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बुधवार, 14 फ़रवरी 2024

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 006-01-006(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

 
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः।।१।६।।
( युधामन्युश्च = युधामन्यु: + च ) ; युधामन्यु: = युधामन्यु ; च = और;विक्रांत = विक्रांत : = पराक्रमी ; ( उत्तमौजाश्च = उत्तमौजा: + च ) ; उत्तमौजा: = उत्तमौजा ; वीर्यवान् = अत्यंत शक्तिशाली ; सौभद्र: = सुभद्रा के पुत्र अभिमन्यु ; ( द्रौपदेयाश्च = द्रौपदेया: + च ) ; द्रोपदेया: = द्रौपदी के पुत्र ; सर्व = सभी ; महारथा: = महारथी।
अत्यंत पराक्रमी युधामन्यु , अत्यंत शक्तिशाली उत्तमौजा, सुभद्रा के पुत्र तथा द्रौपदी के पुत्र - ये सभी महारथी हैं।
युधामन्यु पराक्रमी हैं, उत्तमौजा बलवीर हैं।
सुभद्रा और द्रौपदी के, सभी सुत रणवीर हैं।।१।६।।
हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 005-01-005(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)


धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः।।१।५।।
(धृष्टकेतुश्चेकितान: = धृष्टकेतु: + चेकितान:) ; धष्टकेतु: = धृष्टकेतु ; चेकितान: = चेकितान;
(काशिराजश्च = काशिराज: +च) ; काशिराज: = काशिराज;च = और ;
वीर्यवान् = परम शक्तिशाली ( पुरुजित्कुन्तिभोजश्च = पुरुजित्+कुन्तिभोज: + च ) ; पुरुजित् = पुरुजित् ; कुन्तिभोज: = कुन्तिभोज ; च = और ; ( शैव्यश्च = शैव्य:+च ) ; शैव्य: = शैव्य ; ;च = और ; नरपुङ्व: = नरश्रेष्ठ( नरों में वीर)।
इनके साथ में धृष्टकेतु, चेकितान, काशिराज,पुरुजित् , कुन्तिभोज, शैव्य जैसे महान् शक्तिशाली वीर योद्धा भी हैं।
धृष्टकेतु चेकितान भी हैं, काशिराज जैसे वीर हैं।
पुरुजित् कुन्तिभोज भी हैं, शैव्य तुल्य नरवीर हैं।।१।५।।
हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 004-01-004(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः।।१।४।।
अत्र = यहॉं ; शूरा: =वीर ; (महेष्वासा: = महा+इषु +आसा:) ; महा = महान् ; इषु = धनुष ; आसा: = धारण करने वाले ; महेष्वासा: = महान् धनुर्धर ; (भीमार्जुनसमा = भीम+अर्जुन+समा) ; समा: = के समान ; युधि = युद्ध में ; युयुधान: = युयुधान ; (विराटश्च = विराट: + च) ; विराट: = राजा विराट ; च = और ; ( द्रुपदश्च = द्रुपद: + च )द्रुपद: = राजा द्रुपद ; महारथ: = महान् योद्धा ।
यहॉं (पाण्डवों की सेना में) भीम और अर्जुन के समान युद्ध करने वाले अनेक वीर और धनुर्धर हैं यथा- महान् योद्धा महारथी युयुधान, राजा विराट तथा राजा द्रुपद।
पाण्डु-दल में अनेक, अर्जुन भीम जैसे वीर हैं।
महारथी युयुधान राजा, द्रुपद विराट रणवीर हैं।।१।४।।
हरि ॐ तत्सत्।
-श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 003-01-003(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।।१।३।।
( पश्यैतां = पश्य +एताम् ) ; पश्य = ; एताम् = इस ;
(पाण्डुपुत्राणामाचार्य = पाण्डुपुत्राणाम् + आचार्य) ; पाण्डुपुत्राणाम् = पाण्डु के पुत्रों की ; आचार्य = हे आचार्य ; महतीं = विशाल ; चमूम् = सेना को ; व्यूढां = सुसज्जित, ; द्रुपदपुत्रेण = राजा द्रुपद के पुत्रों के द्वारा ; तव = आपके (तुम्हारे) ; शिष्येण = शिष्य के द्वारा ; धीमता = अत्यधिक बुद्धिमान।
हे आचार्य ! आप पाण्डु-पुत्रों की व्यूहाकाररूप में सुसज्जित इस विशाल सेना को देखिए जिसे आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपद-पुत्र (धृष्टद्युम्न) के द्वारा सजाया गया है।
विशाल सेना पाण्डवों की, व्यूह-रचना हे गुरुवर देखिए ।
सजा है बुद्धि कला से , तव शिष्य द्रुपद-पुत ने है किए।।१।३।।

