या अन्य अवसरो में एक से अधिक बार सप्तशती का पाठ करना होता है इनके अलावा भी जिन साधकों को सप्तशती के बड़े श्लोकों को पढ़ने में दिक्कत होती है और विशेष कर तंत्रिकों के लिए विशेष लाभप्रद है।
बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती पाठ विधि – बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती के पाठ में षडंग (कवच, अर्गला, कीलक, प्रधानिक रहस्य, वैकृतिक रहस्य तथा मूर्ति रहस्य) पाठ की आवश्यकता नहीं है। सबसे पहले दुर्गाजी कापूजन कर शापोद्धार आदि की क्रिया संपन्न कर लेनी चाहिए। 
अब तन्त्रोक्तं रात्रिसूक्तम् का पाठ कर आदि एवं अन्त में नर्वाण मंत्र का 108 बार जप करें व अंत में देवीसूक्तम् का पाठ करें।॥ अथ बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती ॥
शापोद्धार मंत्र- शापोद्धार के लिए नीचे वर्णित मंत्र का ७ बार आदि व अन्त में जप करना चाहिये।
‘ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा’ ।।
अथ बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती ॥
शापोद्धार मंत्र- शापोद्धार के लिए नीचे वर्णित मंत्र का ७ बार आदि व अन्त में जप करना चाहिये।
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा।।१।।
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा।।२।। 
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा।।३।।
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा।।४।।
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा।।५।।
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा ।।६।
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा ।।७।।
उत्कीलन मंत्र- शापोद्धार के बाद उत्कीलन-मंत्र का २१ बार आदि व अन्त में जप करना चाहिये।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
शापोद्धारादि के पश्चात् तंत्र दुर्गासप्तशती के निम्नांकित तंत्रोक्त रात्रिसूक्त का पाठ करना चाहिये।
तन्त्रोक्तं रात्रिसूक्तम्
ॐ ऐं ह्रीं नमः॥१॥
ॐ ऐं स्रां(स्त्रां) नमः॥२॥
ॐ ऐं स्लूं नमः॥३॥
ॐ ऐं क्रैं नमः॥४॥
ॐ ऐं त्रां नम:॥५॥
ॐ ऐं फ्रां नम:॥६॥
ॐ ऐं जीं नम:॥७॥
ॐ ऐं लूं नमः॥८॥
ॐ ऐं स्लूं नमः॥९॥
ॐ ऐं नों नम:॥१०॥
ॐ ऐं स्त्रीं नमः॥११॥
ॐ ऐं प्रूं नमः॥१२॥
ॐ ऐं सूं नमः॥१३॥
ॐ ऐं जां नमः॥१४॥
ॐ ऐं बौं नमः॥१५॥
ॐ ऐं ओं नमः॥१६॥
नवार्णमन्त्र जपविधि:
तांत्रिक रात्रिसूक्त के पाठ या जप के उपरान्त नवार्ण मंत्र का कम से कम १०८ बार जप किया जाना चाहिये । नवार्ण मंत्र के जप के पहले विनियोग, न्यास आदि सम्पन्न करें।
नवार्ण मंत्र का विनियोग-न्यासादि
विनियोग:—
ॐ अस्य श्रीनवार्णमन्त्रस्य ब्रह्मविष्णुरुद्रा ऋषय:, गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छदांसि,
श्रीमहाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वत्यो देवता:, ऐं बीजम्, ह्रीं शक्ति:, क्लीं कीलकम्,
श्रीमहाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वतीप्रीत्यर्थे जपे विनियोग:।
तत्पश्चात् मंत्रों द्वारा इस भावना से की शरीर के समस्त अंगों में मंत्ररूप से देवताओं का वास हो रहा है , न्यास करें। ऐसा-करने से पाठ या जप करने वाला व्यक्ति मंत्रमय हो जाता है तथा मंत्र में अधिष्ठित देवता उसकी रक्षा करते हैं | इसके अतिरिक्त न्यास द्वारा उसके बाहर-भीतर की शुद्धि होती है और साधना निर्विघ्न पूर्ण होती है । ऋष्यादिन्यास ,करन्यास, हृदयादिन्यास, अक्षरन्यास, तथा दिड्.न्यास  के लिए सम्पूर्ण दुर्गासप्तशती देखें।
ऋष्यादिन्यास:—
ब्रह्मविष्णुरुद्रऋषिभ्यो नम: शिरसि । गायत्र्युष्णिण-गनुष्टुप्छन्दोभ्यो नम: मुखे ।
महाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वतीदेवताभ्यो नम: हृदि ।
ऐं बीजाय नम: गुह्ये ।
ह्रीं शक्तये नम: पादयो: ।
क्लीं कीलकाय नम: नाभौ ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै सर्वाङ्गे।
करन्यास:—
ॐ ऐं अङ्गुष्ठाभ्यां नम: ।
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नम: ।
ॐ क्लीं मध्यमाभ्यां नम: ।
ॐ चामुण्डायै अनामिकाभ्यां नम: ।
ॐ विच्चे कनिष्ठिकाभ्यां नम: ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे करतल-करपृष्ठाभ्यां नम: ।हृदयादिन्यास:—
ॐ ऐं हृदयाय नम: ।
ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा ।
ॐ क्लीं शिखायै वषट् ।
ॐ चामुण्डायै कवचाय हुम् ।
ॐ विच्चे नेत्रत्रयाय वौषट् ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे अस्त्राय फट् ।
अक्षरन्यास:—
ॐ ऐं नम: शिखायाम् ।
ॐ ह्रीं नम: दक्षिणनेत्रे ।
ॐ क्लीं नम: वामनेत्रे ।
ॐ चां नम: दक्षिणकर्णे ।
ॐ मुं नम: वामकर्णे ।
ॐ डां नम: दक्षिणनासायाम् ।
ॐ यैं नम: वामनासायाम् ।
ॐ विं नम: मुखे ।
ॐ च्चें नम: गुह्ये ।
एवं विन्यस्य ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे’ इति नवार्णमन्त्रेण अष्टवारं व्यापकं कुर्यात् ।
दिङ्न्यास:—
ॐ ऐं प्राच्यै नम: ।
ॐ ऐं आग्नेय्यै नम: ।
ॐ ह्रीं नैऋत्यै नम: ।
ॐ क्लीं प्रतीच्यै नम: ।
ॐ क्लीं वायव्यै नम: ।
ॐ चामुण्डायै उदीच्यै नम: ।
ॐ चामुण्डायै ऐशान्यै नम: ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ऊर्ध्वायै नम: ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे भूम्यै नम: ।
ध्यानम्
खड्‌गं चक्रगदेषुचापपरिघाञ्छूलं भुशुण्डीं शिरः शङ्खं संदधतीं करैस्त्रिनयनां सर्वाङ्गभूषावृताम्।
नीलाश्मद्युतिमास्यपाददशकां सेवे महाकालिकां यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधुं कैटभम्॥१॥
अक्षस्रक्परशुं गदेषुकुलिशं पद्मं धनुष्कुण्डिकां दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम्।
शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तैः प्रसन्नाननां सेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम्॥२॥
घण्टाशूलहलानि शङ्‌खमुसले चक्रं धनुः सायकं हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम्।
गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महा- पूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम्॥३॥
माला प्रार्थना
फिर “ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः” इस मन्त्र से माला की पूजा करके प्रार्थना करें-
ॐ मां माले महामाये सर्वशक्तिस्वरूपिणि। चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्तस्तस्मान्मे सिद्धिदा भव॥
ॐ अविघ्नं कुरु माले त्वं गृह्णामि दक्षिणे करे। जपकाले च सिद्ध्यर्थं प्रसीद मम सिद्धये॥
ॐ अक्षमालाधिपतये सुसिद्धिं देहि देहि सर्वमन्त्रार्थसाधिनि
साधय साधय सर्वसिद्धिं परिकल्पय परिकल्पय मे स्वाहा।
इसके बाद “ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे” इस मन्त्र का १०८ बार जप करें और-
गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम्।
सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादान्महेश्वरि॥
इस श्लो्क को पढ़कर देवी के वामहस्त में जप निवेदन करें ।।। बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती न्यासः।।
विनियोगः-प्रथममध्यमोत्तरचरित्राणां ब्रह्मविष्णुरुद्रा ऋषयः, श्रीमहाकाली महालक्ष्मी महासरस्वत्यो देवताः,
गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छंन्दांसि, नन्दाशाकम्भरीभीमाः शक्तयः, रक्तदन्तिकादुर्गाभ्रामर्यो बीजानि,
अग्नि वायु सूर्यास्तत्त्वानि, ऋग्यजुः सामवेदा ध्यानानि, सकलकामनासिद्धये
श्रीमहाकाली महालक्ष्मी महासरस्वती देवताप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः।
इसे पढ़कर जल गिरायें ।
अंगन्यासः-
ॐ ऐं स्लूं अंगुष्ठाभ्यां नमः।
ॐ ऐं फ्रें तर्जनीभ्यां नमः।
ॐ ऐं क्रीं मध्यमाभ्यां नमः।
ॐ ऐं म्लूं अनामिकाभ्यां नमः।
ॐ ऐं घ्रें कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।
ॐ ऐं श्रूं करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
ऋष्यादिन्यासः-
ॐ ऐं स्लूं हृदयाय नमः।
ॐ ऐं फ्रें शिरसे स्वाहा ।
ॐ ऐं क्रीं शिखायै वषट् ।
ॐ ऐं म्लूं कवचाय हुं।
ॐ ऐं घ्रें नेत्रत्रयाय वौषट् ।
ॐ ऐं श्रूं अस्त्राय फट् ।।
।।ध्यानमंत्रम्।।
या चण्डी मधुकैटभादि दैत्यदलनी या महिषोन्मूलिनी,
या धूम्रेक्षणचण्डमुण्ड मथनी या रक्तबीजाशिनी।
