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सोमवार, 26 फ़रवरी 2024

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 048-02-001(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

संजय उवाच-
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् ।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदन: ।।२।१।।
संजय बोले-
इस प्रकार करुणा से व्याप्त और आँसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोकयुक्त उस अर्जुन से भगवान् मधुसूदन श्री कृष्ण ने यह वचन कहा ।।२।१।।
संजय = संजय; उवाच = बोले; तम् = उस(अर्जुन को;(कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् =कृपया+आविष्टम्+अ‌श्रुपूर्णा+कुलेक्षणम्); कृपया = करुणा से ; आविष्टम् = व्याप्त; अश्रुपूर्णा कुलेक्षणम् = आंसुओंसे पूर्ण; ( विषीदन्तमिदं = विषदन्तम् +इदं ); विषीदन्तम् = शोकयुक्त; इदम् = यह; वाक्यम् = वचन; उवाच = कहा; मधुसूदन: = भगवान् मधुसूदन (श्री कृष्ण ने )।
अश्रु नयन करुणा भरे, शोकाकुल अर्जुन बेचैन रहे।
मधुसूदन ने उन्हें देखकर , इस प्रकार के वचन कहे।।२।१।।
हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

हिन्दी पद्यात्मक श्रीमद्भगवद्गीता

हिन्दी पद्यात्मक श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 1
धृतराष्ट्र बोले-
धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में, जुटे सब लड़ने को अहो। 
मेरे और पाण्डु सुतों ने, क्या किया संजय कहो।।१-१।।
संजय ने कहा- 
व्यूह रचना जब सैनिकों की, पाण्डवों ने कर लिया। 
देखकर राजा दुर्योधन, गुरु निकट जा विनती किया।।१।२।।
विशाल सेना पाण्डवों की, व्यूह-रचना हे गुरुवर देखिए । 
सजा है बुद्धि कला से , तव शिष्य द्रुपद-पुत ने है किए।।१।३।।
पाण्डु-दल में अनेक, अर्जुन भीम जैसे वीर हैं। 
महारथी युयुधान राजा, द्रुपद विराट रणवीर हैं।।१।४।। 
धृष्टकेतु चेकितान भी हैं, काशिराज जैसे वीर हैं। 
पुरुजित् कुन्तिभोज भी हैं, शैव्य तुल्य नरवीर हैं।।१।५।।
युधामन्यु पराक्रमी हैं, उत्तमौजा बलवीर हैं।
सुभद्रा और द्रौपदी के, सभी सुत रणवीर हैं।।१।६।।
हे द्विजश्रेष्ठ ! अपने समर के विशिष्ट योद्धा जान लें। 
सैन्य-संचालन निपुण हैं, कह रहा आप संज्ञान लें।‌‌।१।७।।
मेरे दल में आप भी हैं,भीष्म कृपा और कर्ण हैं। 
संग्राम भूमि में सदा विजयी, अश्वत्थ भूरि विकर्ण हैं।।१।८।। 
मरने को तैयार रण में, मेरे हित सब वीर हैं।
आयुधों से युक्त भी हैं, समर चतुर रणधीर हैं।।।।१।९।।
पितामहरक्षित कौरव बल है, अपनी सेना अजेय है। 
भीमरक्षित पाण्डु -दल हैं, सीमित सुगम वो जेय है।।१।१०।। 
सभी अयनों पर अडिग होकर, आप सभी संग्राम करें। 
पितामह को सहयोग करें, निश्चय ही अविराम करें ।।१।११।। 
प्रतापी पितामह भीष्मवर ने, शंख बजाया अति जोर से। 
शंख-ध्वनि सिंहनाद सुनकर, दुर्योधन खुश हैं शोर से ।।१।१२।। 
तभी शंख बिगुल मृदंग तुरही, नगाड़े श्रृंगी बज उठे। 
समवेत स्वर से गुंजी धरती, अतीव कोलाहल हुए।।१।१३।। 
श्वेत तुरंग से युक्त रथ पर,श्रीकृष्ण-अर्जुन प्रकट हुए। 
दोनों ने दिव्य शंख बजाये,तुमुल शब्द तब विकट हुए।।१।१४।। 
माधव ने अब पाञ्चजन्य को, देवदत्त को पार्थ बजा डाला। 
भीमकर्मा वृकोदर भीम ने, शंख पौण्ड्र बजाया मतवाला।।१।१५।‌। 
अनंतविजय की ध्वनि सुनाकर, युधिष्ठिर वर वीर उद्घोष किया। 
सुघोष-वो-मणिपुष्पक के संग, नकुल सहदेव जयघोष किया।।१।१६।। 
काशिराज पधारे परम धनुर्धर , शिखण्डी महारथी बलशाली। 
सात्यकि अजेय धृष्टद्युम्न विराट ने, किए शंखध्वनि नादोंवाली।।१।१७।‌। 
हे राजन्। राजा द्रुपद और द्रौपदी के पुत्र ने , अपने शंख बजाये हैं। 
इस रणभूमि में महाबाहु सुभद्रा पुत्र ने, पृथक् ही शंख बजाये हैं।।१‌।१८।। 
तुमुल वाद्य वो शंखध्वनि से, धरा गगन बीच शोर हुआ। 
फट गई छाती धार्तराष्ट्र के, भय अमिट कमजोर हुआ।।१।१९।। 
कपिध्वज सुशोभित दिव्य रथ से,धार्तराष्ट्र को देख लिया। 
वाण निकाले पार्थ हाथ में ,प्रत्यंचा कसकर खींच लिया।। 
हे राजन् ! पार्थ अचंभित होकर,कौरव को देख हरि से बोले। 
स्वजनों को उन्मत्त देख समर में, विस्मित होकर मुंह खोले।।१।२०।। 
अर्जुन ने कहा- हे अच्युत! हे हरिनाथ! सखा ! मेरे हृदय के हे स्वामी! 
सैन्य-दलों के मध्य में रख लें, रथ को मेरे अन्तर्यामी ।।१।२१।‌। 
देख लूं मैं युद्धकामी, जिससे लड़ना है मुझे। 
समर-भूमि में सामना, किससे करना है मुझे ।।१।२२।। 
देख लूं मैं उन्हें पलक भर ,रण को उत्सुक हैं यहां। 
दुर्बुद्धे दुर्योधन के हित, मरने को हैं खड़े जहां।।१।२३।‌। 
भारत!गुडाकेश अर्जुन ने, जब हरि से ऐसे वचन कहे। 
सुनकर प्रभु उत्तम रथ लेकर, सैन्य-मध्य वे खड़े रहे।।१।२४।। 
भीष्म महीप द्रोण समक्ष, प्रभु ने ऐसे वचन कहे। 
देखो पार्थ इन वीरों को, कुरु-कुल के हैं नाम बड़े ।।१।२५।। 
वहां पार्थ ने रण में देखा, पितर पितामह खड़े हुए। 
गुरु मामा भाई पुत्र सब, पौत्र मित्र भी भरे हुए।। 
अनेक श्वसुर भी लड़ने आए, मरने को तैयार खड़े। 
हितचिंतक नहीं हटने वाले,यम से भी जो नहीं डरे।।१।।२६।।
अर्जुन ने जब देखा बांधव, सगे- सम्बन्धी खड़े रण में। 
बोला करुणा दया से घिर कर, शोक विकल बड़े मन में।।१।२७।।
रणोत्सुक देख इन बांधवों को, अंग शिथिल से, कृष्ण मेरे हो रहे हैं। 
मुख सूख रहे हैं, तन में मेरे रोमांच कंपन, अजब कैसे हो रहे हैं।।१।।२८-२९।।
गाण्डीव जैसे धनुष मेरे, हस्त गिरते, त्वचा मेरी जल रही है। 
मन भ्रमित-सा , असमर्थ स्थित, दशा अजब -सी हो रही है।।१।३०।। 
लक्षण विपरीत हैं दिखते, हे केशव! इसे पहचानता । 
स्वजनों को मारकर, नहीं कल्याण पूर्व ही जानता।।१।३१।। 
हे कृष्ण! विजय नहीं चाहता, न राज्य सुख की चाह है। 
जीवन राज्य भोग व्यर्थ हैं, ज्यों स्वजनों की आह है।।१।३२।। 
जिनके लिए मैं चाहता राज्य सुख और भोग को। 
प्राण धन की आस छोड़ें, रण में खड़े वे योग को।।१।३३।। 
पिता पुत्र और गुरु पितामह रणआंगन में खड़े। 
मामा ससुर और पौत्र सालें अन्य सम्बन्धी बड़े।।१।३४।।
हे नाथ! त्रिलोक के राज्य हित न मारता, मारें मुझे। 
मही सुख अति तुच्छ है, संघारना क्यों बिन बुझे।।१।३५।। 
हे जनार्दन! होगी खुशी क्या हमें धृतराष्ट्र सुतों को मारकर। 
क्या न होगा पाप अवश्य ही इन आततायियों को संहार कर ।।१।३६।। 
हे माधव!नहीं हम योग्य हैं, मारूं धार्तराष्ट्रों को यहाँ । 
स्वजनों को ही मारकर,हम होंगे सुखी माधव! कहाँ।।१।३७।। 
ये मित्र द्रोही लोभ के वश, कुल नाश करने को खड़े। 
मित्र द्रोह परम दोष है, कुलक्षयी को लगेंगे पाप बड़े।। 
हम जानते कुल नाश से , क्या दोष लगता है प्रभु! 
हमें ज्ञात है यह पाप है, बचें न क्यों हे अखिल विभू।।१।३८-३९।। 
कुल नष्ट होने पर कुलधर्म सनातन मिट जाता है। 
धर्म विनष्ट हुआ ज्यों ही तो पाप बहुत बढ़ जाता है।‌।१।४०।।
कुल नारी दुषित हो जाती हैं जब पाप बहुत बढ़ जाता है। 
वर्णसंकर उत्पन्न होते हैं ज्यों कृष्ण! पाप अति छाता है।।१।४१।।।। 
कुल और कुलघातियों को नरक देने को प्रभो! 
वर्णसंकर जन्म लेते इसी कारण हे अखिल विभो! 
वर्णसंकर से पितृगण श्राद्ध नहीं पा सकते हैं। 
तर्पणहीन हो ये पितृगण नरकवास पा जाते हैं।।१।४२।।
कुलधर्म सनातन मिट जाता है इन वर्णसंकर कारक दोष से। 
जाति-धर्म कहाँ टिक पाता है इन कुलघातियों के दोष से ।।१।४३।। 
कुलधर्म नष्ट हुआ जिनका,कृष्ण!नरक वे पाते हैं। 
सुना है नर नरकवास में अनंत काल रह जाते हैं।।१।४४।। 
ओह!घोर अचरज है कि हम प्रहार को उद्धत खड़े,
राज्य सुख हित स्वजनों के प्राण लेने को बढ़े । 
समझ भी है हमें पर कार्य यह अनुचित करें, 
स्वजनों को मारने से लगते हैं माधव! पाप बड़े ।।१।४५।। 
शस्त्रविहीन अप्रतीकारी भी हूँ, कौरव सशस्त्र भरे सारे। 
मरना भी श्रेयस्कर होगा, धार्तराष्ट्र यदि मुझे मारे।‌।१।४६।। 
संजय बोले – 
रणभूमि में उद्विग्न मन से अर्जुन ने धनु शर त्याग दिए। 
रथ आसन पर पीछे जा बैठे, रण लड़ने से वितराग किए।।१।४७।।
कृष्ण -अर्जुन संवाद रूप का प्रथम अध्याय यह पूर्ण हुआ।
योगशास्त्र में विषादयोग का यह सोपान परिपूर्ण हुआ।।
हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'
हिन्दी पद्यात्मक श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 2