मंगलवार, 13 फ़रवरी 2024

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 002-01-002(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)


सञ्जय उवाच-
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत्
।।१‌।२।।
संजय = संजय: ; उवाच = कहा, बोले ; दृष्ट्वा = देखकर ; तु = लेकिन ; पाणडवानीकं = (पाण्डव+अनीकं) पाण्डवों की सेना ; व्यूढं = व्यूह रचना को ; (दुर्योधनस्तदा = दुर्योधन: + तदा ) ; तदा = तब, उस समय ; (आचार्यमुपसंगम्य = आचार्यम् + उपसंगम्य) ; आचार्यम् = आचार्य, गुरु (को) ; उपसंगम्य = पास जाकर ; राजा = राजा ; ( वचनमब्रवीत् = वचनम् + अब्रवीत् ) ; वचनम् = वचन ; अब्रवीत् = कहा।
संजय ने कहा -हे राजन ! पाण्डु-पुत्रों द्वारा किए गए सेना की व्यूहरचना को देखकर दुर्योधन अपने गुरु (द्रोणाचार्य) के पास जाकर उन्होंने ये वचन कहे।
संजय ने कहा-
व्यूह रचना जब सैनिकों की, पाण्डवों ने कर लिया।
देखकर राजा दुर्योधन, गुरु निकट जा विनती किया ।।१।२।।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य 

सोमवार, 12 फ़रवरी 2024

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 001-01-001(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)


धृतराष्ट्र उवाच-
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत् सञ्जय।।१।१।।
धृतराष्ट्र = धृतराष्ट्र: = धृतराष्ट्र ने ; उवाच = कहा ; धर्मक्षेत्रे = धर्मक्षेत्र में ; कुरुक्षेत्रे = कुरुक्षेत्र में ; समवेता = एकत्रित ; युयुत्सव: = युद्ध की इच्छावाले (युयुत्सु बहु०) ; मामका: = मेरे पुत्रों ने ; (पाण्डवाश्चैव = पाण्डवा: + च + एव ) ; पाण्डवा: = पाण्डु के पुत्रों ने ; च = और ; एव = निश्चय ही; ( किमकुर्वत् = किम् +अकुर्वत् ) ; किम् = क्या ; अकुर्वत् = किया ; संजय = हे संजय !
राजा धृतराष्ट्र ने कहा-
हे संजय ! धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में एकत्रित हुए युद्ध की इच्छावाले मेरे और राजा पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ? ।।१।१।।
धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में, जुटे सब लड़ने को अहो।
मेरे और पाण्डु सुतों ने, क्या किया संजय कहो।।१-१।।
हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

शनिवार, 10 फ़रवरी 2024

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 000-01-000(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