शक्तिः शुम्भनिशुम्भदैत्यदलनी या सिद्धि लक्ष्मीः परा,
सा दुर्गा नवकोटि मूर्तिसहिता मां पातु विश्वेश्वरी।।
।।बीजात्मक तंत्र श्रीदुर्गा सप्तशती प्रारम्भ।।
।।ॐ नमश्चण्डिकायै।।
प्रथम चरित्र।।
।।प्रथमोऽध्यायः।।
विनियोगः-ॐ प्रथमचरित्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, महाकाली देवता, गायत्री छन्दः,नन्दा शक्तिः,रक्तदन्तिका बीजम्, अग्निस्तत्त्वम्,ऋग्वेदः स्वरूपम्, श्रीमहाकालीप्रीत्यर्थे प्रथमचरित्रजपे विनियोगः।
ध्यानम् 
ॐ खड्‌गं चक्रगदेषुचापपरिघाञ्छूलं भुशुण्डीं शिरः शङ्खं संदधतीं करैस्त्रिनयनां सर्वाङ्गभूषावृताम्।
नीलाश्मद्युतिमास्यपाददशकां सेवे महाकालिकां यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधुं कैटभम्॥
‘ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।’ 
‘ॐ बीजाक्षरायै विद्महे तत् प्रधानायै धीमहि तन्नः शक्तिः प्रचोदयात्।’
ॐ ऐं श्रीं नमः॥१॥
ॐ ऐं ह्रीं नम:॥२॥
ॐ ऐं क्लीं नम:॥३॥
ॐ ऐं श्रीं नम:॥४॥
ॐ ऐं प्रीं नम:॥५।।
ॐ ऐं ह्रां नम:॥६॥
ॐ ऐं ह्रीं नम:॥७॥
ॐ ऐं स्रौं नमः॥८।।
ॐ ऐं प्रें नम:॥९॥
ॐ ऐं म्रीं नमः॥१०।।
ॐ ऐं ह्लीं नमः॥११॥
ॐ ऐं म्लीं नमः॥१२॥
ॐ ऐं स्त्रीं नमः॥१३॥
ॐ ऐं क्रां नमः॥१४॥
ॐ ऐं ह्स्लीं नमः॥१५॥
ॐ ऐं क्रीं नमः॥१६॥
ॐ ऐं चां नमः॥१७॥
ॐ ऐं भें नमः॥१८॥
ॐ ऐं क्रीं नमः॥१९॥
ॐ ऐं वैं नमः॥२०॥
ॐ ऐं ह्रौं नमः॥२१॥
ॐ ऐं युं नमः॥२२॥
ॐ ऐं जुं नमः॥२३॥
ॐ ऐं हं नमः॥२४॥
ॐ ऐं शं नमः॥25॥
ॐ ऐं रौं नमः॥26॥
ॐ ऐं यं नमः॥27॥
ॐ ऐं विं नमः॥२८॥
ॐ ऐं वैं नमः॥२९॥
ॐ ऐं चें नमः॥३०॥
ॐ ऐं ह्रीं नमः॥३१॥
ॐ ऐं क्रूं नमः॥३२॥
ॐ ऐं सं नमः॥३३॥
ॐ ऐं कं नमः॥३४॥
ॐ ऐं श्रां नमः॥३५॥
ॐ ऐं त्रों नमः॥३६॥
ॐ ऐं स्त्रां नमः॥३७॥
ॐ ऐं ज्यं नमः॥३८॥
ॐ ऐं रौं नमः॥३९॥
ॐ ऐं द्रां नमः॥४०॥
ॐ ऐं ह्रां नमः।।४१।।
ॐ ऐं ह्रां नमः॥४२॥
ॐ ऐं द्रूं नमः॥४३॥
ॐ ऐं शां नमः॥४४॥
ॐ ऐं क्रीं नमः॥४५॥
ॐ ऐं श्रौं नमः॥४६॥
ॐ ऐं जुं नमः॥४७॥
ॐ ऐं ह्ल्रूं नमः॥४८॥
ॐ ऐं श्रूं नमः॥४९॥
ॐ ऐं प्रीं नमः॥५०॥
ॐ ऐं रं नमः॥५१॥
ॐ ऐं वं नमः॥५२॥
ॐ ऐं व्रीं नमः॥५३॥
ॐ ऐं ब्लूं नमः॥५४॥
ॐ ऐं स्त्रौं नमः॥५५॥
ॐ ऐं व्लां नमः॥५६॥
ॐ ऐं लूं नमः॥५७॥
ॐ ऐं सां नमः॥५८॥
ॐ ऐं रौं नमः॥५९॥
ॐ ऐं स्हौं नमः॥६०॥
ॐ ऐं क्रूं नमः॥६१॥
ॐ ऐं शौं नमः॥६२॥
ॐ ऐं श्रौं नमः॥६३॥
ॐ ऐं वं नमः॥६४॥
ॐ ऐं त्रूं नमः॥६५॥
ॐ ऐं क्रौं नमः॥६६॥
ॐ ऐं क्लूं नमः॥६७॥
ॐ ऐं क्लीं नमः॥६८॥
ॐ ऐं श्रीं नमः॥६९॥
ॐ ऐं ब्लूं नमः॥७०॥
ॐ ऐं ठां नमः॥७१॥
ॐ ऐं ठ्रीं नमः॥७२॥
ॐ ऐं स्त्रां नमः॥७३॥
ॐ ऐं स्लूं नमः॥७४॥
ॐ ऐं क्रैं नमः॥७५॥
ॐ ऐं च्रां नमः॥७६॥
ॐ ऐं फ्रां नमः॥७७॥
ॐ ऐं ज्रीं नमः॥७८॥
ॐ ऐं लूं नमः॥७९॥
ॐ ऐं स्लूं नमः॥८०॥
ॐ ऐं नों नमः॥८१॥
ॐ ऐं स्त्रीं नमः॥८२॥
ॐ ऐं प्रूं नमः॥८३॥
ॐ ऐं स्रूं नमः॥८४॥
ॐ ऐं ज्रां नमः॥८५॥
ॐ ऐं बौं नमः॥८६॥
ॐ ऐं ओं नमः॥८७॥
ॐ ऐं श्रौं नमः॥८८॥
ॐ ऐं ऋं नमः॥८९॥
ॐ ऐं रूं नमः॥९०॥
ॐ ऐं क्लीं नमः॥९१॥
ॐ ऐं दुं नमः॥९२॥
ॐ ऐं ह्रीं नमः॥९३॥
ॐ ऐं गूं नमः॥९४॥
ॐ ऐं लां नमः॥९५॥
ॐ ऐं ह्रां नमः॥९६॥
ॐ ऐं गं नमः॥९७॥
ॐ ऐं ऐं नमः॥९८॥
ॐ ऐं श्रौं नमः॥९९॥
ॐ ऐं जूं नमः॥१००॥
ॐ ऐं डें नमः॥१०१॥
ॐ ऐं श्रौं नमः॥१०२॥
ॐ ऐं छ्रां नमः॥१०३॥
ॐ ऐं क्लीं नमः॥१०४॥
ॐश्रीं क्लीं ह्रीं ह्रीं फट् स्वाहा॥
इति: प्रथमोध्यायः॥
बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती
।।मध्यम चरित्र।।
।।द्वितीयोऽध्यायः।।
विनियोगः- ॐ मध्यमचरित्रस्य विष्णुर्ऋषिः, महालक्ष्मीर्देवता, उष्णिक् छन्दः, शाकम्भरी शक्तिः,दुर्गा बीजम्, वायुस्तत्त्वम्, यजुर्वेदः स्वरूपम्, श्रीमहालक्ष्मीप्रीत्यर्थं मध्यमचरित्रजपे विनियोगः।
ध्यानम्
ॐ अक्षस्रक्‌परशुं गदेषुकुलिशं पद्मं धनुष्कुण्डिकां दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम्।
शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तैः प्रसन्नाननां सेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम्॥
ॐ ऐं श्रौं नमः॥१॥
ॐ ऐं श्रीं नमः॥२॥
ॐ ऐं ह्सूं नमः॥३॥
ॐ ऐं हौं नमः॥४॥
ॐ ऐं ह्रीं नमः॥५॥
ॐ ऐं अं नमः॥६॥
ॐ ऐं क्लीं नमः॥७॥
ॐ ऐं चां नमः॥८॥
ॐ ऐं मुं नमः॥९॥
ॐ ऐं डां नमः॥१०॥
ॐ ऐं यैं नमः॥११॥
ॐ ऐं विं नमः॥१२॥
ॐ ऐं च्चें नमः॥१३॥
ॐ ऐं ईं नमः॥१४॥
ॐ ऐं सौं नमः॥१५॥
ॐ ऐं व्रां नमः॥१६॥
ॐ ऐं त्रौं नमः॥१७॥
ॐ ऐं लूं नमः॥१८॥
ॐ ऐं वं नमः॥१९॥
ॐ ऐं ह्रां नमः॥२०॥
ॐ ऐं क्रीं नमः॥२१॥
ॐ ऐं सौं नमः॥२२॥
ॐ ऐं यं नमः॥२३॥
ॐ ऐं ऐं नमः॥२४॥
ॐ ऐं मूं नमः॥२५॥
ॐ ऐं सं नमः॥२६॥
ॐ ऐं हं नमः॥२७॥
ॐ ऐं सं नमः॥२८॥
ॐ ऐं सों नमः॥२९॥
ॐ ऐं शं नमः॥३०॥
ॐ ऐं हं नमः॥३१॥
ॐ ऐं ह्रौं नमः॥३२॥
ॐ ऐं म्लीं नमः॥३३॥
ॐ ऐं यूं नमः॥३४॥
ॐ ऐं त्रूं नमः॥३५॥
ॐ ऐं स्त्रीं नमः॥३६॥
ॐ ऐं आं नम:॥३७॥
ॐ ऐं प्रें नम:॥३८॥
ॐ ऐं शं नमः॥३९॥
ॐ ऐं ह्रां नम:॥४०॥
ॐ ऐं स्मूं नमः॥४१॥
ॐ ऐं ऊं नमः॥४२॥
ॐ ऐं गूं नमः॥४३॥
ॐ ऐं व्यं नमः॥४४॥
ॐ ऐं ह्रं नमः॥४५॥
ॐ ऐं भैं नमः॥४६॥
ॐ ऐं ह्रां नमः॥४७॥
ॐ ऐं क्रूं नमः॥४८॥
ॐ ऐं मूं नमः॥४९॥
ॐ ऐं ल्रीं नमः॥५०॥
ॐ ऐं श्रां नमः॥५१॥
ॐ ऐं द्रूं नमः॥५२॥
ॐ ऐं ह्रूं नमः॥५३॥
ॐ ऐं ह्सौं नमः॥५४॥
ॐ ऐं क्रां नमः॥५५॥
ॐ ऐं स्हौं नमः॥५६॥
ॐ ऐं म्लूं नमः॥५७॥
ॐ ऐं श्रीं नमः॥५८॥
ॐ ऐं गैं नमः॥५९॥
ॐ ऐं क्रीं नमः॥६०॥
ॐ ऐं त्रीं नमः॥६१॥
ॐ ऐं क्सीं नमः॥६२॥
ॐ ऐं कं नमः॥६३॥
ॐ ऐं फ्रौं नमः॥६४॥
ॐ ऐं ह्रीं नमः॥६५॥
ॐ ऐं शां नमः॥६६॥
ॐ ऐं क्ष्म्रीं नमः॥६७॥
ॐ ऐं रों नमः॥६८॥
ॐ ऐं ङूं नमः॥६९॥
ॐ ऐं क्रीं क्रां सौं स: फट् स्वाहा ॥
इति द्वितीयोऽध्यायः।।
॥ बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती ।।
।। तृतीयोऽध्यायः॥
ध्यानम्
ॐ उद्यद्भानुसहस्रकान्तिमरुणक्षौमां शिरोमालिकां रक्तालिप्तपयोधरां जपवटीं विद्यामभीतिं वरम्।
हस्ताब्जैर्दधतीं त्रिनेत्रविलसद्वक्त्रारविन्दश्रियं देवीं बद्धहिमांशुरत्ननमुकुटां वन्देऽरविन्दस्थिताम्॥
ॐ ऐं श्रौं नमः॥१॥
ॐ ऐं क्लीं नमः॥२॥
ॐ ऐं सां नम:॥३॥
ॐ ऐं त्रों नम:॥४॥
ॐ ऐं प्रूं नमः॥५॥
ॐ ऐं म्लीं नमः॥६॥
ॐ ऐं क्रौं नम:॥७॥
ॐ ऐं व्रीं नम:॥८॥
ॐ ऐं स्लीं नम:॥९॥
ॐ ऐं ह्रीं नमः॥१०॥
ॐ ऐं ह्रौं नम:॥११॥
ॐ ऐं श्रां नमः॥१२॥
ॐ ऐं ग्रों नमः॥१३॥
ॐ ऐं क्रूं नम:॥१४॥
ॐ ऐं क्रीं नमः॥१५॥
ॐ ऐं यां नम:॥१६॥
ॐ ऐं द्लूं नमः॥१७॥
ॐ ऐं द्रूं नम:॥१८॥
ॐ ऐं क्षं नमः॥१९।।
ॐ ऐं ओं नमः॥२०॥
ॐ ऐं क्रौं नमः॥२१॥
ॐ ऐं क्ष्म्क्ल्रीं नम:॥२२॥
ॐ ऐं वां नम:॥२३॥
ॐ ऐं श्रूं नमः॥२४॥
ॐ ऐं ब्लूं नमः॥२५॥
ॐ ऐं ल्रीं नमः॥२६॥
ॐ ऐं प्रें नम:॥२७॥
ॐ ऐं हूं नम:॥२८॥
ॐ ऐं ह्रौं नमः॥२९॥
ॐ ऐं दें नम:॥३०॥
ॐ ऐं नूं नमः॥३१॥
ॐ ऐं आं नमः॥३२॥
ॐ ऐं फ्रां नम:॥३३॥
ॐ ऐं प्रीं नम:॥३४॥
ॐ ऐं दूं नम:॥३५॥
ॐ ऐं फ्रीं नमः॥३६॥
ॐ ऐं ह्रीं नम:॥३७॥
ॐ ऐं गूं नम:॥३८॥
ॐ ऐं श्रौं नम:॥३९॥
ॐ ऐं सां नम:॥४०॥
ॐ ऐं श्रीं नम:॥४१॥
ॐ ऐं जुं नम:॥४२॥
ॐ ऐं हं नम:॥४३॥
ॐ ऐं सं नम:॥४४॥
‘ॐ ह्रीं श्रीं कुं फट् स्वाहा’ इति तृतीयोऽध्यायः॥
।।बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती ।।
।।चतुर्थोऽध्यायः॥
ध्यानम्
ॐ कालाभ्राभां कटाक्षैररिकुलभयदां मौलिबद्धेन्दुरेखां शड्‌खं चक्रं कृपाणं त्रिशिखमपि करैरुद्वहन्तीं त्रिनेत्राम्।
सिंहस्कन्धाधिरूढां त्रिभुवनमखिलं तेजसा पूरयन्तीं ध्यायेद् दुर्गां जयाख्यां त्रिदशपरिवृतां सेवितां सिद्धिकामैः।
ॐ ऐं श्रौं नमः॥१॥
ॐ ऐं सौं नमः॥२॥
ॐ ऐं दों नम:॥३॥
ॐ ऐं प्रें नमः॥४॥
ॐ ऐं यां नम:॥५॥
ॐ ऐं रूं नमः॥६॥
ॐ ऐं भं नम:॥७॥
ॐ ऐं सूं नमः॥८॥
ॐ ऐं श्रां नमः॥९॥
ॐ ऐं औं नमः॥१०॥
ॐ ऐं लूं नमः॥११॥
ॐ ऐं डूं नमः॥१२॥
ॐ ऐं जूं नमः॥१३॥
ॐ ऐं धूं नम:..१४॥
ॐ ऐं त्रें नमः॥१५॥
ॐ ऐं ह्रीं नमः॥१६॥
ॐ ऐं श्रीं नमः॥१७॥
ॐ ऐं ईं नमः॥१८॥
ॐ ऐं ह्रां नमः॥१९॥
ॐ ऐं ह्लरूं नमः॥२०॥
ॐ ऐं क्लूं नम:॥२१॥
ॐ ऐं क्रां नमः॥२२॥
ॐ ऐं ल्लूं नम:..२३॥
ॐ ऐं फ्रें नम:॥२४॥
ॐ ऐं क्रीं नम:॥२५॥
ॐ ऐं म्लूं नम:॥२६॥
ॐ ऐं घ्रें नम:॥२७॥
ॐ ऐं श्रौं नम:॥२८॥
ॐ ऐं ह्रौं नम:॥२९॥
ॐ ऐं व्रीं नम:॥३०॥
ॐ ऐं ह्रीं नम:॥३१॥
ॐ ऐं त्रौं नम:॥३२॥
ॐ ऐं हसौं नम:॥३३॥
ॐ ऐं गीं नम:॥३४॥
ॐ ऐं यूं नमः ॥३५॥
ॐ ऐं ह्रीं नमः ॥३६॥
ॐ ऐं ह्लूं नमः॥३७॥
ॐ ऐं श्रौं नम:॥३८॥
ॐ ऐं ओं नम:॥३९॥
ॐ ऐं अं नम:॥४०॥
ॐ ऐं म्हौं नम:॥४१॥
ॐ ऐं प्रीं नम:॥४२॥
ॐ अं ह्रीं श्रीं हंसः फट्स्वाहा’ 
इतिचतुर्थोऽध्यायः।