रविवार, 25 फ़रवरी 2024

हिन्दी पद्यात्मक श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1 संपूर्ण

हिन्दी पद्यात्मक श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 1
धृतराष्ट्र बोले-
धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में, जुटे सब लड़ने को अहो। 
मेरे और पाण्डु सुतों ने, क्या किया संजय कहो।।१-१।।
संजय ने कहा- 
व्यूह रचना जब सैनिकों की, पाण्डवों ने कर लिया। 
देखकर राजा दुर्योधन, गुरु निकट जा विनती किया।।१।२।।
विशाल सेना पाण्डवों की, व्यूह-रचना हे गुरुवर देखिए । 
सजा है बुद्धि कला से , तव शिष्य द्रुपद-पुत ने है किए।।१।३।।
पाण्डु-दल में अनेक, अर्जुन भीम जैसे वीर हैं। 
महारथी युयुधान राजा, द्रुपद विराट रणवीर हैं।।१।४।। 
धृष्टकेतु चेकितान भी हैं, काशिराज जैसे वीर हैं। 
पुरुजित् कुन्तिभोज भी हैं, शैव्य तुल्य नरवीर हैं।।१।५।।
युधामन्यु पराक्रमी हैं, उत्तमौजा बलवीर हैं।
सुभद्रा और द्रौपदी के, सभी सुत रणवीर हैं।।१।६।।
हे द्विजश्रेष्ठ ! अपने समर के विशिष्ट योद्धा जान लें। 
सैन्य-संचालन निपुण हैं, कह रहा आप संज्ञान लें।‌‌।१।७।।
मेरे दल में आप भी हैं,भीष्म कृपा और कर्ण हैं। 
संग्राम भूमि में सदा विजयी, अश्वत्थ भूरि विकर्ण हैं।।१।८।। 
मरने को तैयार रण में, मेरे हित सब वीर हैं।
आयुधों से युक्त भी हैं, समर चतुर रणधीर हैं।।।।१।९।।
पितामहरक्षित कौरव बल है, अपनी सेना अजेय है। 
भीमरक्षित पाण्डु -दल हैं, सीमित सुगम वो जेय है।।१।१०।। 
सभी अयनों पर अडिग होकर, आप सभी संग्राम करें। 
पितामह को सहयोग करें, निश्चय ही अविराम करें ।।१।११।। 
प्रतापी पितामह भीष्मवर ने, शंख बजाया अति जोर से। 
शंख-ध्वनि सिंहनाद सुनकर, दुर्योधन खुश हैं शोर से ।।१।१२।। 
तभी शंख बिगुल मृदंग तुरही, नगाड़े श्रृंगी बज उठे। 
समवेत स्वर से गुंजी धरती, अतीव कोलाहल हुए।।१।१३।। 
श्वेत तुरंग से युक्त रथ पर,श्रीकृष्ण-अर्जुन प्रकट हुए। 
दोनों ने दिव्य शंख बजाये,तुमुल शब्द तब विकट हुए।।१।१४।। 
माधव ने अब पाञ्चजन्य को, देवदत्त को पार्थ बजा डाला। 
भीमकर्मा वृकोदर भीम ने, शंख पौण्ड्र बजाया मतवाला।।१।१५।‌। 
अनंतविजय की ध्वनि सुनाकर, युधिष्ठिर वर वीर उद्घोष किया। 
सुघोष-वो-मणिपुष्पक के संग, नकुल सहदेव जयघोष किया।।१।१६।। 
काशिराज पधारे परम धनुर्धर , शिखण्डी महारथी बलशाली। 
सात्यकि अजेय धृष्टद्युम्न विराट ने, किए शंखध्वनि नादोंवाली।।१।१७।‌। 
हे राजन्। राजा द्रुपद और द्रौपदी के पुत्र ने , अपने शंख बजाये हैं। 
इस रणभूमि में महाबाहु सुभद्रा पुत्र ने, पृथक् ही शंख बजाये हैं।।१‌।१८।। 
तुमुल वाद्य वो शंखध्वनि से, धरा गगन बीच शोर हुआ। 
फट गई छाती धार्तराष्ट्र के, भय अमिट कमजोर हुआ।।१।१९।। 
कपिध्वज सुशोभित दिव्य रथ से,धार्तराष्ट्र को देख लिया। 
वाण निकाले पार्थ हाथ में ,प्रत्यंचा कसकर खींच लिया।। 
हे राजन् ! पार्थ अचंभित होकर,कौरव को देख हरि से बोले। 
स्वजनों को उन्मत्त देख समर में, विस्मित होकर मुंह खोले।।१।२०।। 
अर्जुन ने कहा- हे अच्युत! हे हरिनाथ! सखा ! मेरे हृदय के हे स्वामी! 
सैन्य-दलों के मध्य में रख लें, रथ को मेरे अन्तर्यामी ।।१।२१।‌। 
देख लूं मैं युद्धकामी, जिससे लड़ना है मुझे। 
समर-भूमि में सामना, किससे करना है मुझे ।।१।२२।। 
देख लूं मैं उन्हें पलक भर ,रण को उत्सुक हैं यहां। 
दुर्बुद्धे दुर्योधन के हित, मरने को हैं खड़े जहां।।१।२३।‌। 
भारत!गुडाकेश अर्जुन ने, जब हरि से ऐसे वचन कहे। 
सुनकर प्रभु उत्तम रथ लेकर, सैन्य-मध्य वे खड़े रहे।।१।२४।। 
भीष्म महीप द्रोण समक्ष, प्रभु ने ऐसे वचन कहे। 
देखो पार्थ इन वीरों को, कुरु-कुल के हैं नाम बड़े ।।१।२५।। 
वहां पार्थ ने रण में देखा, पितर पितामह खड़े हुए। 
गुरु मामा भाई पुत्र सब, पौत्र मित्र भी भरे हुए।। 
अनेक श्वसुर भी लड़ने आए, मरने को तैयार खड़े। 
हितचिंतक नहीं हटने वाले,यम से भी जो नहीं डरे।।१।।२६।।
अर्जुन ने जब देखा बांधव, सगे- सम्बन्धी खड़े रण में। 
बोला करुणा दया से घिर कर, शोक विकल बड़े मन में।।१।२७।।
रणोत्सुक देख इन बांधवों को, अंग शिथिल से, कृष्ण मेरे हो रहे हैं। 
मुख सूख रहे हैं, तन में मेरे रोमांच कंपन, अजब कैसे हो रहे हैं।।१।।२८-२९।।
गाण्डीव जैसे धनुष मेरे, हस्त गिरते, त्वचा मेरी जल रही है। 
मन भ्रमित-सा , असमर्थ स्थित, दशा अजब -सी हो रही है।।१।३०।। 
लक्षण विपरीत हैं दिखते, हे केशव! इसे पहचानता । 
स्वजनों को मारकर, नहीं कल्याण पूर्व ही जानता।।१।३१।। 
हे कृष्ण! विजय नहीं चाहता, न राज्य सुख की चाह है। 
जीवन राज्य भोग व्यर्थ हैं, ज्यों स्वजनों की आह है।।१।३२।। 
जिनके लिए मैं चाहता राज्य सुख और भोग को। 
प्राण धन की आस छोड़ें, रण में खड़े वे योग को।।१।३३।। 
पिता पुत्र और गुरु पितामह रणआंगन में खड़े। 
मामा ससुर और पौत्र सालें अन्य सम्बन्धी बड़े।।१।३४।।
हे नाथ! त्रिलोक के राज्य हित न मारता, मारें मुझे। 
मही सुख अति तुच्छ है, संघारना क्यों बिन बुझे।।१।३५।। 
हे जनार्दन! होगी खुशी क्या हमें धृतराष्ट्र सुतों को मारकर। 
क्या न होगा पाप अवश्य ही इन आततायियों को संहार कर ।।१।३६।। 
हे माधव!नहीं हम योग्य हैं, मारूं धार्तराष्ट्रों को यहाँ । 
स्वजनों को ही मारकर,हम होंगे सुखी माधव! कहाँ।।१।३७।। 
ये मित्र द्रोही लोभ के वश, कुल नाश करने को खड़े। 
मित्र द्रोह परम दोष है, कुलक्षयी को लगेंगे पाप बड़े।। 
हम जानते कुल नाश से , क्या दोष लगता है प्रभु! 
हमें ज्ञात है यह पाप है, बचें न क्यों हे अखिल विभू।।१।३८-३९।। 
कुल नष्ट होने पर कुलधर्म सनातन मिट जाता है। 
धर्म विनष्ट हुआ ज्यों ही तो पाप बहुत बढ़ जाता है।‌।१।४०।।
कुल नारी दुषित हो जाती हैं जब पाप बहुत बढ़ जाता है। 
वर्णसंकर उत्पन्न होते हैं ज्यों कृष्ण! पाप अति छाता है।।१।४१।।।। 
कुल और कुलघातियों को नरक देने को प्रभो! 
वर्णसंकर जन्म लेते इसी कारण हे अखिल विभो! 
वर्णसंकर से पितृगण श्राद्ध नहीं पा सकते हैं। 
तर्पणहीन हो ये पितृगण नरकवास पा जाते हैं।।१।४२।।
कुलधर्म सनातन मिट जाता है इन वर्णसंकर कारक दोष से। 
जाति-धर्म कहाँ टिक पाता है इन कुलघातियों के दोष से ।।१।४३।। 
कुलधर्म नष्ट हुआ जिनका,कृष्ण!नरक वे पाते हैं। 
सुना है नर नरकवास में अनंत काल रह जाते हैं।।१।४४।। 
ओह!घोर अचरज है कि हम प्रहार को उद्धत खड़े,
राज्य सुख हित स्वजनों के प्राण लेने को बढ़े । 
समझ भी है हमें पर कार्य यह अनुचित करें, 
स्वजनों को मारने से लगते हैं माधव! पाप बड़े ।।१।४५।। 
शस्त्रविहीन अप्रतीकारी भी हूँ, कौरव सशस्त्र भरे सारे। 
मरना भी श्रेयस्कर होगा, धार्तराष्ट्र यदि मुझे मारे।‌।१।४६।। 
संजय बोले – 
रणभूमि में उद्विग्न मन से अर्जुन ने धनु शर त्याग दिए। 
रथ आसन पर पीछे जा बैठे, रण लड़ने से वितराग किए।।१।४७।।
कृष्ण -अर्जुन संवाद रूप का प्रथम अध्याय यह पूर्ण हुआ।
योगशास्त्र में विषादयोग का यह सोपान परिपूर्ण हुआ।।
हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 047-01-047(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