श्रीमद्भगवद्गीता
(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)
श्री तारकेश्वर झा ‘आचार्य’
ॐ परमात्मने नमः।
प्राक्कथन
भगवान जगदाधार श्री कृष्ण की उपदेशात्मक परम कल्याणकारी
अमृतवाणी भक्ति, मुक्ति और ज्ञान की त्रिवेणी है। मानव के कल्याण के निमित्त विश्व में श्रीमद्भगवद्गीता गीता अद्भुत, अलौकिक और अद्वितीय है। भगवान श्री हरि सबका कल्याण करें।
श्री गुरुचरणकमलेभ्यो नम:।
श्री गणेशाय नमः।
श्री परमात्मने नमः।
श्री महाकाल्यै नमः।
श्री महालक्ष्म्यै नमः।
श्री महासरस्वत्यै नमः।
श्री गुरवे नमः।
प्रिय सात्मनों !
मुक्ति-पथ के पथिक ! आगे बढ़कर सारस्वत मुक्ति का आलिंगन कर मानव जीवन को सार्थक कर लो ! अगर शिथिल होकर आराम की चिंता में बैठ जाओगे तो बहुत बड़ा नुक़सान हो जाएगा। तेरे जन्म जन्मांतर के परिश्रम के फलस्वरूप प्राप्त मानव-जीवन को तू यूं ही बिता दोगे और पारलौकिक सुख से वंचित रहकर भव-बंधन में पड़े रहोगे। चौरासी लाख योनियों के परिभ्रमण के पश्चात् यह दुर्लभ मानव-जीवन प्राप्त हुआ है। सारी योनियों में केवल मनुष्य को ही यह अधिकार है कि वह आत्म-साक्षात्कार कर मुक्त हो सके। बंधन भला किसे अच्छा लगता है ? यह शरीर आपका स्थायी आवास नहीं है। मोह और अज्ञानता के कारण अपने आत्म-स्वरूप सारस्वत आत्मसत्ता को भूल चुके हैं। आप जबतक प्रपंचों से उठकर, षड्विकारों से अपने अपने मन और बुद्धि को परिशुद्ध नहीं कर लेते जबतक आत्मज्ञान और आत्म साक्षात्कार असंभव है। आत्मशुद्धि, पूजा-पाठ, जप-तप, ,योग, यज्ञ, ध्यान-चिंतन , सद् शास्त्रों तथा सत्पात्रों का आश्रय से आत्मविश्वास को जागृत कर आत्म-विकास करते हुए आप निश्चित रूप से दुर्लभ ज्ञान को प्राप्त कर सकते हैं। ज्ञान स्वरूप के दर्शन आत्म साक्षात्कार द्वारा ही संभव है। सतत् प्रयास करते हुए आप अपनी जिज्ञासा को शांत कर महाबुद्ध और महावीर बन सकते हैं।
इस क्रम में श्रीमद्भागवत गीता एक अद्भुत ग्रंथ है। यह भगवान सर्वाधार परमेश्वर श्री कृष्ण की वाणी है जो मोक्षदायिनी है। इसके सरल शब्दों में भरे हुए रहस्य को समझते ही तत्क्षण ही व्यक्ति मुक्त हो जाता है। सदियों से यह अनमोल ग्रंथ मोक्ष-पिपासुओं के लिए मां गंगा के सदृश ही अपने ज्ञान-प्रवाह के साथ मोक्षदायिनी है। इसके अनंत सागर में गोते लगाने पर साधक अपने विकारों का त्याग कर निर्मल बन जाता है और आत्म-स्वरूप हो जाता है।
भगवद्भक्ति और भगवद् कृपा के बिना इस अद्भुत अलौकिक पारलौकिक भगवद्वाणी स्वरूप ग्रंथ को नहीं समझा जा सकता है भक्तिपूर्वक निरंतर प्रयास करते हुए अपने साधनों से समझने का प्रयास तो कर ही सकते हैं। प्रयास सच्चा हो तो सर्व कृपालु श्री हरि विष्णु की अवश्य ही कृपा प्राप्त कर कृत्य -कृत्य हो जायेंगे।
अब विषय-विस्तार और शब्दों के भंवर जाल में न फंसकर सीधे परमेश्वर श्री हरि विष्णु श्री कृष्ण जी की वाणी को समझने का प्रयास करेंगे। वाणी संस्कृत में है, इसे अभ्यास करते हुए सरल शब्दों में अपनी भाषा में अठारह अध्यायों में सात सौ श्लोकों में कथित रहस्य को समझते हैं।युद्ध की विभीषिका से भयभीत और विचलित महावीर धनुर्धर अर्जुन जब इसके दुष्परिणामों को सोचकर आत्मीय जनों की विनाशलीला की आशंका से मोह ग्रस्त होकर अपने शस्त्रों का परित्याग कर युद्ध करने से इंकार कर देता है तो भगवान सर्वाधार परमेश्वर श्री कृष्ण उन्हें उचित आत्मज्ञान देकर आत्म साक्षात्कार के द्वारा मोहभंग करते हुए युद्ध करने को उद्धत करते हैं। इस परिदृश्य में कहीं गई भगवान की अनमोल आत्मज्ञान वाणी भक्त और साधन-प्रेमियों के लिए कल्पवृक्ष के सदृश है जो भक्ति, मुक्ति और विरक्ति की त्रिवेणी संगम है। यह ज्ञान गृहस्थ और संन्यास दोनों ही आश्रमों के लिए सम्यक् है। आइए सरल भाषा में इसे अभ्यास करते हैं और भाषा में पद्यरूप में भी सुशोभित करने की कोशिश करते हैं। श्री हरि ऐसा करने की हमें शक्ति, अनुमति और सामर्थ्य प्रदान करें।
हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'