।।बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती।।
॥उत्तरचरित्र॥
॥पञ्चमोऽध्यायः॥
विनियोगः-ॐ अस्य श्रीउत्तरचरित्रस्य रूद्र ऋषिः, महासरस्वती देवता, अनुष्टुप् छन्दः, भीमा शक्तिः,
भ्रामरी बीजम्, सूर्यस्तत्त्वम्, सामवेदः स्वरूपम्, महासरस्वतीप्रीत्यर्थे उत्तरचरित्रपाठे विनियोगः।
ध्यानम्
ॐ घण्टाशूलहलानि शङ्‌खमुसले चक्रं धनुः सायकं हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम्।
गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महा-पूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम्॥
ॐ ऐं श्रौं नमः।।१॥
ॐ ऐं प्रीं नमः।।२॥
ॐ ऐं आं नम:।‌।३।।
ॐ ऐं ह्रीं नम:।।४।।
ॐ ऐं ल्रीं नम:।।५।।
ॐ ऐं त्रों नम:।।६।।
ॐ ऐं क्रीं नम:।।७।‌
ॐ ऐं ह्सौं नमः।।८।।
ॐ ऐं ह्रीं नमः।।९।।
ॐ ऐं श्रीं नमः।।१०।।
ॐ ऐं हूं नमः।‌११।
ॐ ऐं क्लीं नमः।।१२।।
ॐ ऐं रौं’ नमः।।१३।।
ॐ ऐं स्त्रीं नमः।।१४।।
ॐ ऐं म्लीं नमः।।१५।।
ॐ ऐं प्लूं नमः।।१६।।
ॐ ऐं स्हां नमः।‌१७।।
ॐ ऐं स्त्रीं नमः।।१८।।
ॐ ऐं. ग्लूं नमः।।१९।।
ॐ ऐं व्रीं नम:।‌।२०।।
ॐ ऐं सौं नम:।‌२१।।
ॐ ऐं लूं नमः।।२२।।
ॐ ऐं ल्लूं नमः।।२३।।
ऊं ऐं द्रां नमः।।२४।।
ॐ ऐं क्सां नम:।।२५।।
ॐ ऐं क्ष्म्रीं नम:।।२६।।
ॐ ऐं ग्लौं नमः।।२७।।
ॐ ऐं स्कूं नमः।।२८।।
ॐ ऐं त्रूं नम:।।२९।।
ॐ ऐं स्क्लूं नमः।।३०।।
ॐ ऐं क्रौं नम:।।३१।।
ॐ ऐं छ्रीं नम:।‌३२॥
ॐ ऐं म्लूं नम:।।३३।।
ॐ ऐं क्लूं नमः।।३४।।
ॐ ऐं शां नम:।।३५।।
ॐ ऐं ल्हीं नम:।।३६‌।।
ॐ ऐं स्त्रूं नम:।।३७।।
ॐ ऐं ल्लीं नमः।।३८॥
ॐ ऐं लीं नम:।।३९।।
ॐ ऐं सं नम:।।४०।।
ॐ ऐं लूं नमः ।‌४१।
ॐ ऐं ह्सूं नमः।।४२।।
ॐ ऐं श्रूं नम:।।४३।।
ॐ ऐं जूं नम:।।४४।।
ॐ ऐं ह्स्ल्रीं नम:।।४५।।
ॐ ऐं स्कीं नम:।।४६।।
ॐ ऐं क्लां नम:।।४७।।
ॐ ऐं श्रूं नम:।।४८।।
ॐ ऐं हं नम:।।४९।।
ॐ ऐं ह्लीं नम:।‌।५०।।
ॐ ऐं क्स्रूं नमः।।५१।।
ॐ ऐं द्रौं नम:।‌।५२।।
ॐ ऐं क्लूं नम:।।५३।।
ॐ ऐं गां नम:।।५४।।
ॐ ऐ सं नम:।।५५।।
ॐ ऐं ल्स्रां नम:।‌।५६।।
ॐ ऐं फ्रीं नम:।।५७।।
ॐ ऐं स्लां नम:‌‌।।५८।।
ॐ ऐं ल्लूं नमः।।५९।।
ॐ ऐं फ्रें नमः।।६०।।
ॐ ऐं ओं नमः।।६१।
ॐ ऐं स्म्लीं नमः।।६२।।
ॐ ऐं ह्रां नम:।।६३।।
ॐ ऐं ओं नम:।।६४।।
ॐ ऐं ह्लूं नम:।।६५।।
ॐ ऐं हूं नम:।।६६।।
ॐ ऐं नं नम:।।६७।।
ॐ ऐं स्रां नम:।।६८।।
ॐ ऐं वं नमः।।६९।।
ॐ ऐं मं नम:।।७०।।
ॐ ऐं म्क्लीं नम:।।७१।।
ॐ ऐं शां नम:।।७२।।
ॐ ऐं लं नम:।।७३।।
ॐ ऐं भैं नम:।।७४।।
ॐ ऐं ल्लूं नम:।।७५।।
ॐ ऐं हौं नम:।।७६।।
ॐ ऐं ईं नम:।।७७।।
ॐ ऐं चें नम:।।७८।।
ॐ ऐं ल्क्रीं नम:।।७९।।
ॐ ऐं ह्ल्रीं नम:।।८०।।
ॐ ऐं क्ष्म्ल्रीं नम:।।८१।।
ॐ ऐं यूं नमः।।८२।।
ॐ ऐं श्रौं नम:।।८३।।
ॐ ऐं ह्रौं नमः।।८४।
ॐ ऐं भ्रूं नमः‌‌।।८५।।
ॐ ऐं क्स्त्रीं नमः।।८६।।
ॐ ऐं आं नमः।।८७।।
ॐ ऐं क्रूं नम:।।८८।।
ॐ ऐं त्रूं नमः।।८९।।
ॐ ऐं डूं नम:।।९०।।
ॐ ऐं जां नम:।।९१।।
ॐ ऐं ह्ल्रूं नम:।।९२।।
ॐ ऐं फ्रौं नमः।।९३।।
ॐ ऐं क्रौं नम:।।९४।।
ॐ ऐं किं नम:।।९५।।
ॐ ऐं ग्लूं नमः।।९६।।
ॐ ऐं छ्रक्लीं नम:।।९७।।
ॐ ऐं रं नमः।।९८॥
ॐ ऐं क्सैं नमः।।९९।।
ॐ ऐं स्हुं नमः।।१००।।
ॐ ऐं श्रौं नमः।।१०१।।
ॐ ऐं ह्श्रीं नमः।।१०२।।
ॐ ऐं ओं नमः।।१०३।।
ॐ ऐं लूं नमः।।१०४।।
ॐ ऐं ल्हूं नमः।।१०५।।
ॐ ऐं ल्लूं नमः।।१०६।।
ॐ ऐं स्क्रीं नम:।।१०७।।
ॐ ऐं स्स्रौं नमः।।१०८।।
ॐ ऐं स्श्रूं नमः।।१०९।।
ॐ ऐं क्ष्म्क्लीं नम:।।११०।।
ॐ ऐं व्रीं नम:।।१११।।
ॐ ऐं सीं नमः।।११२।।
ॐ ऐं भ्रूं नमः।।११३।।
ॐ ऐं लां नमः।।११४।।
ॐ ऐं श्रौं नमः।।११५।।
ॐ ऐं स्हैं नमः।‌११६।।
ॐ ऐं ह्रीं नमः।।११७।।
ॐ ऐं श्रीं नमः११८।।
ॐ ऐं फ्रें नमः११९।।
ॐ ऐं रूं नमः१२०॥
ॐ ऐं च्छूं नमः।।१२१।।
ॐ ऐं ल्हूं नमः।।१२२।।
ॐ ऐं कं नमः।‌१२३।।
ॐ ऐं द्रें नमः।।१२४।।
ॐ ऐं श्रीं नमः।।१२५।।
ॐ ऐं सां नमः।।१२६।।
ॐ ऐं ह्रीं नमः।।१२७।।
ॐ ऐं ऐं नमः।।१२८।।
ॐ ऐं स्क्लीं नमः१२९॥
‘ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे स्वाहा'इति पंचमोऽध्यायः॥ 
।।बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती।।
।।षष्ठोऽध्यायः॥
ध्यानम्
ॐ नागाधीश्वसरविष्टरां फणिफणोत्तंसोरुरत्नावली- भास्वद्देहलतां दिवाकरनिभां नेत्रत्रयोद्भासिताम्।
मालाकुम्भकपालनीरजकरां चन्द्रार्धचूडां परां सर्वज्ञेश्वारभैरवाङ्‌कनिलयां पद्मावतीं चिन्तये॥
ॐ ऐं श्रौं नमः।।१।।
ॐ ऐं ओं नमः।।‌२।।
ॐ ऐं त्रूं नम:।।३।।
ॐ ऐं ह्रौं नम:।।४।।
ॐ ऐं क्रौं नम:।।५।।
ॐ ऐं श्रौं नमः।।६।।
ॐ ऐं त्रीं नम:।।७।।
ॐ ऐं क्लीं नम:।।८।।
ॐ ऐं प्रीं नम:।।९।।
ॐ ऐं ह्रीं नम:।।१०।।
ॐ ऐं ह्रौं नम:।।११।।
ॐ ऐं श्रौं नमः।।१२।।
ॐ ऐं ऐं नम:।‌१३।।
ॐ ऐं ओं नमः।।१४।।
ॐ ऐं श्रीं नमः।।१५।।
ॐ ऐं क्रां नमः।।१६।।
ॐ ऐं हूं नम:।।१७।।
ॐ ऐं छ्रां नमः।।१८।।
ॐ ऐं क्ष्म्क्ल्रीं नमः।।१९।।
ॐ ऐं ल्लूं नमः।।२०।।
ॐ ऐं सौं नमः।।२१।।
ॐ ऐं ह्लौं नमः।।२२।।
ॐ ऐं क्रूं नमः।।२३।।
ॐ ऐं सौं नम।।:२४।।
‘ॐ श्रीं यं ह्रीं क्लीं ह्रीं फट् स्वाहा इति षष्ठोऽध्यायः॥ 
।।बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती।। 
।।।सप्तमोऽध्यायः॥
ध्यानम्
ॐ ध्यायेयं रत्नपीठे शुककलपठितं शृण्वतीं श्यामलाङ्‌गीं
न्यस्तैकाङ्‌घ्रिं सरोजे शशिशकलधरां वल्लकीं वादयन्तीम्।
कह्लाराबद्धमालां नियमितविलसच्चोलिकां रक्तवस्त्रां
मातङ्‌गीं शङ्खमपात्रां मधुरमधुमदां चित्रकोद्भासिभालाम्॥
ॐ ऐं श्रौं नमः।।१।
ॐ ऐं कूं नमः।।२।।
ॐ ऐं ह्लीं नम:।।३।
ॐ ऐं ह्रं नम:।।४।।
ॐ ऐं मूं नम:।।५।।
ॐ ऐं त्रौं नमः।।६।।
ॐ ऐं ह्रौं नम:।।७।।
ॐ ऐं ओं नमः।।८।।
ॐ ऐं ह्सूं नमः।।९।।
ॐ ऐं क्लूं नमः।।१०।।
ॐ ऐं कें नमः।।११।।
ॐ ऐं नें नमः।।१२।।
ॐ ऐं लूं नमः।।१३।।
ॐ ऐं ह्स्लीं नमः।।१४।।
ॐ ऐं प्लूं नमः।।१५।।
ॐ ऐं शां नमः।।१६।।
ॐ ऐं स्लूं नमः।।१७।।
ॐ ऐं प्लीं नमः।।१८।।
ॐ ऐं प्रैं नमः।।१९।।
ॐ ऐं अं नम:।‌२०।।
ॐ ऐं औं नम:।।२१।।
ॐ ऐं म्ल्रीं नम:।।२२।।
ॐ ऐं श्रां नम:‌।।२३।।
ॐ ऐं सौं नम:।।२४।।
ॐ ऐं श्रौं नम:।।२५।।
ॐ ऐं प्रीं नम:।।२६।।
ॐ ऐं ह्स्व्रीं नम:।।२७।।
‘ॐरं रं रं कं कं कं जं जं जं चामुण्डायै फट् स्वाहा’
इति सप्तमोऽध्यायः॥
।।बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती।। 
।।अष्टमोऽध्यायः॥
ध्यानम्
ॐ अरुणां करुणातरङ्‌गिताक्षीं धृतपाशाङ्‌कुशबाणचापहस्ताम्।
अणिमादिभिरावृतां मयूखै-रहमित्येव विभावये भवानीम्॥
ॐ ऐं श्रौं नमः।।१।।
ॐ ऐं म्ह्ल्रीं नम:।।२।।
ॐ ऐं प्रूं नम:।।३।।
ॐ ऐं ऐं नम:।।४।।
ॐ ऐं क्रों नम:।।५।।
ॐ ऐं ईं नमः।।६।।
ॐ ऐं ऐं नम:।।७।।
ॐ ऐं ल्रीं नमः।।८।।
ॐ ऐं फ्रौं नमः।।९।।
ॐ ऐं म्लूं नमः।।१०॥
ॐ ऐं नों नमः।।११।।
ॐ ऐं हूं नमः।।१२।।
ॐ ऐं फ्रीं नमः।।१३।।
ॐ ऐं ग्लौं नमः।।१४।।
ॐ ऐं स्मौं नमः।।१५।।
ॐ ऐं सौं नमः।।१६।।
ॐ ऐं श्रीं नमः।।१७।।
ॐ ऐं स्हौं नमः।।१८।।
ॐ ऐं ख्सें नमः।।१९।।
ॐ ऐं क्ष्म्लीं नम:।।२०।।
ॐ ऐं ह्रां नम:।।२१।।
ॐ ऐं वीं नम:।।२२।।
ॐ ऐं लूं नम:।।२३।।
ॐ ऐं ल्सीं नमः।।२४।।
ॐ ऐं ब्लों नमः।।२५।।
ॐ ऐं त्स्रों नमः।।२६।।
ॐ ऐं ब्रूं नम:।।२७।।
ॐ ऐं श्ल्कीं नमः।।२८॥
ॐ ऐं श्रूं नम।।:२९।।
ॐ ऐं ह्रीं नमः।।३०।।
ॐ ऐं शीं नम:।।१।।
ॐ ऐं क्लीं नम:।।३२।।
ॐ ऐं क्लौं नमः।।३३।।
ॐ ऐं प्रूं नम:।।३४।।
ॐ ऐं ह्रूं नमः।।३५।।
ॐ ऐं क्लूं नम:।।३६।।
ॐ ऐं तौं नम:।।३७।।
ॐ ऐं म्लूं नमः‌‌।।३८।।
ॐ ऐं हं नम:।।३९।।
ॐ ऐं स्लूं नमः।।४०॥
ॐ ऐं औं नम:।।४१।।
ॐ ऐं ल्हीं नम:।।४२॥
ॐ ऐं.श्ल्रीं नम:।।४३॥
ॐ ऐं यां नम:।।४४।।
ॐ ऐं थ्लीं नम:।।४५।‌
ॐ ऐं ल्हीं नम:।।४६।।
ॐ ऐं ग्लौं नम:।।४७।।
ॐ ऐं ह्रौं नम:।।४८।।
ॐ ऐं प्रां नम:।।४९।।
ॐ ऐं क्रीं नम:।।५०।।
ॐ ऐं क्लीं नम।।:५१।।
ॐ ऐं नस्लूं नम:।।५२।।
ॐ ऐं हीं नम:।।५३।।
ॐ ऐं ह्लौं नमः।।५४।।
ॐ ऐं ह्रैं नम:।।५५।।
ॐ ऐं भ्रं नम:।।५६।।
ॐ ऐं सौं नम:।।५७।।
ॐ ऐं श्रीं नम:।।५८।।
ॐ ऐं सूं नमः।।५९।।
ॐ ऐं द्रौं नम:।।६०।।
ॐ ऐं स्स्रां नमः।।६१।।
ॐ ऐं ह्स्लीं नम:।।६२।
ॐ ऐं स्ल्ल्रीं नमः।।६३।।
ॐ शां सं श्रीं श्रं अं अः क्लीं ह्लीं फट् स्वाहा’ – इत्यष्टमोऽध्यायः।
॥ बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती।।
।।नवमोऽध्याय:।।
ध्यानम्
ॐ बन्धूककाञ्चननिभं रुचिराक्षमालां
पाशाङ्कुशौ च वरदां निजबाहुदण्दैः।
बिभ्राणमिन्दुशकलाभरणं त्रिनेत्र-
मर्धाम्बिकेशमनिशं वपुराश्रयामि।।
ॐ ऐं रौं नमः।।१।।
ॐ ऐं क्लीं नमः।।२।।
ॐ ऐं म्लौं नम:।।३।।
ॐ ऐं श्रौं नम:।।४।।
ॐ ऐं ग्लीं नम:।।५।।