संजय उवाच – 
एवमुक्त्वार्जुन: संख्ये रथोपस्थ उपाविशत् । 
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानस: ।।१।४७।।
एवम् = इस प्रकार;उक्त्वा =कहकर; अर्जुन: =अर्जुन; (एवमुक्त्वार्जुन: =एवम्+उक्त्वा+अर्जुन;संख्ये= रणभूमि में; (रथोपस्थ=रथ+उपस्थ);रथ = रथ के; उपस्थ=पिछले भाग में (आसन पर);उपाविशत् = बैठ गया;विसृज्य = त्यागकर; सशरम् = बाणसहित; चापम् =धनुष को; शोकसंविग्नमानस: = शोक से उद्विग्न मन वाला।
संजय -बोले 
रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाला अर्जुन इस प्रकार कहकर वाण सहित धनुष को त्यागकर रथ के आसन पर बैठ गया ।।१।४७।।
संजय बोले – 
रणभूमि में उद्विग्न मन से अर्जुन ने धनु शर त्याग दिए। 
रथ आसन पर पीछे जा बैठे, रण लड़ने से वितराग किए।।१।४७।।
हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 046-01-046(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणय: । 
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ।।१।४६।।
यदि = यदि; (मामप्रतीकारमशस्त्रं =माम्+अप्रतीकारम् +अशस्त्रम्); माम्=मुझे; अप्रतीकारम् = न सामना करने वाले को;अशस्त्रम् = शस्त्ररहित: शस्त्रपाणय: = शस्त्रधारी; धार्तराष्ट्रा: =धृतराष्ट्र के पुत्र; रणे = रण में;(हन्युस्तन्मे=हन्यु:+तत्+मे); हन्यु: = मारें; तत् =वह; मे = मेरे ; क्षेमतरम् = अतिकल्याण कारक; भवेत् = होगा; 
यदि मुझ शस्त्ररहित एवं सामना न करने वाले को शस्त्रधारी धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डालें तो वह मारना भी मेरे लिये अधिक कल्याणकारक ही होगा ।।१।४६।।शस्त्रविहीन अप्रतीकारी भी हूँ, कौरव सशस्त्र भरे सारे। 
मरना भी श्रेयस्कर होगा, धृतराष्ट्र तनय यदि मुझे मारे।‌।१।४६।।
हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 045-01-045(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यता: ।।१।४५।।
अहो = ओह; बत = कितना आश्चर्य है; महत्पापम् = महान् पाप; कर्तुम् = करने को; व्यवसिता: = तैयार हुए हैं;वयम् = हम लोग; (यद्राज्यसुखलोभेन = यत्+राज्यसुखलोभेन); यत् = जो कि; राज्यसुखलोभेन =राज्य और सुख के लोभ से; हन्तुम् = मारने के लिये; स्वजनम् = अपने कुल को; उद्यता: = उद्यत हुए हैं।
ओह ! कितना आश्चर्य है कि हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान् पाप करने को तैयार हो गये हैं, जो राज्य तथा सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिये उद्यत हो गये हैं ।।१।४५।।
ओह!घोर अचरज है कि हम प्रहार को उद्धत खड़ें,
राज्य सुख हित स्वजनों के प्राण लेने को बढ़ें ।
समझ भी है हमें पर कार्य यह अनुचित करें ?
स्वजनों को मारने से लगता हे माधव पाप बड़े ।।१।४५।।
हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 044-01-044(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ।।१।४४।।
उत्सन्नकुलधर्माणाम् = नष्ट हुए कुलधर्म वाले; मनुष्याणाम् = मनुष्यों का; जनार्दन =श्री कृष्ण; नरके = नरक में;अनियतम् = अनन्त कालतक; वास: = वास; (भवतीत्यनुशुश्रुम=भवति+इति+अनुशुश्रुम्); भवति = होता है; इति=इस प्रकार; अनुशुश्रुम =सुना है।
हे जनार्दन ! जिनका कुल-धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चित काल तक नरक में वास होता है, इस प्रकार हम सुनते आये हैं ।।१।४४।।
कुलधर्म नष्ट हुआ जिनका,कृष्ण!नरक वे पाते हैं।
सुना है नर नरकवास में अनंत काल रह जाते हैं।।१।४४।।
हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 043-01-043(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

दोषैरेतै: कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकै:। 
उत्साद्यन्ते जातिधर्मा: कुलधर्माश्च शाश्वता: ।।१।४३।।
(दोषैरेतै: =दोषै:+ एतै); दोषै: =दोषों से; एतै: = इन; कुलघ्नानाम् = कुल घातियों के; वर्णसंकरकारकै: = वर्णसंकरकारक; उत्साद्यन्ते = नष्ट हो जातेहैं;जातिधर्मा: = जातिधर्म; (कुलधर्माश्च =कुलधर्म:+च); कुलधर्म: =कुलधर्म; च = और; शाश्वता: = सनातन।
इन वर्णसंकरकारक दोषों के कारण कुलघातियों के सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं ।।१।४३।।कुलधर्म सनातन मिट जाता है इन वर्णसंकर कारक दोष से। 
जाति-धर्म कहाँ टिक पाता है इन कुलघातियों के दोष से ।।१।४३।।

हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 042-01-042(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च । 
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रिया: ।।१।४२।।
संकर: = वर्णसंकर; च =और; कुलस्य = कुल को; (नरकायैव =निकाय+एव); नरकाय = नरक में ले जाने के लिये; एव = ही; कुलघ्रानाम् = कुल घातियों को;कुलस्य = कुल का; च =और;पतन्ति =गिर जाते हैं;पितर: = पितरलोग; (ह्येषां =हि+एषाम् ); हि = भी; एषाम् = इनके; लुप्तपिण्डोदकक्रिया: = लोप हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले।
वर्णसंकर कुलघातियों को तथा कुल को नरक में ले जाने के लिये ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले अर्थात् श्राद्ध और तर्पण से वंचित इनके पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं ।।१।४२।।
कुल और कुलघातियों को नरक देने को प्रभो!
वर्णसंकर जन्म लेते इसी कारण हे अखिल विभो!
वर्णसंकर से पितृगण श्राद्ध नहीं पा सकते हैं।
तर्पणहीन हो ये पितृगण नरकवास पा जाते हैं।।१।४२।।
हरि ॐ तत्सत्।
श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 041-01-041(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रिय:।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकर: ।।१।४१।।(अधर्माभिभवात्कृष्ण=अधर्म+अभिभवात्+कृष्ण); अधर्म =पाप;अभिभवात् = अधिक बढ़ जाने से; प्रदुष्यन्ति = दूषित हो जाती हैं; कुलस्त्रिय: = कुल की स्त्रियां; स्त्रीषु = स्त्रियों के; दुष्टासु = दूषित होने पर; वार्ष्णेय =हे वृष्णिवंशी (श्री कृष्ण); जायते = उत्पन्न होता है; वर्णसंकर: = वर्णसंकर ।
हे श्रीकृष्ण! पाप के अधिक बढ जाने से कुल की स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर उत्पन्न होते हैं।।१।४१।।
कुल नारी दुषित हो जाती हैं जब पाप बहुत बढ़ जाता है।
वर्णसंकर उत्पन्न होते हैं ज्यों कृष्ण! पाप अति छाता है।।१।४१।।
हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 040-01-040(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्मा: सनातना:। 
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ।।१।४०।। 
कुलक्षये =कुल के नाश होने से; प्रणश्यन्ति = नष्ट हो जाते हैं; कुलधर्मा: = कुलधर्म; सनातना: = सनातन; धर्मे नष्टे = धर्म के नाश होने से;कुलं = कुल; (कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत = कृत्स्नम्+अधर्म:+अभिभवति+उत) कृत्स्नम् = संपूर्ण; अधर्म: = पाप; अभिभवति = बहुत बढ़ जाता है;उत = भी । 
कुल के नाश हो जाने से सनातन कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्म के नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत बढ़ जाता है ।।१।४०।
कुल नष्ट होने पर कुलधर्म सनातन मिट जाता है। 
धर्म विनष्ट हुआ ज्यों ही तो पाप बहुत बढ़ जाता है।‌।१।४०।।

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 038/039-01-038/039(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतस: ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ।।१।३८।।
कथं न ज्ञेयमस्माभि: पापादस्मान्निवर्तितुम् ।कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ।।१।३९।।
(यद्यप्येते = यदि+अपि+ते); यदि = यदि; अपि = भी; एते = ये; न = नहीं; पश्यन्ती = देखते हैं; (लोभोपहतचेतस: = लोभ+उपहत+चेतस: ); लोभ =लोभ; उपहत= अभिभूत; चेतस: = चित्त वाले; (कुलक्षयकृतम् = कुल +क्षय +कृतम्); कुल = कुल; क्षय = नाश; कृतम् = किया हुआ;
दोषम् = दोष को; मित्रद्रोहे = मित्रों के साथ विरोध करने में; पातकम् = पापको;कथम् = क्यों; न =नहीं; ( ज्ञेयमस्माभि: = ज्ञेयम्+अस्माभि: ); ज्ञेयम् = विचार करना चाहिए; अस्माभि: = हम लोगों को;( पापादस्मान्निवर्तितुम् =पापात् +अस्मान्+निवर्तितुम् ); पापात् =पाप से; अस्मान् = हमलोगों को; निवर्तितुम् = बचने के लिये; कुलक्षयकृतम् = कुल के नाश करने से किए गए; दोषम् = दोष ( प्रपश्यद्भिर्जनार्दन = प्रपश्यद्भि:+ जनार्दन); प्रपश्यभ्दि: = जानने वालों के द्वारा; जनार्दन = हे जनार्दन (श्री कृष्ण)!
यद्यपि लोभ से अभिभूत होकर ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों के साथ विरोध करने में किए गए पाप को नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन ! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से बचने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए ।।१।३८-३९।।
ये मित्र द्रोही लोभ के वश, कुल नाश करने को खड़े।
मित्र द्रोह परम दोष है, कुलक्षयी को लगेंगे पाप बड़े।।
हम जानते कुल नाश से , क्या दोष लगता है प्रभु!
हमें ज्ञात है यह पाप है, बचें न क्यों हे अखिल विभू।।१।३८-३९।।
हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 037-01-037(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिन: स्याम माधव ।।१।३७।।
( तस्मान्नार्हा =तस्मात्+न+आर्हा );तस्मात् = इससे; न अर्हा: = योग्य नहीं हैं; वयम् =हम ; हन्तुम् = मारने के लिये; (धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् = धार्तराष्ट्रान् +स्वबान्धवान् ); धार्तराष्ट्रान् =धृतराष्ट्र के पुत्रों को; स्वबान्धवान् = अपने बंधुओं; स्वजनम् = अपने कुटुम्बको; हि =क्योंकि; कथम् = कैसे; हत्वा = मारकर; सुखिन: = सुखी; स्याम =होंगे; माधव =हे माधव ।
अतएव हे माधव! अपने ही बन्धु धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिये हम योग्य नहीं हैं, क्योंकि अपने ही बन्धुओं को मारकर हम कैसे सुखी होंगे ? ।।१।३७।।
हे माधव!नहीं हम योग्य हैं, मारूं धार्तराष्ट्रों को यहाँ ।
स्वजनों को ही मारकर,हम होंगे सुखी माधव! कहाँ।।१।३७।।
हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 036-01-036(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

निहत्य धार्तराष्ट्रान्न: का प्रीतिस्याज्जनार्दन ।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिन: ।१।३६।।
निहत्य = मारकर (भी);( धार्तराष्ट्रान्न: = धार्तराष्ट्रान् +न: ) धार्तराष्ट्रान् = धृतराष्ट्र के पुत्रों के;न: = हमें; का =क्या; ( प्रीतिस्याज्जनार्दन = प्रीति:+स्यात्+जनार्दन,)प्रीति: = प्रसन्नता; स्यात् = होगी; जनार्दन: = जनों के दी:ख हरने वाले; (पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिन: = पापम्+एव+आश्रयेत्+अस्मान्+हत्वा+एतान् आततायिन: ); पापम् = पाप; एव = ही; आश्रयेत् =लगेगा; अस्मान् = हमें; हत्वा = मारकर; एतान् = इन; आततायिन: = आततायियों को ।
हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा ।।१।३६।।
हे जनार्दन! होगी खुशी क्या हमें धृतराष्ट्र सुतों को मारकर।
क्या न होगा पाप अवश्य ही इन आततायियों को संहार कर ।।१।३६।।
हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