ॐ ऐं ह्रौं नम:।।६।।
ॐ ऐं ह्सौं नम:।।७।।
ॐ ऐं ईं नम:।।८।।
ॐ ऐं ब्रूं नम:।।९।।
ॐ ऐं श्रां नमः।।१०।।
ॐ ऐं लूं नम:।।११।।
ॐ ऐं आं नमः।।१२।।
ॐ ऐं श्रीं नमः।।१३।।
ॐ ऐं क्रौं नमः।।१४।।
ॐ ऐं प्रूं नमः।।१५।।
ॐ ऐं क्लीं नम:।।१६।।
ॐ ऐं भ्रं नमः।।१७।।
ॐ ऐं ह्रौं नम:।।१८।।
ॐ ऐं क्रीं नम:।।१९।।
ॐ ऐं म्लीं नम:।।२०॥
ॐ ऐं ग्लौं नमः।।२१।
ॐ ऐं ह्सूं नम:।।२२।।
ॐ ऐं ल्पीं नम:।।२३।।
ॐ ऐं ह्रौं नम:।।२४।।
ॐ ऐं ह्स्रां नम:।।२५।।
ॐ ऐं स्हौं नमः।।२६।।
ॐ ऐं ल्लूं नम:।।२७।।
ॐ ऐं क्स्लीं नम:।।२८।।
ॐ ऐं श्रीं नम:।।२९।।
ॐ ऐं स्तूं नमः।।३०।।
ॐ ऐं च्रें नम:।।३१।।
ॐ ऐं वीं नम:।।३२।।
ॐ ऐं क्ष्लूं नमः।।३३।।
ॐ ऐं श्लूं नम:।।३४।।
ॐ ऐं क्रूं नम:।।३५।।
ॐ ऐं क्रां नमः।।३६।।
ॐ ऐं ह्रौं नमः।।३७।।
ॐ ऐं क्रां नम:।।३८।।
ॐ ऐं स्क्ष्लीं नम:।।३९।।
ॐ ऐं सूं नमः।।४०।।
ॐ ऐं फ्रूं नम:।।४१।।
‘ॐ ऐं ह्रीं श्रीं सौं फट् स्वाहा’ इति नवमोऽध्यायः।
॥ बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती।।
ध्यानम्॥ 
।।बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती।।
।।दशमोऽध्यायः॥
ध्यानम्ॐ उत्तप्तहेमरुचिरां रविचन्द्रवह्नि-नेत्रां धनुश्शरयुताङ्‌कुशपाशशूलम्।
रम्यैर्भुजैश्चर दधतीं शिवशक्तिरूपां कामेश्वभरीं हृदि भजामि धृतेन्दुलेखाम्॥ॐ ऐं श्रौं नमः।।१।।
ॐ ऐं ह्रीं नम:।।२।।
ॐ ऐं ब्लूं नमः।।३।।
ॐ ऐं ह्रीं नम:।।४।।
ॐ ऐं म्लूं नमः।।५।।
ॐ ऐं श्रौं नम:।।६।।
ॐ ऐं ह्रीं नम:।।७।।
ॐ ऐं ग्लीं नम:।।८।।
ॐ ऐं श्रौं नमः।।९।।
ॐ ऐं ध्रूं नमः।।१०।।
ॐ ऐं हुं नमः।।११।
ॐ ऐं द्रौं नमः।।१२।
ॐ ऐं श्रीं नमः।।१३।
ॐ ऐं श्रूं नमः।।१४।।
ॐ ऐ ब्रूं नमः।।१५।।
ॐ ए फ्रें नमः।।१६।।
ऐं ह्रां नमः।।१७।।
ॐ ऐं जुं नमः।।१८।।
ॐ ऐं स्रौं नमः।।१९।।
ॐ ऐं स्लूं नमः।‌२०।।
ॐ ऐं प्रें नम:।।२१।।
ॐ ऐं ह्स्वां ननम।।२२॥
ॐ ऐं प्रीं नम:।।२३।
ॐ ऐं फ्रां नमः।।२४।।
ॐ ऐं क्रीं नमः।।२५॥
ॐ ऐं श्रीं नम:।।२६।।
ॐ ऐं क्रां नमः।।२७।।
ॐ ऐं सः नम:।।‌२८।‌।
ॐ ऐं क्लीं नम:।।२९।।
ॐ ऐं व्रें नमः।‌३०।।
ॐ ऐं ईं नमः।।३१।।
ॐ ऐं ज्स्ह्ल्रां नमः।।३२॥
ॐ ऐं ञ्स्ह्लीं नमः३३।
ॐ ऐं ह्रीं नमः क्लीं ह्रीं फट् स्वाहा’ इति दशमोऽध्याय: ।
॥ बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती।।
।। एकादशोऽध्यायः॥
ध्यानम्ॐ बालरविद्युतिमिन्दुकिरीटां तुङ्‌गकुचां नयनत्रययुक्ताम्।
स्मेरमुखीं वरदाङ्‌कुशपाशाभीतिकरां प्रभजे भुवनेशीम्॥
ॐ ऐं श्रौं नम:‌।‌१।।
ॐ ऐं क्रूं नमः।‌।२।।
ॐ ऐं श्रीं नम:।।३।।
ॐ ऐं ल्लीं नम:।।४।।
ॐ ऐं प्रें नम:।।५।।
ॐ ऐं सौं नमः।।६।।
ॐ ऐं स्हौं नम:।।७।।
ॐ ऐं श्रूं नमः।।८।।
ॐ ऐं क्लीं नम:।।९।।
ॐ ऐं स्क्लीं नमः।।१०।।
ॐ ऐं प्रीं नम:।।११।।
ॐ ऐं ग्लौं नमः१२।
ॐ ऐ ह्ह्रीं नमः।।१३।।
ॐ ऐं स्तौं नमः।।१४।।
ॐ ऐं क्लीं नम:।।१५।।
ॐ ऐं म्लीं नमः।।१६।।
ॐ ऐं स्तूं नमः।।१७।।
ॐ ऐं ज्स्ह्रीं नमः।।१८।।
ॐ ऐं फ्रूं नमः।।१९।।
ॐ ऐं क्रूं नम:।।२०।।
ॐ ऐं ह्रीं नमः।।२१।।
ॐ ऐं ल्लूं नम:।।२२।।
ॐ ऐं क्ष्म्रीं नम।।:२३।।
ॐ ऐं श्रूं नम:‌।२४।।
ॐ ऐं इं नमः‌।२५।।
ॐ ऐं जुं नमः।।२६।।
ॐ ऐं त्रैं नम:।।२७।।
ॐ ऐं द्रूं नमः।।२८।।
ॐ ऐं ह्रौं नम:।।२९।।
ॐ ऐं क्लीं नम:।।३०॥
ॐ ऐं सूं नम:।।३१।।
ॐ ऐं हौं नमः३२।
ॐ ऐं श्व्रं नमः।।३३।
ॐ ऐं व्रूं नम:।।३४।
ॐ ऐं फां नम:।।३५।।
ॐ ऐं ह्रीं नम:।।३६।।
ॐ ऐं लं नम:३७।
ॐ ऐं ह्सां नमः।।३८।।
ॐ ऐं सें नम:‌‌।।३९।।
ॐ ऐं ह्रीं नम:।।४०।।
ॐ ऐं ह्रौं नम:‌‌।।४१।।
ॐ ऐं विं नम:४२।
ॐ ऐं प्लीं नम।।:४३।।
ॐ ऐं क्ष्म्क्लीं नम:।।४४।।
ॐ ऐं त्स्रां नम:।।४५।।
ॐ ऐं प्रं नम:।।४६।।
ॐ ऐं म्लीं नम:‌।‌४७।।
ॐ ऐं स्रूं नम:।‌४८।‌।
ॐ ऐं क्ष्मां नम:।।४९।।
ॐ ऐं स्तूं नम: ।।५०।।
ॐ ऐं स्ह्रीं नम:।।५१।।
ॐ ऐं थ्प्रीं नम:।।५२।।
ॐ ऐं क्रौं नम:।।५३।।
ॐ ऐं श्रां नम:।।५४।।
ॐ ऐं म्लीं नम:।।५५।।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं सौं नमः फट् स्वाहा’
इति एकादशोऽध्यायः॥ 
।।बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती।।
।। द्वादशोऽध्यायः॥
ध्यानम्
ॐ विद्युद्दामसमप्रभां मृगपतिस्कन्धस्थितां भीषणां कन्याभिः करवालखेटविलसद्धस्ताभिरासेविताम्।
हस्तैश्च क्रगदासिखेटविशिखांश्चातपं गुणं तर्जनीं बिभ्राणामनलात्मिकां शशिधरां दुर्गां त्रिनेत्रां भजे॥ॐ ऐं ह्रीं नमः।।१।।
ॐ ऐ ओं नम:।।२।।
ॐ ऐं श्रीं नम:।।३।।
ॐ ऐं ईं नम:।।४।।
ॐ ऐं क्लीं नम:।।५।।
ॐ ऐं क्रूं नमः।।६।।
ॐ ऐं श्रूं नम:।।७।।
ॐ ऐं प्रां नमः।।८।।
ॐ ऐं क्रूं नमः।।९।।
ॐ ऐं दिं नमः।।१०।।
ॐ ऐं फ्रें नमः।।११।।
ॐ ऐं हं नम:।।१२।।
ॐ ऐं सः नमः।।१३।।
ॐ ऐं चें नम:।।१४।।
ॐ ऐं सूं नमः।।१५।।
ॐ ऐं प्रीं नमः।।१६।।
ॐ ऐं ब्लूं नमः।।१७।।
ॐ ऐं आं नमः।।१८।।
ॐ ऐं औं नमः।।१९।।
ॐ ऐं ह्रीं नमः।।२०‌।।
ॐ ऐं क्रीं नम:।।२१।।
ॐ ऐं द्रां नमः।।२२॥
ॐ ऐं श्रीं नम:।‌।२३।।
ॐ ऐं स्लीं नम:।।२४।।
ॐ ऐं क्लीं नम:।।२५।।
ॐ ऐं स्लूं नम:।।२६।।
ॐ ऐं ह्रीं नम:।।२७।।
ॐ ऐं ब्लीं नम:।।२८।।
ॐ ऐं त्रों नमः।।२९।।
ॐ ऐं ओं नमः।।३०।।
ॐ ऐं श्रौं नम।।:३१।
ॐ ऐं ऐं नम:३२।
ॐ ऐं प्रें नम:।।३३।
ॐ ऐं द्रूं नम:।।३४।
ॐ ऐं क्लूं नम:।।३५।।
ॐ ऐं औं नम:।।३६।।
ॐ ऐं सूं नम:।।३७।।
ॐ ऐं चें नम:।।३८।।
ॐ ऐं हैं नम:।।३९।।
ॐ ऐं प्लीं नम:।।४०।।
ॐ ऐं क्षां नम:।।४१।।
‘ॐ यं यं यं रं रं रं ठं ठं ठं फट् स्वाहा’ इति द्वादशोऽध्यायः॥
।।बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती।।
।।त्रयोदशोऽध्यायः॥
ध्यानम्
ॐ बालार्कमण्डलाभासां चतुर्बाहुं त्रिलोचनाम्। पाशाङ्‌कुशवराभीतीर्धारयन्तीं शिवां भजे॥
ॐ ऐं श्रौं नमः।।१।।
ॐ ऐं व्रीं नमः।।२।।
ॐ ऐं ओं नमः।।३।।
ॐ ऐं औं नम:।।४।।
ॐ ऐं ह्रां नम:।।५।।
ॐ ऐं श्रीं नम:।६।।
ॐ ऐं श्रां नम:।।७।।
ॐ ऐं ओं नमः‌ ‌।।८।।
ॐ ऐं प्लीं नम:।।९।।
ॐ ऐं सौं नमः।।१०।।
ॐ ऐं ह्रीं नम:।।११।।
ॐ ऐं क्रीं नमः।।१२।।
ॐ ऐं ल्लूं नमः।।१३।।
ॐ ऐं क्लीं नमः।।१४।।
ॐ ऐं ह्रीं नमः।।१५।।
ॐ ऐं प्लीं नमः।।१६।।
ॐ ऐं श्रीं नम:।।१७।।
ॐ ऐं ल्लीं नमः।।१८।।
ॐ ऐं श्रूं नमः।।१९।।
ॐ ऐं ह्रीं नमः।।:२०।।
ॐ ऐं त्रूं नम:।।२१।।
ॐ ऐं हूं नम:।।२२।।
ॐ ऐं प्रीं नम:।।२३।।
ॐ ऐं ओं नमः।।२४।।
ॐ ऐं सूं नम:।।२५।।
ॐ ऐं श्रीं नम:।।२६।।
ॐ ऐं ह्लौं नमः।।२७।।
ॐ ऐं यौं नमः।।२८।।
ॐ ऐं यौं नम:।।२९॥
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे’ स्वाहा॥ इति त्रयोदशोऽध्यायः।।
हरि ॐ तत्सत्।
इसके बाद पुनः सप्तशती न्यास आदि करने उपरांत नवार्ण मंत्र का जप करके देवी सूक्तम् का पाठ करें।शापोद्धार मंत्र- शापोद्धार के लिए नीचे वर्णित मंत्र का ७ बार आदि व अन्त में जप करना चाहिये।
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा’ ।।१।।
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा’।।२।।
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा’।।३।।
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा’।।४।।
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा’।।५।।
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा’ ।।६।
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा ।।७।।
उत्कीलन मंत्र- शापोद्धार के बाद उत्कीलन-मंत्र का २१ बार  अन्त में जप करना चाहिये।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
नवार्णमन्त्र जपविधि:
तांत्रिक देवीसूक्त के पाठ के उपरान्त नवार्ण मंत्र का कम से कम १०८ बार जप किया जाना चाहिये । नवार्ण मंत्र के जप के पहले विनियोग, न्यास आदि सम्पन्न करें।
नवार्ण मंत्र का विनियोग-न्यासादि:
विनियोग:—
ॐ अस्य श्रीनवार्णमन्त्रस्य ब्रह्मविष्णुरुद्रा ऋषय:, गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छदांसि,
श्रीमहाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वत्यो देवता:, ऐं बीजम्, ह्रीं शक्ति:, क्लीं कीलकम्,
श्रीमहाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वतीप्रीत्यर्थे जपे विनियोग:।
तत्पश्चात् मंत्रों द्वारा इस भावना से की शरीर के समस्त अंगों में मंत्ररूप से देवताओं का वास हो रहा है , न्यास करें। ऐसा-करने से पाठ या जप करने वाला व्यक्ति मंत्रमय हो जाता है तथा मंत्र में अधिष्ठित देवता उसकी रक्षा करते हैं | इसके अतिरिक्त न्यास द्वारा उसके बाहर-भीतर की शुद्धि होती है और साधना निर्विघ्न पूर्ण होती है । ऋष्यादिन्यास ,करन्यास, हृदयादिन्यास, अक्षरन्यास, तथा दिड्.न्यास  के लिए सम्पूर्ण दुर्गासप्तशती देखें।
ऋष्यादिन्यास:—
ब्रह्मविष्णुरुद्रऋषिभ्यो नम: शिरसि । गायत्र्युष्णिण-गनुष्टुप्छन्दोभ्यो नम: मुखे ।
महाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वतीदेवताभ्यो नम: हृदि ।
ऐं बीजाय नम: गुह्ये ।
ह्रीं शक्तये नम: पादयो: ।
क्लीं कीलकाय नम: नाभौ ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै सर्वाङ्गे।
करन्यास:—
ॐ ऐं अङ्गुष्ठाभ्यां नम: ।
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नम: ।
ॐ क्लीं मध्यमाभ्यां नम: ।
ॐ चामुण्डायै अनामिकाभ्यां नम: ।
ॐ विच्चे कनिष्ठिकाभ्यां नम: ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे करतल-करपृष्ठाभ्यां नम: ।हृदयादिन्यास:—
ॐ ऐं हृदयाय नम: ।
ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा ।
ॐ क्लीं शिखायै वषट् ।
ॐ चामुण्डायै कवचाय हुम् ।
ॐ विच्चे नेत्रत्रयाय वौषट् ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे अस्त्राय फट् ।
अक्षरन्यास:—
ॐ ऐं नम: शिखायाम् ।
ॐ ह्रीं नम: दक्षिणनेत्रे ।
ॐ क्लीं नम: वामनेत्रे ।
ॐ चां नम: दक्षिणकर्णे ।
ॐ मुं नम: वामकर्णे ।
ॐ डां नम: दक्षिणनासायाम् ।
ॐ यैं नम: वामनासायाम् ।
ॐ विं नम: मुखे ।
ॐ च्चें नम: गुह्ये ।
एवं विन्यस्य ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे’ इति नवार्णमन्त्रेण अष्टवारं व्यापकं कुर्यात् ।
दिङ्न्यास:—
ॐ ऐं प्राच्यै नम: ।
ॐ ऐं आग्नेय्यै नम: ।
ॐ ह्रीं नैऋत्यै नम: ।
ॐ क्लीं प्रतीच्यै नम: ।
ॐ क्लीं वायव्यै नम: ।
ॐ चामुण्डायै उदीच्यै नम: ।
ॐ चामुण्डायै ऐशान्यै नम: ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डा
यै विच्चे ऊर्ध्वायै नम: ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे भूम्यै नम: ।
अंगन्यासः-
ॐ ऐं स्लूं अंगुष्ठाभ्यां नमः।
ॐ ऐं फ्रें तर्जनीभ्यां नमः।
ॐ ऐं क्रीं मध्यमाभ्यां नमः।
ॐ ऐं म्लूं अनामिकाभ्यां नमः।
ॐ ऐं घ्रें कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।
ॐ ऐं श्रूं करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
ऋष्यादिन्यासः-
ॐ ऐं स्लूं हृदयाय नमः।
ॐ ऐं फ्रें शिरसे स्वाहा ।
ॐ ऐं क्रीं शिखायै वषट् ।
ॐ ऐं म्लूं कवचाय हुं।
ॐ ऐं घ्रें नेत्रत्रयाय वौषट् ।
ॐ ऐं श्रूं अस्त्राय फट् ।।
।।ध्यानमंत्रम्।।
या चण्डी मधुकैटभादि दैत्यदलनी या महिषोन्मूलिनी,
या धूम्रेक्षणचण्डमुण्ड मथनी या रक्तबीजाशिनी।
ध्यानम्
खड्‌गं चक्रगदेषुचापपरिघाञ्छूलं भुशुण्डीं शिरः शङ्खं संदधतीं करैस्त्रिनयनां सर्वाङ्गभूषावृताम्।
नीलाश्मद्युतिमास्यपाददशकां सेवे महाकालिकां यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधुं कैटभम्॥१॥
अक्षस्रक्परशुं गदेषुकुलिशं पद्मं धनुष्कुण्डिकां दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम्।
शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तैः प्रसन्नाननां सेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम्॥२॥
घण्टाशूलहलानि शङ्‌खमुसले चक्रं धनुः सायकं हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम्।
गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महा- पूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम्॥३॥
माला प्रार्थना
फिर “ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः” इस मन्त्र से माला की पूजा करके प्रार्थना करें-
ॐ मां माले महामाये सर्वशक्तिस्वरूपिणि। चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्तस्तस्मान्मे सिद्धिदा भव॥
ॐ अविघ्नं कुरु माले त्वं गृह्णामि दक्षिणे करे। जपकाले च सिद्ध्यर्थं प्रसीद मम सिद्धये॥
ॐ अक्षमालाधिपतये सुसिद्धिं देहि देहि सर्वमन्त्रार्थसाधिनि
साधय साधय सर्वसिद्धिं परिकल्पय परिकल्पय मे स्वाहा।
इसके बाद “ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे” इस मन्त्र का १०८ बार जप करें और-
गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम्।
सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादान्महेश्वरि॥
इस श्लो्क को पढ़कर देवी के वामहस्त में जप निवेदन करें ।।। 
।। बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती न्यासः।।
विनियोगः-प्रथममध्यमोत्तरचरित्राणां ब्रह्मविष्णुरुद्रा ऋषयः, श्रीमहाकाली महालक्ष्मी महासरस्वत्यो देवताः,गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छंन्दांसि, नन्दाशाकम्भरीभीमाः शक्तयः, रक्तदन्तिकादुर्गाभ्रामर्यो बीजानि,अग्नि वायु सूर्यास्तत्त्वानि, ऋग्यजुः सामवेदा ध्यानानि, सकलकामनासिद्धयेश्रीमहाकाली महालक्ष्मी महासरस्वती देवताप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः।
इसे पढ़कर जल गिरायें ।
अंगन्यासः-
ॐ ऐं स्लूं अंगुष्ठाभ्यां नमः।
ॐ ऐं फ्रें तर्जनीभ्यां नमः।
ॐ ऐं क्रीं मध्यमाभ्यां नमः।
ॐ ऐं म्लूं अनामिकाभ्यां नमः।
ॐ ऐं घ्रें कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।
ॐ ऐं श्रूं करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
हृदयादिन्यासः-
ॐ ऐं स्लूं हृदयाय नमः।
ॐ ऐं फ्रें शिरसे स्वाहा ।
ॐ ऐं क्रीं शिखायै वषट् ।
ॐ ऐं म्लूं कवचाय हुं।
ॐ ऐं घ्रें नेत्रत्रयाय वौषट् ।
ॐ ऐं श्रूं अस्त्राय फट् ।।
।।ध्यानमंत्र।।
या चण्डी मधुकैटभादि दैत्यदलनी या महिषोन्मूलिनी,
या धूम्रेक्षणचण्डमुण्ड मथनी या रक्तबीजाशिनी।
शक्तिः शुम्भनिशुम्भदैत्यदलनी या सिद्धि लक्ष्मीः परा,
सा दुर्गा नवकोटि मूर्तिसहिता मां पातु विश्वेश्वरी।।॥ 
अथ देवी सूक्तम् ॥
ॐ ऐं ह्रीं नमः॥१॥
ॐ ऐं श्रीं नमः॥२॥
ॐ ऐं हूं नमः॥३॥
ॐ ऐं क्लीं नमः॥४॥
ॐ ऐं रौं’ नमः॥५॥
ॐ ऐं स्त्रीं नमः॥६॥
ॐ ऐं म्लीं नमः॥७॥
ॐ ऐं प्लूं नमः॥८॥
ॐ ऐं स्हां नमः॥९॥
ॐ ऐं स्त्रीं नमः॥१०॥
ॐ ऐं. ग्लूं नमः॥११॥
ॐ ऐं व्रीं नम:॥१२॥
ॐ ऐं सौं नम:॥१३॥
ॐ ऐं लूं नमः॥१४॥
ॐ ऐं ल्लूं नमः॥१५॥
ॐ ऐं द्रां नमः॥१६॥
ॐ ऐं क्सां नम:॥१७॥
ॐ ऐं क्ष्म्रीं नम:॥१८॥
ॐ ऐं ग्लौं नमः॥१९॥
ॐ ऐं स्कूं नमः॥२०॥
ॐ ऐं त्रूं नम:॥२१॥
ॐ ऐं स्क्लूं नमः॥२२॥
ॐ ऐं क्रौं नम:॥२३॥
ॐ ऐं छ्रीं नम:॥२४॥
ॐ ऐं म्लूं नम:॥२५॥
ॐ ऐं क्लूं नमः॥२६॥
ॐ ऐं शां नम:॥२७॥
ॐ ऐं ल्हीं नम:॥२८॥
ॐ ऐं स्त्रूं नम:॥२९॥
ॐ ऐं ल्लीं नमः॥३०॥
ॐ ऐं लीं नम:॥३१॥
ॐ ऐं सं नम:॥३२॥
ॐ ऐं लूं नमः ॥३३॥
ॐ ऐं ह्सूं नमः॥३४॥
ॐ ऐं श्रूं नम:॥३५॥
ॐ ऐं जूं नम:॥३६॥
ॐ ऐं ह्स्ल्रीं नम:॥३७॥
ॐ ऐं स्कीं नम:॥३८॥
ॐ ऐं क्लां नम:॥३९॥
ॐ ऐं श्रूं नम:॥४०॥
ॐ ऐं हं नम:॥४१॥
ॐ ऐं ह्लीं नम:॥४२॥
ॐ ऐं क्स्रूं नमः॥४३॥
ॐ ऐं द्रौं नम:॥४४॥
ॐ ऐं क्लूं नम:॥४५॥
ॐ ऐं गां नम:॥४६॥
ॐ ऐ सं नम:॥४७॥
ॐ ऐं ल्स्रां नम:॥४८॥
ॐ ऐं फ्रीं नम:॥४९॥
ॐ ऐं स्लां नम:॥५०॥
ॐ ऐं ल्लूं नमः॥५१॥
ॐ ऐं फ्रें नमः॥५२॥
ॐ ऐं ओं नमः॥५३॥
ॐ ऐं स्म्लीं नमः॥५४॥
ॐ ऐं ह्रां नम:॥५५॥
ॐ ऐं ओं नम:॥५६॥
ॐ ऐं ह्लूं नम:॥५७॥
ॐ ऐं हूं नम:॥५८॥
ॐ ऐं नं नम:॥५९॥
ॐ ऐं स्रां नम:॥६०॥
ॐ ऐं वं नमः॥६१॥
ॐ ऐं मं नम:॥६२॥
ॐ ऐं म्क्लीं नम:॥६३॥
ॐ ऐं शां नम:॥६४॥
ॐ ऐं लं नम:॥६५॥
ॐ ऐं भैं नम:॥६६॥
ॐ ऐं ल्लूं नम:॥६७॥
ॐ ऐं हौं नम:॥६८॥
ॐ ऐं ईं नम:॥६९॥
ॐ ऐं चें नम:॥७०॥
ॐ ऐं ल्क्रीं नम:॥७१॥
ॐ ऐं ह्ल्रीं नम:॥७२॥
ॐ ऐं क्ष्म्ल्रीं नम:॥७३॥
ॐ ऐं यूं नमः॥७४॥इति देवी सूक्तम्॥
॥ हवन विधि -बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती॥
बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती के प्रत्येक बीज मंत्र के अंत में स्वाहा लगाकर हवन करें तथा प्रथम अध्याय के अंत में निम्न मंत्र से हवन करें-
ॐ ऐं जयन्ती सांगायै सायुधायै सशक्तिकायै सपरिवारायै सवाहनायै वाग्बीजाधिष्ठात्र्यै महाकालिकायै नमः अहमाहुति समर्पयामि स्वाहा ।
द्वितीय से लेकर चतुर्थ अध्याय तक के अंत में निम्न मंत्र से हवन करें-
ॐ ह्रीं जयन्ती सांगायै सायुधायै सशक्तिकायै सपरिवारायै सवाहनायै हृल्लेखाबीजाधिष्ठात्र्यै महालक्ष्म्यै नमः अहमाहुति समर्पयामि स्वाहा ।
पंचम से लेकर त्रयोदश अध्याय तक के अंत में निम्न मंत्र से हवन करें-
ॐ क्लीं जयन्ती सांगायै सायुधायै सशक्तिकायै सपरिवारायै सवाहनायै कामबीजाधिष्ठात्र्यै महासरस्व्त्यै नमः अहमाहुति समर्पयामि स्वाहा । ॥
इति: श्री बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती सम्पूर्ण ॥
हरि ॐ तत्सत्।