शनिवार, 24 फ़रवरी 2024

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 033/034/035-01-033/034/035(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगा: सुखानि च ।
ते इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ।।१।३३।।
आचार्या: पितर: पुत्रास्तथैव च पितामहा: ।
मातुला: श्वशुरा: पौत्रा श्याला: सम्बंधिनस्तथा ।।१।३४।।
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतो: किं नु महीकृते।।१।३५।।
(येषामर्थे = येषाम्+अर्थे); येषाम् = जिनके; अर्थे = लिये; काॾ.क्षितम् = इच्छित हैं; न:=हमारा;राज्यम्=राज्य; भोगा: = भोग; सुखानि = सुख; च = और; ते = वे (ही); इमे = यह सब; अवस्थिता: = खड़े हैं; युद्धे = युद्ध में;(प्राणांस्त्यक्त्वा =प्राणान् +त्यक्त्वा); प्राणान् = जीवन (की आशा) को; त्यक्त्वा =त्यागकर; धनानि = धन; आचार्या: = गुरुजन; पितर: = पितृगण; पुत्रा: = पुत्रगण; (पुत्रास्तथैव = पुत्रा:+तथा+एव); पुत्रा: = पुत्र; तथा = वैसे; एव = निश्चय ही; च = भी; पितामहा: = दादा; मातुला: = मामा; श्वशुरा: = ससुर; पौत्रा: = पोते;श्याला:=साले;(सम्बंधिनस्तथा = सम्बंधिन:+तथा); सम्बन्धिन: = सम्बन्धी लोग; तथा = और; एतान् =इन सबको; न: = हमारा (एतान्न = एतान्+न); हन्तुम् =मारना; इच्छामि = चाहता हूँ;(हन्तुमिच्छामि = हन्तुम्+ इच्छामि): (घ्नतोपि=घ्नत:+अपि); घ्नत:; = मारे जाने पर; अपि = भी; मधुसूदन = मधु राक्षस को मारनेवाले श्री कृष्ण!, त्रैलोक्यराज्यस्य = तीनों लोकों के राज्य के; हेतो: = के लिए; महीकृते = पृथिवी के लिये ; नु किम् = कहना ही क्या है।
हम जिनके लिये राज्य, भोग और सुख चाहते हैं, वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्याग कर युद्ध में खड़े हैं ।।१‌।३३।।।
गुरुजन, पितृगण, पुत्रगण,और उसी प्रकार पितामह, मामा लोग, ससुर, पौत्र, सालें तथा अन्य भी सम्बन्धी लोग हैं ।।१।३४।
हे मधुसूदन! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिये भी मै इन सबको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिये तो कहना ही क्या है ? ।।१।३५।।
जिनके लिए मैं चाहता राज्य सुख और भोग को।
प्राण धन की आस छोड़ें, रण में खड़े वे योग को।।१।३३।।
पिता पुत्र और गुरु पितामह रण-आंगन में खड़े।
मामा ससुर और पौत्र सालें अन्य सम्बन्धी बड़े।।१।३४।।
हे नाथ! त्रिलोक के राज्य हित न मारता, मारें मुझे।
मही सुख अति तुच्छ है, संघारना क्यों बिन बुझे।।१।३५।।
हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 032-01-032(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)


न काड्.क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ।।१।३२।।
न = नहीं; काड्.क्षे = चाहता हूँ; विजयम् = विजय को; कृष्ण = हे कृष्ण; च = और; राज्यम् = राज्य; सुखानि =सुखों को; गोविन्द = हे गोविन्द; न: = हमें; राज्येन = राज्य से; किम् = क्या ; भोगै: = भोगों से; जीवितेन =जीवन से; किम् = क्या; वा = अथवा।
हे कृष्ण! न तो मैं विजय चाहता हूँ और न ही राज्य तथा सुखों को ही। हे गोविन्द ! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है? ।।१।३२।।
हे कृष्ण! विजय नहीं चाहता, न राज्य सुख की चाह है।
जीवन राज्य भोग व्यर्थ हैं, ज्यों स्वजनों की आह है।।१।३२।।
हरि ॐ तत्सत् ‌।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2024

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 031-01-031(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ।।१।३१।।
निमित्तानि = लक्षणों को; च = और,भी; पश्यामि =देखता हूं; विपरीतानि = विपरीत; केशव = हे कृष्ण (हे केशी असुर को मारने वाले);न = नहीं; च = भी; और; (श्रेयोऽनुपश्यामि = श्रेय: + अनुपश्यामि); श्रेय: = कल्याण ; अनुपश्यामि = पहले से देख रहा हूंँ ; हत्वा = मारकर; स्वजनम् = अपने सगे-संबंधियों को; आहवे = युद्व में; ।
हे केशव ! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में अपने सगे-संबंधियों को मारकर कल्याण भी पहले से ही नहीं देख पा रहा हूँ।।१।३१।।
लक्षण विपरीत हैं दिखते, हे केशव! इसे पहचानता ।
स्वजनों को मारकर, नहीं कल्याण पूर्व ही जानता।।१।३१।।
हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 030-01-030(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

 
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मन: ।।१।।३०।।
गाण्डीवम् = गाण्डीव धनुष; स्रंसते =गिरता है; (हस्तात्त्वक्चैव =हस्तात्+त्वक्+च+एवं); हस्तात् = हाथ से ; च =और; त्वक् = त्वचा; एव =भी; परिदह्यते = बहुत जलती है; न=नहीं ;च=और ; ( शक्नोम्यवस्थातुम् = शक्नोमि +अवस्थातुम् ) ; शक्नोमि = समर्थ ;अवस्थातुम् = खड़ा रहने को; भ्रमति इव =भ्रमित सा हो रहा है; में=मेरा; मन: = मन ।
हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है, इसलिये मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूँ ।।१।।३०।।
गाण्डीव जैसे धनुष मेरे, हस्त गिरते, त्वचा मेरी जल रही है।
मन भ्रमित-सा , असमर्थ स्थित, दशा अजब -सी हो रही है।।१।३०।।
हरि ॐ तत्सत्।
श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

मंगलवार, 20 फ़रवरी 2024

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 028/029-01-028/029(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

अर्जुन उवाच -
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्णं युयुत्सुं समुपस्थितम् ।।१।२८।। 
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति । 
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ।।१।२९।।
कृष्ण =हे कृष्ण; इमम् =इस; युयुत्सुम् = युद्व की इच्छा वाले; समुपस्थितम् =खड़े हुए; स्वजनम् = स्वजन समुदाय को; द्रष्टा= देखकर; मम = मेरे; गात्राणि =अंग; सीदन्ति = शिथिल हुए जाते हैं; च = और; मुखम् =मुख (भी); परिशुष्यति = सूखा जाता है; च = और; मे = मेरे; शरीरे =शरीर में; वेपथु: =कम्प; च = तथा; रोमहर्ष: =रोमांच; जायते = होता है।अर्जुन बोले- हे कृष्ण ! युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजन समुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कम्पन एवं रोमांच हो रहा है ।।१।।२८ -२९।।
रणोत्सुक देख इन बांधवों को ,अंग शिथिल से, कृष्ण मेरे हो रहे हैं। 
मुख सूख रहे हैं, तन में मेरे रोमांच कंपन ,अजब कैसे हो रहे हैं।।१।।२८-२९।।
हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 027-01-027(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

तत्रापश्यत्स्थितान्‌ पार्थः पितॄनथ पितामहान्‌ ।
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् ।।१।२७।।
तान् = उन्हें ; समीक्ष्य = देखकर ; स: = वह ; कौन्तेय: = कुन्ती का पुत्र (अर्जुन) ; (सर्वान्बन्धूनवस्थितान् = सर्वान्+बन्धून्+अवस्थितान्) ; सर्वान् = सभी को ; बन्धून् = संबन्धियों को ; अवस्थितान् = स्थित ; कृपया = दया (करुणा)से ; परया = अत्यधिक ; आविष्ट: = घिर गया ;(परयाविष्टो = परया + आविष्टो) ; ( विषीदन्निदमब्रवीत् = विषीदन्+इदम्+अब्रवीत् ) ; विषीदन् = शोक करता हुआ ; इदम् = यह ; अब्रवीत् = बोला ।
कुन्तीपुत्र अर्जुन ने जब अपने सभी संबन्धियों को वहां इस प्रकार स्थित देखा तो वह दया और करुणा से घिर गया और शोक करते हुए इस प्रकार बोला।
अर्जुन ने जब देखा बांधव, सगे- सम्बन्धी खड़े रण में।
बोला करुणा दया से घिर कर, शोक विकल बड़े मन में।।
१।२७।।

तान्समीक्ष्य स कौन्तेय सर्वान्बन्धूनवस्थितान्।

हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'



श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 026-01-026(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ॥
श्वशुरान्‌ सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।।१।२६।।(तत्रापश्यत्स्थितान्‌ = तत्र+अपश्यत्+स्थितान् ) ; तत्र = वहां ; अपश्यत् = देखा ; स्थितान् = खड़े ; पार्थ: = अर्जुन ; पितॄनथ् = पितरों को(चाचा, ताऊ आदि) ; पितामहान् = पितामहों को ; आचार्यान् = गुरुओं को ; मातुलान् = मामाओं को ; भ्रातृन् = भाइयों को ; पुत्रान् = पुत्रों को ; पौत्रान् = पोतों को ; सखीं = मित्रों को ; तथा = और ; श्वशुरान् = ससुरों को ; ( सुहृदश्चैव = सुहृद:+च+एव ) ; सुहृद: = शुभचिंतकों को ; च = और ; एव = निश्चय ही ; सेनयो: = दोनों सेनाओं के ; उभयो: = दोनों पक्षों के ; अपि = भी ।
वहां पार्थ ने अनेक पितरों (चाचा, ताऊ आदि), पितामहों,गुरुओं, मामाओं, भाइयों,पुत्रों, पौत्रों, मित्रों, श्वसुरों और शुभचिंतकों को युद्धभूमि में दोनों पक्षों की सेनाओं में युद्ध करने हेतु एकत्रित देखा।।१।२६।।
वहां पार्थ ने रण में देखा, पितर पितामह खड़े बड़े।
गुरु मामा भाई पुत्र सब, पौत्र मित्र भी भरे हुए।।
अनेक श्वसुर भी लड़ने आए, मरने को तैयार खड़े।
हितचिंतक नहीं हटने वाले,यम से भी जो नहीं डरे।।१।।२६।।
हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'





सोमवार, 19 फ़रवरी 2024

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 025-01-025(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्।
उवाच पार्थपश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति।।१।२५।।
भीष्म: =भीष्म पितामह ; द्रोण = द्रोणाचार्य ; प्रमुखत: = सामने,समक्ष ; सर्वेषां = सबों के ; च =और ; महीक्षिताम् = संपूर्ण धरती (राजा) के राजा ; उवाच = कहा ; पार्थ = अर्जुन (पृथा का पुत्र) ; (पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति = पश्य+एतान्+समवेतान्+कुरून्+इति) ; पश्य = देखो ; एतान् = इन सबों को ; समवेतान् = एकत्रित ; कुरून् = कुरुवंशियों को ; इति = इस प्रकार ।पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य और समस्त संसार के राजाओं के समक्ष भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार कहा कि हे पार्थ! यहां एकत्रित इन कुरुवंशियों को देखो‌।।१।२५।।
भीष्म महीप द्रोण समक्ष, प्रभु ने ऐसे वचन कहे।
देखो पार्थ इन वीरों को, कुरु-कुल के हैं नाम बड़े ।।१।२५।।
हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'




श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 024-01-024(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