गुरुवार, 8 फ़रवरी 2024

गुरु : अध्यात्मिक -ज्ञान का केन्द्र

  

गुरु : अध्यात्मिक -ज्ञान का केन्द्र

‘गुरु’ एक विशिष्ट , पवित्र एवं भाव-पूर्ण मधुर शब्द है जो श्रद्धा,भक्ति और आस्था से परिपूर्ण है। यह दो व्यंजन वर्ण ‘गु’ तथा ‘रु’ के योग से बना है। ‘गु’ प्रतीक है अंधकार का जिसका तात्पर्य अज्ञानता से है और ‘रु’ प्रतीक है प्रकाश का जो अध्यात्मिक तेज-पुञ्ज का द्योतक है। ‘गु’ प्रतीक है तम का - माया का - मोह का - भ्रांति का अविद्या,जीव और गुणातीत का तथा ‘रु’ का तात्पर्य ज्ञान, विद्या ,ब्रह्म, चेतना और निराकारता से है। जब जीव भक्ति,श्रद्धा एवं विश्वासपूर्वक गुरु का सान्निध्य प्राप्त करता है तो वह उनके कृपा और मार्गदर्शन से अपने माया-मोह, भ्रम, अज्ञानता, अविद्या आदि से मुक्त होकर परम तेजस्वरूप चैतन्य परमसत्ता से सायुज्य प्राप्त कर लेता है।

गुकारश्चान्धकारो हि रुकारस्तेज उच्यते।

अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरुरेव न संशय:।।

गुकारश्चान्धकारस्तु रुकारस्तन्निरोधकृत्।

अंधकारविनाशित्वात् गुरुरित्यभिधीयते।।

गुकारश्च गुणातीतौ रूपातीतौ रुकारक: ।

गुणरूपविहीनत्वात् गुरुरित्यभिधीयते ।।

गुकार: प्रथमोवर्णो मायादि गुणभासक: ।

रुकारोsस्ति परं ब्रह्म मायाभ्रांति विमोचकम् ।

 ( स्क० पु० उ० ख०)

गुरु का होना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है जो अध्यात्मिक अज्ञान रूपी अंःधकार को मिटाते हैं और उसे आध्यात्मिक अनुभूतियां और आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करते हैं ।

 जब हम पाशविक- सभ्यता से ऊपर उठकर अपना उन्नयन चाहने लगे, मानवीय और दैवी-सत्ता को जानने के लिए व्यग्र होकर कहने लगे - तमसो मा ज्योतिर्गमय ---असतो मा सदगमय - --मृत्योर्मामृत गमय । हम सहायतार्थ बेचैन थे - कोई तो हो जो हमारी मदद कर सके -- हमें अज्ञान से ज्ञान का मार्ग बता सके -- सत्य का परिज्ञान करा सके -- जरा-रोग, जन्म-मृत्यु तथा कर्म के बंधन से मुक्त करके सास्वत आत्मज्ञान प्रदान कर मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सके।जी हाँ - हमें मिलें --- सद्गुरु और गुरु रूप में साक्षात् परमपिता परमेश्वर ने हमारी सहायता की और तभी से गुरु-शिष्य के भक्ति,श्रद्धा, विश्वास और पवित्र-प्रेम का उदात्त एवं उदार संबंध का मार्ग प्रशस्त हुआ ।

यूँ तो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हमें मार्गदर्शन के लिए एक प्रवीण, विज्ञ तथा अनुभवी व्यक्ति की आवश्यकता होती है जिसे बोल-चाल की भाषा में गुरु की ही संज्ञा देते हैं लेकिन हम यहाँ केवल आध्यात्मिक गुरु की ही बात करेंगे जो नररूप में साक्षात् नारायण ही हैं जिन्हें ब्रह्मा, विष्णु औरत महेश की समकक्षता प्राप्त है। वे हमारे समस्त पापों का नाश करके, विशुद्धात्मा बनाकर ईश्वरीय ज्ञान के द्वारा हमारे मुक्ति का मार्ग बताकर हमारा मानव-जीवन सफल करते हैं । समस्त दैनिक और दैविक क्रियाएँ गुरु के कृपा और मार्गदर्शन के बिना अधूरे हैं।

 यद्यपि गुरु और ब्रह्म में समतुल्यता है तथापि सांसारिक मानव गुरु का दायित्व परमात्मा को नहीं दे सकते । देहधारी मानव अपनी क्षमता, पात्रता और दिव्यता का ध्यान रखते हुए नर-तनधारी ज्ञानी श्रेष्ठ धर्मपरायण सदाचारी ब्रह्मज्ञानी व्यक्ति को ही अपना गुरु बना लें। आधुनिक परिवेश में कुछ लोग शास्त्रों के अर्थ को अनर्थ करते हुए ‘शिव’ अथवा अन्याय देवों को ही गुरु मानकर अपने दायित्व से पल्ला झाड़ लेते हैं --यह यथोचित कर्म नहीं है। यद्यपि ‘शिव’ और ‘गुरु’ में भेद-दृष्टि उचित नहीं है तथापि शिवजी ने स्वयं ही बार-बार गुरु की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए गुरु को स्वयं से श्रेष्ठ बताया है। उन्होंने बताया है कि शिव के अप्रसन्न होने पर गुरु साधक की रक्षा कर सकते हैं लेकिन गुरु के अप्रसन्न होने पर साधक की रक्षा करने में स्वयं शिव भी सक्षम नहीं है।

शिवे क्रुद्धे गुरुस्त्राता गुरौ क्रुद्धे शिवो न हि।

तस्मात् सर्वप्रयत्नेन श्रीगुरुं शरणं व्रजेत् ।।

यद्यपि शिव गुरु हैं तथापि मानव क्या अपने इस पात्रता एवं दिव्यता के सहारे उनसे सीधे दिशा-निर्देश प्राप्त कर सकते हैं ? शिव तक पहुँचने से पहले माया साधक को अपनी जाल में दिग्भ्रमित कर देती है और उसका उद्देश्य सफल नहीं हो पाता । फिर गुरु बनने-बनाने की प्रक्रिया में शिष्य के साथ-साथ गुरु की भी सहमति आवश्यक है चाहे गुरु मनुष्य ही क्यों न हो । आपने उनसे (शिव से) सहमति तो लिया ही नहीं । अगर आपने शिव को गुरु माना है तो कोई जरूरी नहीं कि उन्होंने आपको शिष्य स्वीकार कर ही लिया हो। शिव की दिव्यता के समक्ष अगर साधक में पात्रता नहीं है तो यह गुरु-शिष्य का संबंध कैसा ? अज्ञान,दंभ और भ्रम का त्याग कर दें तथा किसी योग्य सदाचारी ब्रह्मज्ञानी देहधारी व्यक्ति को ही अपना गुरु बनाकर उन्हें उचित मान-सम्मान देकर ,उनकी सेवा-सुश्रुषा कर, उनके मार्गदर्शन में साधना द्वारा इहलोक और परलोक को सुधार लें। अहंकार में जीवन को व्यर्थ न गँवा दें । परमात्मा माता,पिता,बंधु,मित्र,धन-धान्य सबकुछ हैं तो क्या आप संसार के सारे संबंधों को नकार सकते हैं ? शास्त्रों के भाव को समझने की कोशिश करें - अर्थ का अनर्थ करते हुए अविवेक और अविद्या को आत्मसात करते हुए महापाप से बचें, अनाचार की प्रवृत्ति का त्याग करें। साधना-पथ पर भ्रम-जाल से बचने हेतु, शंका के समाधान हेतु कदम-कदम पर देहधारी सदगुरु की जरूरत है - जिनकी पात्रता दिव्य हो , एेसे दिव्य लोगों की , दिव्य साधकों की बात कुछ और है -सभी लोगों को ऐसा सौभाग्य कहाँ कि वे शिव को अपना गुरु बना सके? गुरु और शिष्य का संबंध तो कुम्हार और घड़े जैसा होना चाहिए जिसे कबीर ने इस तरह निर्देशित किया है-

गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़े खोट।

अंतर हाथ सहार दे, बाहर मारे चोट ।।

आत्म-सुधार के लिए सद्गुरु के प्रेम, वात्सल्य और कृपा के साथ जरूरत पड़ने पर डाँट-फटकार और चोट की जरूरत भी जनसाधारण को है। कोई अनपढ़ व्यक्ति सीधे पी०एच०डी नहीं कर सकता। पहले पात्रता तो प्राप्त कर लो। अहंकार का परित्याग करें -सद्भावनापूर्वक मत-मतांतर छोड़कर आत्मोद्धार के लिए किसी सद्गुरु की शरण में जाएँ -अपनी जिज्ञासा प्रकट करें - उनकी कृपा प्राप्त करें - निश्चय ही आपको मार्ग , मार्गी और ध्येय सभी मिल जाएंगे। आपके अमूल्य जीवन सार्थक हो जाएंगे ।

 यह संसार अविद्यात्मक मायारूप है और शरीर अज्ञान से उत्पन्न है, केवल गुरु की कृपा से ही इस आत्मज्ञान को समझा जा सकता है। गुरु की चरणों की सेवा से ही मानव सभी पापों से रहित होकर विशुद्धात्मा ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। गुरुदेव की चरण-सेवा, चरणोदक-पान, नाम-कीर्तन, स्वरूप-चिंतन द्वारा शिष्य जन्म-जन्मांतरों के पाप से मुक्त होकर शुद्ध-चित्त, ज्ञान और बैराग्य को प्राप्त कर लेते हैं। अपनी जाति, धर्म, आश्रम, यश, कीर्ति , धन आदि का मिथ्याभिमान त्यागकर गुरु की सेवा करनी चाहिए । ऐसा करने पर आप निश्चय ही आत्मकल्याण प्राप्त कर लेंगे। चित्त के भ्रमित होने पर संसाररूपी भवसागर को पार कराने में केवल सद्गुरु ही समर्थ हो सकते हैं। गुरु की महिमा का गुणगान करने में साक्षात् सरस्वती,शेष, महेश, गणेश,ब्रह्मा, विष्णु, महर्षि,देव, मुनि,गंधर्व, ज्योतिषी आदि भी अपने को अक्षम पाते हैं । सद्गुरु की कृपा के बिना साधक के सिद्धि की परिकल्पना व्यर्थ है ।

 