संजय उवाच
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्।।१।२४।।
संजय: = संजय ने ; उवाच = कहा ; (एवमुक्त: = एवम्+उक्त:) ; एवम् = इस प्रकार ; उक्त: = कहे गए ; हृषीकेश: = अन्तर्यामी भगवान श्रीकृष्ण ; गुडाकेशेन = गुडाकेश के द्वारा (नींद पर विजय प्राप्त करने वाला अथवा घुंघराले बालों वाला गुडाकेश कहलाता है। अर्जुन में ये दोनों गुण थे।) ; भारत = हे भरतवंशी! (धृतराष्ट्र के लिए प्रयुक्त किया गया है) ; (सेनयोरुभयोर्मध्ये = सेनयो:+उभयो:+मध्ये) ; सेनयो: = दोनों सेनाओं के ; उभयो: = दोनों ; मध्ये = बीच में ; स्थापयित्वा = रोककर ; (रथोत्तमम् = रथ: + उत्तमम्) ; रथ: = रथ ; उत्तमम् = उत्तम ।
संजय ने कहा-
हे भरतवंशी! (धृतराष्ट्र) गुडाकेश अर्जुन के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर अन्तर्यामी भगवान श्रीकृष्ण ने उस उत्तम रथ को दोनों सेनाओं के मध्य में लाकर खड़ा कर दिया।।१।२४।।
भारत!गुडाकेश अर्जुन ने, जब हरि से ऐसे वचन कहे।
सुनकर प्रभु उत्तम रथ लेकर, सैन्य-मध्य वे खड़े रहे।।१।२४।।
हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'





श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 023-01-023(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः।।१।२३।‌।
( योत्स्यमानानवेक्षेऽहं = योत्स्यमानान् + अवेक्षे + अहम् )
योत्स्यमानान् = युद्ध करने वाले को; = देख लूं ; अहम् = मैं; य: = जो; (एतेऽत्र = एते+अत्र); एते=वे; अत्र=यहां; समागता:=एकत्रित; धार्तराष्ट्रस्य=धृतराष्ट्र के पुत्रों के; (दुर्बुद्धेर्युद्धे = दुर्बुद्धे:+युद्धे); दुर्बुद्धे: = दुर्बुद्धि; युद्धे = युद्ध में; प्रिय = भला, मंगल; चिकीर्षवः = चाहने वाले।
मुझे उन लोगों को देख लेने दीजिए जो धृतराष्ट्र के दुर्बुद्धि-पुत्र दुर्योधन को प्रसन्न करने हेतु इस रणभूमि में एकत्रित हुए हैं।।१।२३।।
देख लूं मैं उन्हें पलक भर ,रण को उत्सुक हैं यहां।
दुर्बुद्धे दुर्योधन के हित, मरने को हैं खड़े जहां।।१।२३।‌।
हरि ॐ तत्सत्।
श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'




श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 022-01-022(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)


यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे।।१।२२।।
( यावदेतान्निरीक्षेऽहं = यावत् + एतान् + निरीक्षे + अहम् ) ; यावत् = जब तक ; एतान् =इन्हें ; निरीक्षे = देख लूं ; = मैं ; ( योद्धुकामानवस्थितान् = योद्धुकामान् + अवस्थितान् ) ; योद्धुकामान् = युद्ध की इच्छा रखने वाले को : अवस्थितान् = युद्ध भूमि में एकत्रित ; 
( कैर्मया = कै: + मया ) ; कै: = किन-किन लोगों से ; मया = मेरे द्वारा ; सह = साथ 
( योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे = योद्धव्यम् + अस्मिन् + रण + समुद्यमे ) ; योद्धव्यम् = युद्ध किया जाना ; अस्मिन् = इस ; रण = संग्राम, युद्ध ; समुद्यमे = प्रयास में। 
जब तक मैं युद्ध-भूमि में एकत्रित युद्ध की इच्छा रखने वाले इन लोगों को देख लूं कि मेरे द्वारा किन-किन लोगों के साथ संग्राम में युद्ध किया जाना है।।१।२२।।
देख लूं मैं युद्धकामी, जिससे लड़ना है मुझे। 
समर-भूमि में सामना, किससे करना है मुझे ।।१।२२।।
 हरि ॐ तत्सत्।



- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

रविवार, 18 फ़रवरी 2024

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 020/021-01-020/021(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

अथव्यवस्थितान्दृष्ट्वा
धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः।
प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः।।
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।।१।२०।।
अर्जुन उवाच-
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत।।१।२१।।
अथ = तत्पश्चात् ; व्यवस्थितान् = स्थित ; दृष्ट्वा = देखकर ; धार्तराष्ट्रान् = धृतराष्ट्र के पुत्रों को ; कपिध्वजः = जिसकी ध्वजा पर हनुमान सुशोभित हैं ; प्रवृत्ते = उद्धत, कटिबद्ध ; शस्त्रसंपाते = शस्त्र चलाने को ; (धनुरुद्यम्य = धनु: + उद्यम्य) ; धनु: = धनुष ; उद्यम्य = लेकर ; पाण्डव: = पाण्डु-पुत्र(अर्जुन) ; हृषीकेशं = अन्तर्यामी भगवान श्रीकृष्ण को ; तदा = उस समय ; ( वाक्यमिदमाह = वाक्यम् + इदम् + आह ) ; वाक्यम् = वचन ; इदम् = यह ; आह = कहा ; महीपते = हे राजन्! ; अर्जुन उवाच = अर्जुन ने कहा ; ( सेनयोरुभयोर्मध्ये = सेनयो: + उभयो: +मध्ये ) ; सेनयो: = सेनाओं के ; उभयो: = दोनों पक्षों के ; मध्ये = बीच में ; रथं = रथ को ; स्थापय = स्थित करें ; मे = मेरे; अच्युत = हे अच्युत!
तत्पश्चात् हनुमान चिह्न से सुसज्जित ध्वजा वाले रथ पर आरूढ़ होकर पाण्डु-पुत्र अर्जुन हाथों में धनुष लेकर वाण चलाने को उद्धत हुए। व्युह में धृतराष्ट्र के पुत्रों को युद्ध के लिए खड़े देखकर, हे राजन् !उन्होंने हृषीकेश भगवान श्रीकृष्ण से ये वचन कहे ।
अर्जुन ने कहा-
हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के मध्य स्थित करें।।१।२०-२१।।
कपिध्वज सुशोभित दिव्य रथ से,धार्तराष्ट्र को देख लिया।
वाण निकाले पार्थ हाथ में ,प्रत्यंचा कसकर खींच लिया।।
हे राजन् ! पार्थ अचंभित होकर,कौरव को देख हरि से बोले।
स्वजनों को उन्मत्त देख समर में, विस्मित होकर मुंह खोले।।१।२०।।
अर्जुन ने कहा-
हे अच्युत! हे हरिनाथ! सखा ! मेरे हृदय के हे स्वामी!
सैन्य-दलों के मध्य में रख लें, रथ को मेरे अन्तर्यामी ।।१।२१।‌।
हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'




शनिवार, 17 फ़रवरी 2024

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 019-01-019(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)


स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलोऽभ्यनुनादयन्।।१।१९।।
स: = वह(उस) ; घोष: = शब्द ; धार्तराष्ट्राणां = धृतराष्ट्र के पुत्रों के ; हृदयानि = हृदय को ; व्यदारयत् = विदीर्ण कर दिया ; ( नभश्च = नमः + च ) ; नभ: = आकाश ; पृथिवीं = धरती ; (चैव = च + एव ) ; च = और ; एव = निश्चय ही ; तुमुल: = कोलाहलपूर्ण ; अभ्यनुनादयन् = प्रति ध्वनित करता हुआ।
उन सभी की ध्वनि मिलकर कोलाहलपूर्ण बन गई जो आकाश और धरती को प्रतिध्वनित करते हुए धृतराष्ट्र के पुत्रों के हृदय को विदीर्ण कर दिया, अर्थात् उनमें भय उत्पन्न कर दिया।।१।१९।।
तुमुल वाद्य वो शंखध्वनि से, धरा गगन बीच शोर हुआ।
फट गई छाती धार्तराष्ट्र के, भय अमिट कमजोर हुआ।।१।१९।।
हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'





श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 016/017/018-01-016/017/018(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

 
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ।।१।१६।।
काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः।।१।१७।।
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते।
सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक्।।१।१८।।
अनंतविजयं = अनंतविजय नामक शंख को ( युधिष्ठिर के शंख का नाम ) ; कुन्तीपुत्र: = कुन्तीपुत्र ; युधिष्ठिर : = युधिष्ठिर ; नकुल: = नकुल ; ( सहदेवश्च = सहदेव: + च ) ; सहदेव: = सहदेव ; च = और ; सुघोष: = सुघोष नामक शंख ( नकुल के शंख का नाम ) ; मणिपुष्पक: = मणिपुष्पक नामक शंख ( सहदेव के शंख का नाम ) ;( काश्यश्च = काश्य: + च ) ; काश्य: = काशी के राजा ; च = और ; ( परमेष्वास: = परम + इषु + आस: ) ; परमेष्वास: = महान् धनुर्धर ; शिखण्डी = शिखण्डी ; महारथ: = महान् योद्धा ; धृष्टद्युम्न: = धृष्टद्युम्न ( राजा द्रुपद का पुत्र ) ; ( विराटश्च = विराट: + च ) ; विराट = राजा विराट ;
( सात्यकिश्चापराजितः = सात्यकि: + च + अपराजित: )सात्यकि: = सात्यकि ( भगवान श्रीकृष्ण के साथी ) ; अपराजित: = सदा विजयी , न हारने वाले ;
द्रुपद: = राजा द्रुपद ; ( द्रौपदेयाश्च = द्रौपदेया: + च ) ; द्रौपदेया: = द्रौपदी के पुत्र ; सर्वश: = सभी ; पृथ्वीपते = हे राजन् !;( सौभद्रश्च = सौभद्र: + च ) ; सौभद्र: = सुभद्रा के पुत्र अभिमन्यु ; महाबाहुः = महाबाहु, विशाल भुजाओं वाले ; ( शङ्खान्दध्मुः = शङ्खान् + दध्मु: ) ; शञ्खान् = शंखों ; दध्मु: = बजाया ;पृथक्पृथक् = अलग-अलग।
कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनंतविजय नामक अपने शंख को बजाया। नकुल और सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नामक अपने-अपने शंख को बजाया।।१।१६।।
महान् धनुर्धर काशिराज तथा महान् योद्धा शिखण्डी, धृष्टद्युम्न, राजा विराट और अजेय सात्यकि ने भी अपने-अपने शंख को बजाया।।११७।।
हे राजन्! राजा द्रुपद और द्रौपदी के सभी पुत्र तथा सुभद्रापुत्र महाबाहु अभिमन्यु ने अलग-अलग अपने-अपने शंख को जोर से बजाया।।१।१८।।
अनंतविजय की ध्वनि सुनाकर, युधिष्ठिर वर वीर उद्घोष किया।
सुघोष-वो-मणिपुष्पक के संग, नकुल सहदेव जयघोष किया।।१।१६।।
काशिराज पधारे परम धनुर्धर , शिखण्डी महारथी बलशाली।
सात्यकि अजेय धृष्टद्युम्न विराट ने, किए शंखध्वनि नादोंवाली।।१।१७।‌।
हे राजन्। राजा द्रुपद और द्रौपदी के पुत्र ने , अपने शंख बजाये हैं।
इस रणभूमि में महाबाहु सुभद्रा पुत्र ने, पृथक् ही शंख बजाये हैं।।१‌।१८।।

शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2024

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 015-01-015(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनंजयः।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः।।१।१५।।
पाञ्चजन्यं = पाञ्चजन्य नामक शंख को( भगवान श्रीकृष्ण के शंख का नाम ) ; हृषीकेश: = अन्तर्यामी भगवान श्रीकृष्ण ; देवदत्तं = देवदत्त नामक शंख को (अर्जुन के शंख का नाम ) ; धनंजय: = अर्जुन ( धन को जीतने वाले ) ; पौण्ड्रं = पौण्ड्र नामक शंख को ( भीम के शंख का नाम ) ; दध्मौ = बजाया ; महाशङ्खं = विशाल शंख को ; भीमकर्मा = भयानक ( भीषण ) कर्म करने वाले ; वृकोदर: = वृकोदर, भीम ( भीम के पेट में वृक नामक अग्नि था जिसके कारण उसका भोजन शीघ्र ही पच जाता था और भूख लग जाती थी। )
हृषीकेश भगवान श्रीकृष्ण ने पाञ्चजन्य नामक शंख को बजाया और धनञ्जय अर्जुन ने देवदत्त नामक शंख को जोर से बजाया। तभी भीमकर्मा वृकोदर भीम ने अपने विशाल पौण्ड्र नामक शंख को बहुत जोर से बजाया।।१।१५।।
माधव ने अब पाञ्चजन्य को, देवदत्त को पार्थ बजा डाला।
भीमकर्मा वृकोदर भीम ने, शंख पौण्ड्र बजाया मतवाला।।१।१५।‌।