गुरु त्रिविध-ताप और विविध पापों को हर लेते हैं। तार्किक, वैदिक, लौकिक अथवा ज्योतिषीय आदि किसी भी ज्ञान द्वारा गुरु-तत्व को जानना असंभव है। गुरुसेवा से विमुख कोई भी जन मुक्त नहीं हो सकता। गुरु ब्रह्मानंदस्वरूप, ज्ञानस्वरूप, सूक्ष्म, व्यापक, नित्य, मलरहित, अचल, त्रिगुणातीत तथा परमसुखदायक होते हैं। उनके उपदिष्ट मार्ग से मन की शुद्धि करनी चाहिए। गुरु का वाक्य शास्त्रों से भी श्रेष्ठ है। 

करुणारूपी तलवार के प्रहार से जो शिष्य के संशय, दया, भय, संकोच, निंदा, प्रतिष्ठा, कुलाभिमान और संपत्ति के अभिमान जैसे आठों पाशों से जो मुक्ति दिला दें, उन्हें सद्गुरु कहते हैं। 

विज्ञ जन ज्ञान-प्राप्ति के बाद भी गुरु का साथ नहीं छोड़ते हैं। प्रज्ञावान शिष्य गुरु के समक्ष डींग नहीं मारते हैं। उनके सामने असत्य-सम्मभाषण सर्वथा निंदनीय है। गुरुदेव का तिरस्कार आदि करनेवाले मरुभूमि में ब्रह्मराक्षस बनता है। सद्गुरु की पूजा प्रपंच से मुक्ति दिलाने में समर्थ है। गुरुदेव द्वारा दिए गए द्रव्य आदि को गरीब की तरह यत्नपूर्वक रखें। उनकी आज्ञा का हमेशा पालन करें। जो धन गुरुदेव ने नहीं दिया हो ,उसका उपयोग न करें। गुरुदेव के पीछे ही चलना चाहिए। उनके परछाईं का भी उल्लंघन न करें। पादुका, आसन, बिस्तर आदि जो उनके उपयोग में आते हों, उन सबको नमस्कार करना चाहिए। उनके समक्ष कीमती वस्त्र, आभूषण आदि धारण नहीं करना चाहिए। गुरु की निंदा खुद न करें , नहीं दूसरों को करने दें । सद्गुरु की कृपा से शिष्य पाशों से भी मुक्ति पा सकते हैं। उनके श्रीचरणों की सेवा करके जो महावाक्य के अर्थ को समझते हैं, वे ही सच्चे संयासी हैं , अन्य तो मात्र वेधशाला हैं। गुरु का हमेशा ध्यान करें, उन्हें नमन करें । 

सद्गुरु का सदा ध्यान करने से जीव ब्रह्ममय हो जाता है। वह किसी भी स्थान में रहता हो, वह मुक्त ही है। इसमें कोई संशय नहीं है।

गुरोर्ध्यानेनैव नित्यं देही ब्रह्ममयो भवेत् ।

स्थितश्च यत्रकुत्रापि मुक्तोsसौ नात्र संशय: ।।

 ( स्क० पु० उ० ख०)

मनुष्य के लिए गुरु ही शिव है, गुरु ही देव है, गुरु ही बांधव है, गुरु ही आत्मा है तथा गुरु ही जीव है, अर्थात् गुरु के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।

गुरु: शिवो गुरुर्देवो गुरुर्बन्धु: शरीरिणाम्।

गुरुरात्मा गुरुर्जीवो गुरोरत्यन्न विद्यते।।

 ( स्क० पु० उ० ख०)

ज्ञानहीन, मिथ्यावादी, ढोंगी गुरु का त्याग करें । जो अपना कल्याण नहीं कर सकते, वे दूसरों का कल्याण कैसे कर सकते हैं। पाषाण का टुकड़ा भला अनेक टुकड़ों को तैरना कैसे सिखा सकता जबकि वह स्वयं तैरना नहीं जानता ?

ज्ञानहीनो गुरुत्याजो मिथ्यावादी विडंबक: ।

स्वविश्रान्ति न जानाति परशान्तिं करोतिकिम्।।

शिलाया: किं परं ज्ञानं शिलासंघप्रतारणे।

स्वयं तर्त्तु न जानाति परं निसतारेयेत्कथम्।।

 ( स्क० पु० उ० ख०)

 सद्गुरु की महिमा अपरम्पार है कल्प-पर्यंत के, करोड़ों जन्मों के यज्ञ, व्रत, तप और शास्त्रोक्त क्रियाएँ, ये सब गुरुदेव के संतोषमात्र से सफल हो जाते हैं। स्वयं शिव ने कहा है -

आकल्पजन्मकोटीनाम् यज्ञ व्रत तप: क्रिया: ।

ता: सर्वा सफला देवि गुरुसंतोषमात्रत: ।।

 ( स्क० पु० उ० ख०)

उनका मानव-जीवन व्यर्थ है जो गुरु-तत्व को नहीं जानते हैं । गुरु-दीक्षा से विमुख लोग भ्रांत हैं और ज्ञान से रहित हैं वे सचमुच पशु के ही समान है । वे परम-तत्व को नहीं जानते हैं ।

गुरुरेको जगत्सर्वं ब्रह्मविषणुशिवात्कम्।

गुरो:परतरं नास्ति तस्मात्संपूजयेद्गुरुम्।।

 ( स्क० पु० उ० ख०)

ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव सहित संपूर्ण विश्व गुरुदेव में ही समाविष्ट है। गुरुदेव से अधिक और कुछ भी नहीं है। इसलिए गुरुदेव की ही पूजा करनी चाहिए।

( निबंधमिदं सद्गुरवे परमहंसचिदात्मनदेवाय समर्पितम्)

 

सद्गुरु चरणानुरागी

 श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

 बी०एस०सी भौतिकी (प्रतिष्ठा)

 एम०ए (ज्योतिष-विज्ञान)

 ग्राम+पो० -- धनकौल, 

जिला- शिवहर(बिहार) -843325

बुधवार, 7 फ़रवरी 2024

श्रीदुर्गा सप्तशती और उसके सम्पुट-पाठ से कामना-सिद्धि

 श्रीदुर्गा सप्तशती का पाठ कामना- सिद्धि के लिए किया जाता है । श्री दुर्गा सप्तशती दैत्यों के संहार की शौर्य गाथा से अधिक कर्म, भक्ति एवं ज्ञान की त्रिवेणी हैं।इससे बड़ा तंत्र, मंत्र और यंंत्र इस ब्रह्मांड में कुछ भी नहीं है।श्री मार्कण्डेय पुराण का अंश है। यह देवी महात्म्य धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष चारों पुरुषार्थों को प्रदान करने में सक्षम है। इस ग्रंथ मे ऐसी शक्ति है जिससे जीवन के सभी कष्ट दूर हो जाते है,रोग दूर होते है,भय नही होता है,सफलता मिलती है, सप्तशती में कुछ ऐसे भी स्तोत्र एवं मंत्र हैं, जिनके विधिवत पारायण से इच्छित मनोकामनाओं की पूर्ति होती है।

श्रीमार्कण्डेयपुराणान्तर्गत देवीमाहात्म्यमें ' श्लोक ' , ' अर्धश्लोक ' और ' उवाच ' आदि को मिलाकर कुल 700 मन्त्र हैं । यह माहात्म्य दुर्गासप्तशती के नामसे प्रसिद्ध है । सप्तशती  अर्थ , धर्म , काम , मोक्ष - चारों पुरुषार्थोंको प्रदान करनेवाली है । समस्त कामनाओं को पूरी करने वाला है। जो पुरुष जिस भाव और जिस कामनासे श्रद्धा एवं विधिके साथ सप्तशतीका पारायण करता है , उसे उसी भावना और कामनाके अनुसार निश्चय ही फल - सिद्धि होती है । इस बातका अनुभव अगणित पुरुषोंको प्रत्यक्ष हो चुका है । यहाँ हम कुछ ऐसे चुने हुए मन्त्रों का उल्लेख करते हैं , जिनका सम्पुट देकर विधिवत् पारायण करने से विभिन्न पुरुषार्थों की व्यक्तिगत और सामूहिक रूपसे सिद्धि होती है । इनमें अधिकांश सप्तशती के ही मन्त्र हैं और कुछ बाहर के भी हैं ।लेकिन अगर आप भक्तिभाव तथा नि:श्वार्थ भाव से देवी के मंत्रों की आराधना करते है तो आपको मन चाहा फल की प्राप्ति होती है।

1.सामूहिक कल्याण के लिए:-

"देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या, निश्शेषदेवगणशक्तिसमूहमूर्त्या । तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां, 

भक्त्या नताः स्म विदधातु शुभानि सा न:।।

2.विश्व के अशुभ तथा भय का विनाश करने के लिए:-

"यस्याः प्रभावमतुलं भगवाननन्तो ,

ब्रह्मा हरश्च न हि वक्तुमलं बलं च ।

 सा चण्डिकाखिलजगत्परिपालनाय, 

 नाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु ॥

३.विश्व की रक्षा के लिए:-

या श्री : स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मी :,

पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धिः ।

श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा , 

तां त्वां नताः स्म परिपालय देवि विश्वम् ॥

4.विश्व के अभ्युदय के लिए:-

 विश्वेश्वरि त्वं परिपासि विश्वं , 

विश्वात्मिका धारयसीति विश्वम्  

विश्वेशवन्द्या भवती भवन्ति ।

 विश्वाश्रया ये त्वयि भक्तिनम्राः ॥ 

5.विश्वव्यापी विपत्तियोंके नाश के लिए:-

देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद प्रसीद, 

मातर्जगतोऽखिलस्य । 

प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं ,

त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य ॥

6.विश्वके पाप - ताप - निवारण के लिए:-

देवि प्रसीद परिपालय नोऽरिभीते- नित्यं,

यथासुरवधादधुनैव सद्यः । 

पापानि सर्वजगतां प्रशमं नयाशु,

उत्पातपाकजनितांश्च महोपसर्गान् ॥

7.विपत्ति - नाश के लिए:-

शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे ।

 सर्वस्यातिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥

8.विपत्तिनाश और शुभ की प्राप्ति के लिए:-

करोतु सा नः शुभहेतुरीश्वरी,

 शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः ।

9.भय - नाश के लिए:-

सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते । 

भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते ।।

अथवा

एत्तते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम् । 

पात नः सर्वभीतिभ्यः कात्यायनि नमोऽस्तु ते ॥

अथवा

ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम् । 

त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोऽस्तु ते ॥ 

10.पाप - नाश के लिए:-

हिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्य या जगत् । 

सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्योऽन : सुतानिव ॥ 

11.रोग - नाश के लिए:-

रोगानशेषानपहंसि तुष्टा ,

रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् ।

 त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां,

 त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति ॥

12.महामारी - नाश के लिए:-

जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी । 

दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते ॥

13:-आरोग्य और सौभाग्यकी प्राप्ति के लिए:-

देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम् । 

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥

14.सुलक्षणा पत्नी की प्राप्तिके लिए:- 

पत्नी मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम् । 

तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम् ॥

15.बाधा - शान्ति के लिए:-

सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि । 

एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम् ॥

16:-सर्वविधि अभ्युदय के लिए:-

ते सम्मता जनपदेष धनानि तेषां ,

तेषां यशांसि न च सीदति धर्मवर्गः । 

धन्यास्त एव निभूतात्मजभृत्यदारा , 

येषां सदाभ्यदयदा भवती प्रसन्ना ।।

17.दारिद्यदुःखादिनाश के लिए:-

दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः ,

स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि । 

दारिद्रयदुःखभयहारिणि का त्वदन्या , 

सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽर्द्रचित्ता ॥

18.रक्षा पाने के लिए:-

शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके । 

घण्टास्वनेन नः पाहि चापज्यानि : स्वनेन च ॥ 

19:-समस्त विद्याओं की और समस्त स्त्रियों में मातृभाव की प्राप्ति के लिए:-

"विद्या : समस्तास्तव देवि भेदाः ,

स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्स । 

त्वयैकया पूरितमम्बयैतत्,

 का ते स्तुतिः स्तव्यपरा परोक्तिः ॥

20:- सब प्रकार के कल्याण के लिए:-

सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके । 

शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥

21.शक्ति - प्राप्ति के लिए:-

सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्तिभूते सनातनि । 

गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते ॥

22. प्रसन्नताकी प्राप्ति के लिए:- 

प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वातिहारिणि । 

त्रैलोक्यवासिनामीड्ये लोकानां वरदा भव ॥

23 . विविध उपद्रवोंसे बचने के लिए:-

रक्षांसि यत्रोग्रविषाश्च नागा 

यत्रारयो दस्युबलानि यत्र ।

 दावानलो यत्र तथाब्धिमध्ये 

तत्र स्थिता त्वं परिपासि विश्वम् ॥

24. बाधामुक्त होकर धन - पुत्रादिकी प्राप्तिके लिए:-

सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वितः ।

मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः ॥

25. भक्ति - मुक्तिकी प्राप्ति के लिए:-

" विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम् । 

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥

26. पाप नाश तथा भक्ति की प्राप्ति के लिए:-

"नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चण्डिके दुरितापहे ।

 रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ 

27 . स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्ति के लिए:-

सर्वभूता यदा देवी स्वर्गमुक्तिप्रदायिनी । 

त्वं स्तुता स्तुतये का वा भवन्तु परमोक्तयः ॥

28. स्वर्ग और मुक्ति प्राप्ति के लिए:-

" सर्वस्य बुद्धिरूपेण जनस्य . हृदि संस्थिते । 

स्वर्गापवर्गदे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥

29. मोक्षकी प्राप्ति के लिए:-

" त्वं वैष्णवी शक्तिरनन्तवीर्या ,

विश्वस्य बीजं परमासि माया । 

सम्मोहितं देवि समस्तमेतत्

त्व वै प्रसन्ना भुवि मुक्तिहेतुः

30. स्वप्नमें सिद्धि - असिद्धि जानने के लिए:-

" दुर्गे देवि नमस्तभ्यं सर्वकामार्थसाधिके ।

मम सिद्धिमसिद्धिं वा स्वप्ने सर्वं प्रदर्शय ।।

हरि ॐ तत्सत्।

श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'






मंगलवार, 6 फ़रवरी 2024

शिववास की गणना कैसे करें ?

शिववास की गणना कैसे करें ?

किसी कार्य विशेष के लिए संकल्पित शिव पूजा, रुद्राभिषेक, महामृत्युञ्जय अनुष्ठान आदि में शिव वास का विचार करना बहुत जरुरी होता है। 

शास्त्रों के मतानुसार यह कहा गया है की भगवान शिव पूरे महीने में सात अलग-अलग जगह पर वास करते हैं। उनके वास स्थान से यह पता चलता है की उस समय भगवान शिव क्या कर रहे हैं और वह समय प्रार्थना के लिए उचित है या नहीं।शिव वास की गणना करके ही शिव से संबंधित पूजा, रुद्राभिषेक जैसे कर्म इसके फल शुभ्रता को प्राप्त कर मनोवांछित फल प्रदान करते हैं।

शिववास की गणना:

नारद जी द्वारा बतायी गई शिव वास देखने की विधि के लिए सबसे पहले तिथि को देखें। शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से पूर्णिमा को 1 से 15 और कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक 16 से 30 मान दें। इसके बाद जिस भी तिथि के लिए हमें देखना हो उसे 2 से गुणा करें और गुणनफल में 5 जोड़कर उसे 7 से भाग दें। शेषफल के अनुसार शिव वास जानें।

तिथिं च द्विगुणी कृत्वा पुनः पञ्च समन्वितम् ।

सप्तभिस्तुहरेद्भागम् शेषं शिव वास उच्यते ।।

शिव वास के स्थान और फल:

शेषफल के अनुसार शिव वास का स्थान और उसका फल इस प्रकार है:-

1 – कैलाश में : सुखदायी

2 – गौरी पार्श्व में : सुख और सम्पदा

3 – वृषारूढ़ : अभीष्ट सिद्धि

4 – सभा : संताप

5 – भोजन : पीड़ादायी

6 – क्रीड़ारत : कष्ट

0 – श्मशान : मृत्यु

कैलाशे लभते सौख्यं गौर्या च सुख सम्पदः ।

 वृषभेऽभीष्ट सिद्धिः स्यात् सभायां संतापकारिणी।

भोजने च भवेत् पीड़ा क्रीडायां कष्टमेव च । 

श्मशाने मरणं ज्ञेयं फलमेवं विचारयेत्।।

उपरोक्त अनुसार शुक्ल पक्ष की द्वितीया, पंचमी, षष्ठी, नवमी, द्वादशी और त्रयोदशी तिथियां तथा कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा, चतुर्थी, पंचमी, अष्टमी, एकादशी एवं द्वादशी तिथियां शुभ फलदायी हैं। इन तिथियों पर किए गए सभी काम्य-कर्म एवं संकल्पित अनुष्ठान सिद्ध होते हैं।

निष्काम पूजा, महाशिवरात्रि, श्रावण माह, तीर्थस्थान या ज्योतिर्लिङ्ग में शिव वास देखना जरुरी नहीं होता।

हरि ॐ तत्सत्।

श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'


ज्योतिष शास्त्र में योग

 ज्योतिष शास्त्र में योग 

शुभ मुहूर्त या योग को लेकर मुहूर्त मार्तण्ड, मुहूर्त चिंतामणि, मुहूर्त पारिजात, धर्म सिंधु, निर्णय सिंधु आदि शास्त्रों ज में बहुत कुछ कहा गया है। ज्योतिष शास्त्र में सूर्य-चन्द्र की विशेष दूरियों की स्थितियों को योग कहा जाता है। योग 27 प्रकार के होते हैं। ये योग हमारे जीवन को बहुत प्रभावित किया करते हैं।

1.विष्कुम्भ, 2.प्रीति, 3.आयुष्मान, 4.सौभाग्य, 5.शोभन, 6.अतिगण्ड, 7.सुकर्मा, 8.धृति, 9.शूल, 10.गण्ड, 11.वृद्धि, 12.ध्रुव, 13.व्याघात, 14.हर्षण, 15.वज्र, 16.सिद्धि, 17.व्यतिपात, 18.वरीयान, 19.परिध, 20.शिव, 21.सिद्ध, 22.साध्य, 23.शुभ, 24.शुक्ल, 25.ब्रह्म, 26.इन्द्र और 27.वैधृति।

इसके अलावा भी योग होते हैं- जैसे रवि-पुष्य योग, पुष्कर योग , द्विपुष्कर योग, त्रिपुष्कर योग आदि।

पुष्कर योग :-

इस योग का निर्माण उस स्थिति में होता है जबकि सूर्य विशाखा नक्षत्र में होता है और चंद्रमा कृतिका नक्षत्र में होता है। सूर्य और चंद्र की यह अवस्था एक साथ होना अत्यंत दुर्लभ होने से इसे शुभ योगों में विशेष महत्व दिया गया है। यह योग सभी शुभ कार्यों के उत्तम मुहूर्त होता है।

त्रिपुष्कर और द्विपुष्कर योग:-

वार, तिथि और नक्षत्र तीनों के संयोग से बनने वाले योग को दविपुष्कर योग कहते हैं। इसके अलावा यदि रविवार, मंगलवार या शनिवार में द्वितीया, सप्तमी या द्वादशी तिथि के साथ पुनर्वसु, उत्तराषाढ़ और पूर्वाभाद्रपद इन नक्षत्रों में से कोई नक्षत्र आता है तो त्रिपुष्कर योग बनता है।

ज्योतिष शास्त्र में यह एक शुभ योग है । यदि कोई इस दिन कार्य करता है तो उसे यह काम तीन बार करना पड़ता है इसलिए इसका नाम त्रिपुष्कर योग रखा गया है।

त्रिपुष्कर योग में भगवान विष्णु अथवा अपने आराध्य देव की पूजा करना अथवा पुण्य-कार्य श्रेयस्कर है। इस योग में आप जो भी कार्य करते हैं, उसका तीन गुना फल प्राप्त होता है। गुरुवार को भगवान विष्णु की पूजा पीले फूल, हल्दी, अक्षत, पंचामृत, तुलसी के पत्ते आदि से करनी चाहिए।

इन योगों में किया गया पाप भी उतना ही गुना दोषपूर्ण हो जाता है।

हरि ॐ तत्सत्।

- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

गुरुवार, 1 फ़रवरी 2024

अग्निवास के लिए मुहुर्त-गणना कैसे करें?

अनादि काल से हवन के माध्यम से ही मानव देवी- देवताओं को प्रसन्न करके मनोवांछित फल प्राप्त करते रहे हैं। शास्त्रों में पांच प्रकार के यज्ञ का वर्णन मिलता है। एक 'ब्रह्म यज्ञ' जिसमें ईश्वर या इष्ट देवताओं की उपासना की जाती है। दूसरा है 'देव यज्ञ' जिसमें देव पूजा और अग्निहोत्र कर्म किया जाता है।
हवन तथा यज्ञ भारतीय संस्कृति तथा सनातन हिन्दू धर्म में पर्यावरण शुद्धीकरण की एक विशिष्ट प्रक्रिया है।हवन- कुण्ड में अग्नि के माध्यम से ईश्वर को हवा द्वारा संतुष्ट करने की विशेष विधि से उपासना करने की प्रक्रिया को यज्ञ कहते हैं। हवि, अथवा हविष्य वैसे पदार्थ हैं जिनकी अग्नि में आहुति दी जाती है। हवन कुंड में अग्नि प्रज्वलित करने के पश्चात इस पवित्र अग्नि में तील, जौ, चावल,शहद, घी, अन्य विशिष्ट पदार्थ इत्यादि पदार्थों की आहुति दी जाती है। वायु-प्रदूषण को कम करने के लिए भारत देश में ऋषि -मुनि, ब्रह्मण और सनातन संस्कृति वाले यज्ञ किया करते थे और तब हमारे देश में कई तरह के रोग नहीं होते थे। आज भी सनातन संस्कृति में इसका प्रचलन है। दैवी सम्पदा की प्राप्ति, इष्ट -सिद्धि, पुण्य, धर्म,स्वास्थ्य एवं समृद्धि इत्यादि की प्राप्ति हेतु भी हवन किया जाता है। अग्नि  में जलने  पर किसी भी पदार्थ के गुण कई गुना बढ़ा जाते हैं । उदाहरण - स्वरूप अग्नि में अगर मिर्च जलाया जाता है तो उस मिर्च का प्रभाव बढ़ कर लोगों को  अत्यंत तकलीफ देती है उसी प्रकार अग्नि में किसी विशेष मंत्र जप के साथ अग्निहोत्र कर्म करने से 
ह सकारात्मक ध्वनि तरंगित होती हैं और शरीर में ऊर्जा का संचारित होती है। हवन के प्रभाव से अनेक दुस्साध्य रोग ठीक हो जाते हैं। आयुर्वेद मे भस्म-चिकित्सा भी इस प्रक्रिया से उत्पन्न प्रतिफल हैं। स्वर्ण का भक्षण लोग नहीं करते हैं तथापि स्वर्ण -भस्म द्वारा विभिन्न व्याधियों की चिकित्सा जगजाहिर है।
किसी भी अनुष्ठान, पूजा , संस्कार आदि में हवन का शास्त्रीय विधान जिसका अनुसरण करना आवश्यक है । इसके अनुसार ही अग्निहोत्र कर्म हवन के फल और प्रतिफल प्राप्त होते हैं। हवन के समय इसके लिए अग्निवास का मुहूर्त होना अनिवार्य है।
विशिष्ट लाभ प्राप्ति हेतु अग्निवास के मुहुर्त-गणना की विधि यहांँ विस्तृत विधि दी गयी है।
अग्निवास मुहुर्त-गणना ज्ञात करने की विधि:
सैका तिथिर्वारयुता कृताप्ता शेषे गुणेभ्रे भुवि वह्निवासः।
सौख्याय होमे शशियुग्मशेषे प्राणार्थनाशौ दिवि भूतले च  ।।
शुक्ल प्रतिपदा से वर्तमान तिथि तक गणना करके उसमें वारसंख्या को जोड़कर एक जोड़ें। योगफल में चार का भाग दें।  शेष के अनुसार अग्नि- स्थापन के निम्नलिखित फल प्राप्त होते हैं।
शेष            अग्निवासः           फलः
१                  स्वर्ग              प्राणनाश:
२                पाताले            धननाश:
३,०             पृथ्वी               सुखः 
उपरोक्त तालिका के अनुसार ही अग्निवास के शुभाशुभ को जाना जा सकता है।
1- जिस दिन आपको होम करना हो, उस दिन की तिथि और वार की संख्या को जोड़कर पुनः एक जोड़ें। फिर कुल जोड़ को 4 से भाग देवें- अर्थात् शुक्ल प्रतिपदा से वर्तमान तिथि तक गिनें तथा रविवार से दिन की गणना करें ,पुनः दोनों को जोड़ करके  उसमें एक जोड़ें और चार  से भाग दें। 
यदि शेष शुन्य 0 अथवा 3 बचे तो अग्नि का वास पृथ्वी पर होगा और इस दिन हवन करना कल्याण कारक होता है ।
यदि शेष 2 बचे तो अग्नि का वास पाताल में होता है और इस दिन हवन करने से धन का नाश होता है ।
यदि शेष 1 बचे तो आकाश में अग्नि का वास होगा, इसमें होम करने से आयु का क्षय अर्थात् प्राणनाश होता है ।
अतः यह आवश्यक है की अग्नि के वास का सही ज्ञान करने के बाद ही हवन करें ।
वार की गणना रविवार से तथा तिथि की गणना शुक्ल-पक्ष की प्रतिपदा से करनी चाहिए। शुक्लपक्ष में 1 से 15 तथा कृष्ण पक्ष में 16-30 की गणना तिथि अनुसार करें। 
यथा- 1. शुक्लपक्ष बुधवार सप्तमी तिथि को अग्निवास ज्ञात करें।
शुक्लपक्ष सप्तमी में तिथि संख्या-7, वार संख्या बुधवार के लिए 4 है। अतः नियमानुसार (7+4+1)÷4 में शेष 0 है। अतः नियमानुसार 0 शेष रहने पर अग्निवास पृथ्वी पर है जो सुखप्रद है ‌।
2. सोमवार कृष्णपक्ष द्वितीया को (17+2+1)÷4, शेष यहाँ भी 0 है। अतः नियमानुसार अग्निवास पृथ्वी पर है और सुखदायक है।
इसी प्रकार किसी भी अभीष्ट तिथि को अग्निवास के फलाफल को जाना जा सकता है।
गर्भाधानादि संस्कार निमित्तक हवन में अग्निवास के मुहुर्त-गणना की अनिवार्यता नहीं है। इसी प्रकार नित्य होम, दुर्गा-होम, रुद्र होम, वास्तुशान्ति, विष्णु की प्रतिष्ठा, ग्रहशान्ति होम, नवरात्र होम, शतचण्डी, लक्ष और कोटि हवनात्मक अनुष्ठान, पितृमेध, उत्पात-शान्ति की स्थिति में अग्निवास के मुहुर्त-गणना देखना आवश्यक नहीं है
नवरात्रि में, चण्डी यज्ञ, नित्य हवन, ग्रहण अवधि में हवन, अमावस्या पर, उपवास के दिन, संस्कार से सम्बन्धित कार्य जैसे मुण्डन, उपनयन समारोह, विवाह, यात्रा आदि के लिये अग्निवास के मुहुर्त-गणना को  अनिवार्य नहीं माना जाता है, तथापि यथासंभव यथास्थिति ध्यान रखना सर्वोत्तम है।
हरि ॐ तत्सत् ‌।
श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'