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 014-01-014(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः।।१।१४।।
तत: = तत्पश्चात, उसके बाद ; ( श्वेतैर्हयैर्युक्ते = श्वेतै: + हयै: + युक्ते ) ; श्वेतै: = श्वेत, सफेद ; हयै: = घोड़ें ; युक्ते = युक्त ; महति = विशाल ; स्यन्दने = रथ पर ; स्थितौ = स्थित होकर, सवार होकर ; माधव: = श्री कृष्ण ; ( पाण्डवश्चैव = पाण्डव: + च + एव ) ; पाण्डव: = पाण्डु के पुत्र ; च = और ; एव = निश्चय ही ; दिव्यौ = दिव्य ( द्विवचन )शङ्खौ = दोनों शंख ; प्रदध्मतु: = बजाये।
तत्पश्चात दूसरी ओर श्वेत घोड़ों से सुसज्जित विशाल रथ पर सवार होकर भगवान श्रीकृष्ण और पाण्डु-पुत्र अर्जुन ने अपने-अपने दिव्य शंख बजाये।
श्वेत तुरंग से युक्त रथ पर,श्रीकृष्ण-अर्जुन प्रकट हुए।
दोनों ने दिव्य शंख बजाये,तुमुल शब्द तब विकट हुए।।१।१४।।

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 013-01-013(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्।।१।१३।। 
तत: = उसके बाद ; ( शङखाश्च = शङखा: + च ) ; शङखा: = बहुत-से शंख ; ( भेर्यश्च = भेर्य: + च ) ; भेर्य : = बड़े-बड़े ढ़ोल, नगाड़े ; ( पणवानक = पणव + आनक ) ; पणव = ढ़ोल ; आनक = मृदंग ; गोमुख: = श्रृंगी ; ( सहसैवाभ्यहन्यन्त = सहसा + एव +अभ्यहन्यन्त ) ; सहसा = अचानक ; एव = निश्चय ही ; अभ्यहन्यन्त = एकसाथ बजाए गए ; स: = ( शब्दस्तुमुलोऽभवत् = शब्द: + तुमुल: + अभवत् ) ; शब्द: = समवेत स्वर ; तुमुल: = ; कोलाहलपूर्ण ; अभवत् = हुआ। 
उसके बाद अनेक शंख, बडे़-बड़े ढ़ोल- नगाड़े, बिगुल, तुरही और सींग अचानक ही एक साथ बज उठे। वह समवेत स्वर अत्यंत कोलाहलपूर्ण था। 
तभी शंख बिगुल मृदंग तुरही, नगाड़े श्रृंगी बज उठे। 
समवेत स्वर से गुंजी धरती, अतीव कोलाहल हुए।।१।१३।।

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 012-01-012(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)


तस्य संजनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान्।।१।१२।।
तस्य = उसका ; संजनयन् = बढ़ाते हुए ; हर्षं = हर्ष ; कुरुवृद्ध : = कुरुवंश के वयोवृद्ध ; पितामह = दादा ; सिंहनादं = सिंह के समान गर्जना ; ( विनद्योच्चै: = विनद्य + उच्चै: ); विनद्य = गरजकर ; उच्चै: = जोर से ; शङ्खं = शंख ; दध्मौ = बजाया ; प्रतापवान् = बलशाली।
तभी कुरुवंशियों के वयोवृद्ध परम प्रतापी पितामह भीष्म ने सिंह के समान गर्जना करने वाले अपने शंख को जोर से बजाया जिसे सुनकर दुर्योधन को अपार हर्ष हुआ।
प्रतापी पितामह भीष्मवर ने, शंख बजाया अति जोर से।
शंख-ध्वनि सिंहनाद सुनकर, दुर्योधन खुश हैं शोर से ।।१।१२।।
हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 011-01-011(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि।।१।११।।
अयनेषु = मोर्चों पर ; च = और ; सर्वेषु = सभी ; ( यथाभागमवस्थिताः = यथा + भागम् + अवस्थिता: ) ; यथाभागमवस्थिताः = अपने-अपने स्थानों पर स्थित रहकर ; (भीष्ममेवाभिरक्षन्तु = भीष्मम् + एव + रक्षन्तु ) ; भीष्मम् = पितामह भीष्म की ; = निश्चय ही ; रक्षन्तु = सहायता करनी चाहिए ; भवन्त: = आप सभी ; सर्वे = सभी लोग ; एव हि = निश्चय ही।
आप सभी अपने-अपने मोर्चों पर स्थित रहकर निश्चित रूप से पितामह भीष्म की ही सहायता करें।।१।११।‌
सभी अयनों पर अडिग होकर, आप सभी संग्राम करें।
पितामह को सहयोग करें, निश्चय ही अविराम करें ।।१।११।।।

गुरुवार, 15 फ़रवरी 2024

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 010-01-010(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

अपर्याप्तं तदस्माकं बलंभीष्माभिरक्षितम्।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्।।१।१०।।
अपर्याप्तं = अपरिमेय ; ( तदस्माकं = तत् + अस्माकं ) ; तत् = वह ; अस्माकं = हमारी, हमलोगों की ; बलं = बल, सेना ; भीष्माभिरक्षितम् ( भीष्म + अभिरक्षितम् ) पितामह भीष्म द्वारा संरक्षित ; पर्याप्तं = सीमित ; ( त्विदमेतेषां = तु + इदम् + एतेषाम् ) ; तु = लेकिन ; इदम् =यह ; एतेषाम् = इनके ( पाण्डवों के) ; भीमाभिरक्षितम् ( भीम + अभिरक्षितम् ) भीम द्वारा संरक्षित।
हमारी सेना पितामह भीष्म द्वारा संरक्षित होकर अजेय अपरिमेय हैं लेकिन भीम द्वारा संरक्षित पाण्डवों की सेना सीमित है जो आसानी से जीता जा सकता है।
पितामहरक्षित कौरव बल है, अपनी सेना अजेय है।
भीमरक्षित पाण्डु -दल हैं, सीमित सुगम वो जेय है।।१।१०।।

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 009-01-009(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)


अन्ये च बहव: शूरा मदर्थे त्यक्तजीविता: ।
नानाशस्त्रप्रहरणा: सर्वे युद्धविशारदा: ।।१।९।।
अन्ये = अन्य; च और; बहव: = बहुत से; शूरा: = शूरवीर; मदर्थें = मेरे लिये; त्यक्तजीविता: = जीवन की आशा को त्यागने वाले; नानाशस्त्रप्रहरणा: = अनेक प्रकार के शस्त्र अस्त्रों से युक्त; सर्वें = सब के सब; युद्वविशारदा: = युद्ध में चतुर हैं।
और भी मेरे लिये जीवन की आशा त्याग देने वाले बहुत-से शूरवीर अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित और सभी युद्ध में चतुर हैं ।।१।९।।
मरने को तैयार रण में मेरे हित सब वीर हैं।
आयुधों से युक्त भी हैं, समर चतुर रणधीर हैं।।।।१।९।।
हरि ॐ तत्सत्।
श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य 

बुधवार, 14 फ़रवरी 2024

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 008-01-008(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)


भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च।।१।।८।।
भवान् = आप ; (भीष्मश्च = भीष्म: + च ) ; भीष्म: = भीष्म पितामह ; ( कर्णश्च = कर्ण: + च ) ; कर्ण: = कर्ण ; ( कृपश्च = कृप: + च ) ; कृप: = कृपाचार्य ; समितिञ्जयः = सदा संग्राम में विजयी ; = अश्वत्थामा ; (द्रोणाचार्य का पुत्र ) ; ( विकर्णश्च = विकर्ण: + च ) ; विकर्ण: = विकर्ण ; ( सौमदत्तिस्तथैव‌ = सोमदत्ति: + तथा + एव ) ; सौमदत्ति: = सोमदत्त का पुत्र ; एव = निश्चय ही।
मेरी सेना में स्वयं आप, भीष्म पितामह, कर्ण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण तथा सोमदत्त के पुत्र भूरिश्रवा हैं - जो सभी सदा संग्राम विजयी रहे हैं।
मेरे दल में आप भी हैं,भीष्म कृपा और कर्ण हैं।
संग्राम भूमि में सदा विजयी, अश्वत्थ भूरि विकर्ण हैं।।१।८।।
हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 007-01-007(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)


अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।
नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते।।१।७।।
अस्माकं = हमलोगों के, हमारे ; तु = लेकिन ; विशिष्टा : = विशेष शक्तिशाली ; ये = जो ;( तान्निबोध = तान् + निबोध ) ; तान् = उन्हें ; निबोध = समझ लीजिए ; ( द्विजोत्तम = द्विज +उत्तम ) ; द्विज = हे ब्रह्मण ; उत्तम = श्रेष्ठ ; नायका = नायका : = सेनापति ; मम् = मेरे ; सैन्यस्य = सेना के ; संज्ञार्थं(संज्ञा+अर्थं) = जानकारी के लिए ; तान् = उन्हें ; ब्रवीमि = बताता हूं ; ते = आपको।
हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! लेकिन अब हमारे जो विशेष शक्तिशाली वीर योद्धा हैं, उन्हें आप समझ लीजिए। वे सभी हमारी सेना के संचालन करने में सक्षम हैं, उन्हें आपको जानकारी के लिए बताता हूं।
हे द्विजश्रेष्ठ ! अपने समर के विशिष्ट योद्धा जान लें।
सैन्य-संचालन निपुण हैं, कह रहा आप संज्ञान लें।‌‌।१।७।।
हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 006-01-006(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

 
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः।।१।६।।
( युधामन्युश्च = युधामन्यु: + च ) ; युधामन्यु: = युधामन्यु ; च = और;विक्रांत = विक्रांत : = पराक्रमी ; ( उत्तमौजाश्च = उत्तमौजा: + च ) ; उत्तमौजा: = उत्तमौजा ; वीर्यवान् = अत्यंत शक्तिशाली ; सौभद्र: = सुभद्रा के पुत्र अभिमन्यु ; ( द्रौपदेयाश्च = द्रौपदेया: + च ) ; द्रोपदेया: = द्रौपदी के पुत्र ; सर्व = सभी ; महारथा: = महारथी।
अत्यंत पराक्रमी युधामन्यु , अत्यंत शक्तिशाली उत्तमौजा, सुभद्रा के पुत्र तथा द्रौपदी के पुत्र - ये सभी महारथी हैं।
युधामन्यु पराक्रमी हैं, उत्तमौजा बलवीर हैं।
सुभद्रा और द्रौपदी के, सभी सुत रणवीर हैं।।१।६।।
हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 005-01-005(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)


धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः।।१।५।।
(धृष्टकेतुश्चेकितान: = धृष्टकेतु: + चेकितान:) ; धष्टकेतु: = धृष्टकेतु ; चेकितान: = चेकितान;
(काशिराजश्च = काशिराज: +च) ; काशिराज: = काशिराज;च = और ;
वीर्यवान् = परम शक्तिशाली ( पुरुजित्कुन्तिभोजश्च = पुरुजित्+कुन्तिभोज: + च ) ; पुरुजित् = पुरुजित् ; कुन्तिभोज: = कुन्तिभोज ; च = और ; ( शैव्यश्च = शैव्य:+च ) ; शैव्य: = शैव्य ; ;च = और ; नरपुङ्व: = नरश्रेष्ठ( नरों में वीर)।
इनके साथ में धृष्टकेतु, चेकितान, काशिराज,पुरुजित् , कुन्तिभोज, शैव्य जैसे महान् शक्तिशाली वीर योद्धा भी हैं।
धृष्टकेतु चेकितान भी हैं, काशिराज जैसे वीर हैं।
पुरुजित् कुन्तिभोज भी हैं, शैव्य तुल्य नरवीर हैं।।१।५।।
हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 004-01-004(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः।।१।४।।
अत्र = यहॉं ; शूरा: =वीर ; (महेष्वासा: = महा+इषु +आसा:) ; महा = महान् ; इषु = धनुष ; आसा: = धारण करने वाले ; महेष्वासा: = महान् धनुर्धर ; (भीमार्जुनसमा = भीम+अर्जुन+समा) ; समा: = के समान ; युधि = युद्ध में ; युयुधान: = युयुधान ; (विराटश्च = विराट: + च) ; विराट: = राजा विराट ; च = और ; ( द्रुपदश्च = द्रुपद: + च )द्रुपद: = राजा द्रुपद ; महारथ: = महान् योद्धा ।
यहॉं (पाण्डवों की सेना में) भीम और अर्जुन के समान युद्ध करने वाले अनेक वीर और धनुर्धर हैं यथा- महान् योद्धा महारथी युयुधान, राजा विराट तथा राजा द्रुपद।
पाण्डु-दल में अनेक, अर्जुन भीम जैसे वीर हैं।
महारथी युयुधान राजा, द्रुपद विराट रणवीर हैं।।१।४।।
हरि ॐ तत्सत्।
-श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 003-01-003(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।।१।३।।
( पश्यैतां = पश्य +एताम् ) ; पश्य = ; एताम् = इस ;
(पाण्डुपुत्राणामाचार्य = पाण्डुपुत्राणाम् + आचार्य) ; पाण्डुपुत्राणाम् = पाण्डु के पुत्रों की ; आचार्य = हे आचार्य ; महतीं = विशाल ; चमूम् = सेना को ; व्यूढां = सुसज्जित, ; द्रुपदपुत्रेण = राजा द्रुपद के पुत्रों के द्वारा ; तव = आपके (तुम्हारे) ; शिष्येण = शिष्य के द्वारा ; धीमता = अत्यधिक बुद्धिमान।
हे आचार्य ! आप पाण्डु-पुत्रों की व्यूहाकाररूप में सुसज्जित इस विशाल सेना को देखिए जिसे आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपद-पुत्र (धृष्टद्युम्न) के द्वारा सजाया गया है।
विशाल सेना पाण्डवों की, व्यूह-रचना हे गुरुवर देखिए ।
सजा है बुद्धि कला से , तव शिष्य द्रुपद-पुत ने है किए।।१।३।।

मंगलवार, 13 फ़रवरी 2024

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 002-01-002(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)


सञ्जय उवाच-
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत्
।।१‌।२।।
संजय = संजय: ; उवाच = कहा, बोले ; दृष्ट्वा = देखकर ; तु = लेकिन ; पाणडवानीकं = (पाण्डव+अनीकं) पाण्डवों की सेना ; व्यूढं = व्यूह रचना को ; (दुर्योधनस्तदा = दुर्योधन: + तदा ) ; तदा = तब, उस समय ; (आचार्यमुपसंगम्य = आचार्यम् + उपसंगम्य) ; आचार्यम् = आचार्य, गुरु (को) ; उपसंगम्य = पास जाकर ; राजा = राजा ; ( वचनमब्रवीत् = वचनम् + अब्रवीत् ) ; वचनम् = वचन ; अब्रवीत् = कहा।
संजय ने कहा -हे राजन ! पाण्डु-पुत्रों द्वारा किए गए सेना की व्यूहरचना को देखकर दुर्योधन अपने गुरु (द्रोणाचार्य) के पास जाकर उन्होंने ये वचन कहे।
संजय ने कहा-
व्यूह रचना जब सैनिकों की, पाण्डवों ने कर लिया।
देखकर राजा दुर्योधन, गुरु निकट जा विनती किया ।।१।२।।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य 

सोमवार, 12 फ़रवरी 2024

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 001-01-001(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)


धृतराष्ट्र उवाच-
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत् सञ्जय।।१।१।।
धृतराष्ट्र = धृतराष्ट्र: = धृतराष्ट्र ने ; उवाच = कहा ; धर्मक्षेत्रे = धर्मक्षेत्र में ; कुरुक्षेत्रे = कुरुक्षेत्र में ; समवेता = एकत्रित ; युयुत्सव: = युद्ध की इच्छावाले (युयुत्सु बहु०) ; मामका: = मेरे पुत्रों ने ; (पाण्डवाश्चैव = पाण्डवा: + च + एव ) ; पाण्डवा: = पाण्डु के पुत्रों ने ; च = और ; एव = निश्चय ही; ( किमकुर्वत् = किम् +अकुर्वत् ) ; किम् = क्या ; अकुर्वत् = किया ; संजय = हे संजय !
राजा धृतराष्ट्र ने कहा-
हे संजय ! धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में एकत्रित हुए युद्ध की इच्छावाले मेरे और राजा पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ? ।।१।१।।
धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में, जुटे सब लड़ने को अहो।
मेरे और पाण्डु सुतों ने, क्या किया संजय कहो।।१-१।।
हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

शनिवार, 10 फ़रवरी 2024

श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक पाठ 000-01-000(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)

श्रीमद्भगवद्गीता
(हिन्दी पद्यानुवाद सहित)
श्री तारकेश्वर झा ‘आचार्य’
ॐ परमात्मने नमः।
प्राक्कथन
भगवान जगदाधार श्री कृष्ण की उपदेशात्मक परम कल्याणकारी
अमृतवाणी भक्ति, मुक्ति और ज्ञान की त्रिवेणी है। मानव के कल्याण के निमित्त विश्व में श्रीमद्भगवद्गीता गीता अद्भुत, अलौकिक और अद्वितीय है। भगवान श्री हरि सबका कल्याण करें।
श्री गुरुचरणकमलेभ्यो नम:।
श्री गणेशाय नमः।
श्री परमात्मने नमः।
श्री महाकाल्यै नमः।
श्री महालक्ष्म्यै नमः।
श्री महासरस्वत्यै नमः।
श्री गुरवे नमः।
प्रिय सात्मनों !
मुक्ति-पथ के पथिक ! आगे बढ़कर सारस्वत मुक्ति का आलिंगन कर मानव जीवन को सार्थक कर लो ! अगर शिथिल होकर आराम की चिंता में बैठ जाओगे तो बहुत बड़ा नुक़सान हो जाएगा। तेरे जन्म जन्मांतर के परिश्रम के फलस्वरूप प्राप्त मानव-जीवन को तू यूं ही बिता दोगे और पारलौकिक सुख से वंचित रहकर भव-बंधन में पड़े रहोगे। चौरासी लाख योनियों के परिभ्रमण के पश्चात् यह दुर्लभ मानव-जीवन प्राप्त हुआ है। सारी योनियों में केवल मनुष्य को ही यह अधिकार है कि वह आत्म-साक्षात्कार कर मुक्त हो सके। बंधन भला किसे अच्छा लगता है ? यह शरीर आपका स्थायी आवास नहीं है। मोह और अज्ञानता के कारण अपने आत्म-स्वरूप सारस्वत आत्मसत्ता को भूल चुके हैं। आप जबतक प्रपंचों से उठकर, षड्विकारों से अपने अपने मन और बुद्धि को परिशुद्ध नहीं कर लेते जबतक आत्मज्ञान और आत्म साक्षात्कार असंभव है। आत्मशुद्धि, पूजा-पाठ, जप-तप, ,योग, यज्ञ, ध्यान-चिंतन , सद् शास्त्रों तथा सत्पात्रों का आश्रय से आत्मविश्वास को जागृत कर आत्म-विकास करते हुए आप निश्चित रूप से दुर्लभ ज्ञान को प्राप्त कर सकते हैं। ज्ञान स्वरूप के दर्शन आत्म साक्षात्कार द्वारा ही संभव है। सतत् प्रयास करते हुए आप अपनी जिज्ञासा को शांत कर महाबुद्ध और महावीर बन सकते हैं।
इस क्रम में श्रीमद्भागवत गीता एक अद्भुत ग्रंथ है। यह भगवान सर्वाधार परमेश्वर श्री कृष्ण की वाणी है जो मोक्षदायिनी है। इसके सरल शब्दों में भरे हुए रहस्य को समझते ही तत्क्षण ही व्यक्ति मुक्त हो जाता है। सदियों से यह अनमोल ग्रंथ मोक्ष-पिपासुओं के लिए मां गंगा के सदृश ही अपने ज्ञान-प्रवाह के साथ मोक्षदायिनी है। इसके अनंत सागर में गोते लगाने पर साधक अपने विकारों का त्याग कर निर्मल बन जाता है और आत्म-स्वरूप हो जाता है।
भगवद्भक्ति और भगवद् कृपा के बिना इस अद्भुत अलौकिक पारलौकिक भगवद्वाणी स्वरूप ग्रंथ को नहीं समझा जा सकता है भक्तिपूर्वक निरंतर प्रयास करते हुए अपने साधनों से समझने का प्रयास तो कर ही सकते हैं। प्रयास सच्चा हो तो सर्व कृपालु श्री हरि विष्णु की अवश्य ही कृपा प्राप्त कर कृत्य -कृत्य हो जायेंगे।
अब विषय-विस्तार और शब्दों के भंवर जाल में न फंसकर सीधे परमेश्वर श्री हरि विष्णु श्री कृष्ण जी की वाणी को समझने का प्रयास करेंगे। वाणी संस्कृत में है, इसे अभ्यास करते हुए सरल शब्दों में अपनी भाषा में अठारह अध्यायों में सात सौ श्लोकों में कथित रहस्य को समझते हैं।युद्ध की विभीषिका से भयभीत और विचलित महावीर धनुर्धर अर्जुन जब इसके दुष्परिणामों को सोचकर आत्मीय जनों की विनाशलीला की आशंका से मोह ग्रस्त होकर अपने शस्त्रों का परित्याग कर युद्ध करने से इंकार कर देता है तो भगवान सर्वाधार परमेश्वर श्री कृष्ण उन्हें उचित आत्मज्ञान देकर आत्म साक्षात्कार के द्वारा मोहभंग करते हुए युद्ध करने को उद्धत करते हैं। इस परिदृश्य में कहीं गई भगवान की अनमोल आत्मज्ञान वाणी भक्त और साधन-प्रेमियों के लिए कल्पवृक्ष के सदृश है जो भक्ति, मुक्ति और विरक्ति की त्रिवेणी संगम है। यह ज्ञान गृहस्थ और संन्यास दोनों ही आश्रमों के लिए सम्यक् है। आइए सरल भाषा में इसे अभ्यास करते हैं और भाषा में पद्यरूप में भी सुशोभित करने की कोशिश करते हैं। श्री हरि ऐसा करने की हमें शक्ति, अनुमति और सामर्थ्य प्रदान करें।
हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'

शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2024

बीजात्मक तंत्र श्रीदुर्गा सप्तशती

।।बीजात्मक तंत्र श्रीदुर्गा सप्तशती ||
(अद्भुत अतुलनीय तंत्र साधना की दुर्लभ बीजात्मक 
श्रीदुर्गा सप्तशती )
बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती अर्थात् दुर्गा सप्तशती के सभी ७०० श्लोकों का बीजमंत्र रूप। ब्रह्माण्ड में तीन मुख्य तत्व है- सत्, रज् व तम्। उसी प्रकार देवों में भी तीन ही मुख्य हैं- ब्रह्मा, विष्णु और महेश। सप्तशती को भी तीन ही मुख्य भागों में बांटा गया है –प्रथम चरित्र ,मध्यम चरित्र व उत्तम चरित्र । सप्तशती के तीन मुख्य देवता है- महाकाली, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती। सप्तशती में जप किया जाने वाला मंत्र नवार्णमन्त्र भी ३×३ ही है और इनके तीन ही मुख्य बीज है- ऐं , ह्रीं और क्लीं। इनका विस्तार सिद्धकुञ्जिकास्तोत्रम् में दिया गया है। यहाँ ऐं- वाग बीज है जो ज्ञान अर्थात् सरस्वती का बोधक है। ह्रीं- माया बीज है जो धन अर्थात् महालक्ष्मी का बोधक है। क्लीं – काम बीज है जो गतिशीलता अर्थात् महाकाली का बोधक है। हमारे धर्म शास्त्रों में बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती को इन्ही तीन मुख्य बीज ऐं, ह्रीं और क्लीं को आधार बनाते हुए और दुर्गा सप्तशती के सभी ७०० श्लोकों को तीन मुख्य भाग में बाँट कर बनाया गया है अर्थात् नवार्णमन्त्र के जो प्रथम बीजाक्षर ऐं है उनको प्रारम्भ में रख ह्रीं बीज का विस्तार करते हुए दुर्गा सप्तशती के प्रत्येक श्लोक का एक मुख्य बीज मंत्र बनाया गया है।जैसे महाकाली, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती तीन अलग-अलग देवी होते हुए भी एक ही पराशक्ति है । अब अंत में क्लीं जो कामबीज है उसे नम: रूप से कार्य करते बनाया गया है। इस प्रकार तीन मुख्य भागों में सम्पूर्ण दुर्गासप्तशती को बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती बनाया गया है और प्रारम्भ में महाशून्य अर्थात् ॐ प्रणव लिखा गया है । यहाँ मै उन महान ज्ञानी आचार्यों जिन्होने अपने ज्ञान व अथक परिश्रम से इस प्रकार कि कृति हमारे बीच रखा – वैदिक आचार्यों को नमन करते हुए बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती वेदों के प्रचार-प्रसार उद्देश्य से रखता हूँ। यह बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती उन कर्मकांडी आचार्यों के लिए बहुत ही प्रभावी है जिन्हे कि नवरात्रि या अन्य अवसरो में एक से अधिक बार सप्तशती का पाठ करना होता है इनके अलावा भी जिन साधकों को सप्तशती के बड़े श्लोकों को पढ़ने में दिक्कत होती है और विशेष कर तंत्रिकों के लिए विशेष लाभप्रद है।
बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती पाठ विधि – बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती के पाठ में षडंग (कवच, अर्गला, कीलक, प्रधानिक रहस्य, वैकृतिक रहस्य तथा मूर्ति रहस्य) पाठ की आवश्यकता नहीं है। सबसे पहले दुर्गाजी कापूजन कर शापोद्धार आदि की क्रिया संपन्न कर लेनी चाहिए। 
अब तन्त्रोक्तं रात्रिसूक्तम् का पाठ कर आदि एवं अन्त में नर्वाण मंत्र का 108 बार जप करें व अंत में देवीसूक्तम् का पाठ करें।॥ अथ बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती ॥
शापोद्धार मंत्र- शापोद्धार के लिए नीचे वर्णित मंत्र का ७ बार आदि व अन्त में जप करना चाहिये।
‘ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा’ ।।
अथ बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती ॥
शापोद्धार मंत्र- शापोद्धार के लिए नीचे वर्णित मंत्र का ७ बार आदि व अन्त में जप करना चाहिये।
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा।।१।।
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा।।२।। 
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा।।३।।
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा।।४।।
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा।।५।।
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा ।।६।
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा ।।७।।
उत्कीलन मंत्र- शापोद्धार के बाद उत्कीलन-मंत्र का २१ बार आदि व अन्त में जप करना चाहिये।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
शापोद्धारादि के पश्चात् तंत्र दुर्गासप्तशती के निम्नांकित तंत्रोक्त रात्रिसूक्त का पाठ करना चाहिये।
तन्त्रोक्तं रात्रिसूक्तम्
ॐ ऐं ह्रीं नमः॥१॥
ॐ ऐं स्रां(स्त्रां) नमः॥२॥
ॐ ऐं स्लूं नमः॥३॥
ॐ ऐं क्रैं नमः॥४॥
ॐ ऐं त्रां नम:॥५॥
ॐ ऐं फ्रां नम:॥६॥
ॐ ऐं जीं नम:॥७॥
ॐ ऐं लूं नमः॥८॥
ॐ ऐं स्लूं नमः॥९॥
ॐ ऐं नों नम:॥१०॥
ॐ ऐं स्त्रीं नमः॥११॥
ॐ ऐं प्रूं नमः॥१२॥
ॐ ऐं सूं नमः॥१३॥
ॐ ऐं जां नमः॥१४॥
ॐ ऐं बौं नमः॥१५॥
ॐ ऐं ओं नमः॥१६॥
नवार्णमन्त्र जपविधि:
तांत्रिक रात्रिसूक्त के पाठ या जप के उपरान्त नवार्ण मंत्र का कम से कम १०८ बार जप किया जाना चाहिये । नवार्ण मंत्र के जप के पहले विनियोग, न्यास आदि सम्पन्न करें।
नवार्ण मंत्र का विनियोग-न्यासादि
विनियोग:—
ॐ अस्य श्रीनवार्णमन्त्रस्य ब्रह्मविष्णुरुद्रा ऋषय:, गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छदांसि,
श्रीमहाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वत्यो देवता:, ऐं बीजम्, ह्रीं शक्ति:, क्लीं कीलकम्,
श्रीमहाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वतीप्रीत्यर्थे जपे विनियोग:।
तत्पश्चात् मंत्रों द्वारा इस भावना से की शरीर के समस्त अंगों में मंत्ररूप से देवताओं का वास हो रहा है , न्यास करें। ऐसा-करने से पाठ या जप करने वाला व्यक्ति मंत्रमय हो जाता है तथा मंत्र में अधिष्ठित देवता उसकी रक्षा करते हैं | इसके अतिरिक्त न्यास द्वारा उसके बाहर-भीतर की शुद्धि होती है और साधना निर्विघ्न पूर्ण होती है । ऋष्यादिन्यास ,करन्यास, हृदयादिन्यास, अक्षरन्यास, तथा दिड्.न्यास  के लिए सम्पूर्ण दुर्गासप्तशती देखें।
ऋष्यादिन्यास:—
ब्रह्मविष्णुरुद्रऋषिभ्यो नम: शिरसि । गायत्र्युष्णिण-गनुष्टुप्छन्दोभ्यो नम: मुखे ।
महाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वतीदेवताभ्यो नम: हृदि ।
ऐं बीजाय नम: गुह्ये ।
ह्रीं शक्तये नम: पादयो: ।
क्लीं कीलकाय नम: नाभौ ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै सर्वाङ्गे।
करन्यास:—
ॐ ऐं अङ्गुष्ठाभ्यां नम: ।
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नम: ।
ॐ क्लीं मध्यमाभ्यां नम: ।
ॐ चामुण्डायै अनामिकाभ्यां नम: ।
ॐ विच्चे कनिष्ठिकाभ्यां नम: ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे करतल-करपृष्ठाभ्यां नम: ।हृदयादिन्यास:—
ॐ ऐं हृदयाय नम: ।
ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा ।
ॐ क्लीं शिखायै वषट् ।
ॐ चामुण्डायै कवचाय हुम् ।
ॐ विच्चे नेत्रत्रयाय वौषट् ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे अस्त्राय फट् ।
अक्षरन्यास:—
ॐ ऐं नम: शिखायाम् ।
ॐ ह्रीं नम: दक्षिणनेत्रे ।
ॐ क्लीं नम: वामनेत्रे ।
ॐ चां नम: दक्षिणकर्णे ।
ॐ मुं नम: वामकर्णे ।
ॐ डां नम: दक्षिणनासायाम् ।
ॐ यैं नम: वामनासायाम् ।
ॐ विं नम: मुखे ।
ॐ च्चें नम: गुह्ये ।
एवं विन्यस्य ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे’ इति नवार्णमन्त्रेण अष्टवारं व्यापकं कुर्यात् ।
दिङ्न्यास:—
ॐ ऐं प्राच्यै नम: ।
ॐ ऐं आग्नेय्यै नम: ।
ॐ ह्रीं नैऋत्यै नम: ।
ॐ क्लीं प्रतीच्यै नम: ।
ॐ क्लीं वायव्यै नम: ।
ॐ चामुण्डायै उदीच्यै नम: ।
ॐ चामुण्डायै ऐशान्यै नम: ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ऊर्ध्वायै नम: ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे भूम्यै नम: ।
ध्यानम्
खड्‌गं चक्रगदेषुचापपरिघाञ्छूलं भुशुण्डीं शिरः शङ्खं संदधतीं करैस्त्रिनयनां सर्वाङ्गभूषावृताम्।
नीलाश्मद्युतिमास्यपाददशकां सेवे महाकालिकां यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधुं कैटभम्॥१॥
अक्षस्रक्परशुं गदेषुकुलिशं पद्मं धनुष्कुण्डिकां दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम्।
शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तैः प्रसन्नाननां सेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम्॥२॥
घण्टाशूलहलानि शङ्‌खमुसले चक्रं धनुः सायकं हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम्।
गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महा- पूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम्॥३॥
माला प्रार्थना
फिर “ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः” इस मन्त्र से माला की पूजा करके प्रार्थना करें-
ॐ मां माले महामाये सर्वशक्तिस्वरूपिणि। चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्तस्तस्मान्मे सिद्धिदा भव॥
ॐ अविघ्नं कुरु माले त्वं गृह्णामि दक्षिणे करे। जपकाले च सिद्ध्यर्थं प्रसीद मम सिद्धये॥
ॐ अक्षमालाधिपतये सुसिद्धिं देहि देहि सर्वमन्त्रार्थसाधिनि
साधय साधय सर्वसिद्धिं परिकल्पय परिकल्पय मे स्वाहा।
इसके बाद “ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे” इस मन्त्र का १०८ बार जप करें और-
गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम्।
सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादान्महेश्वरि॥
इस श्लो्क को पढ़कर देवी के वामहस्त में जप निवेदन करें ।।। बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती न्यासः।।
विनियोगः-प्रथममध्यमोत्तरचरित्राणां ब्रह्मविष्णुरुद्रा ऋषयः, श्रीमहाकाली महालक्ष्मी महासरस्वत्यो देवताः,
गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छंन्दांसि, नन्दाशाकम्भरीभीमाः शक्तयः, रक्तदन्तिकादुर्गाभ्रामर्यो बीजानि,
अग्नि वायु सूर्यास्तत्त्वानि, ऋग्यजुः सामवेदा ध्यानानि, सकलकामनासिद्धये
श्रीमहाकाली महालक्ष्मी महासरस्वती देवताप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः।
इसे पढ़कर जल गिरायें ।
अंगन्यासः-
ॐ ऐं स्लूं अंगुष्ठाभ्यां नमः।
ॐ ऐं फ्रें तर्जनीभ्यां नमः।
ॐ ऐं क्रीं मध्यमाभ्यां नमः।
ॐ ऐं म्लूं अनामिकाभ्यां नमः।
ॐ ऐं घ्रें कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।
ॐ ऐं श्रूं करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
ऋष्यादिन्यासः-
ॐ ऐं स्लूं हृदयाय नमः।
ॐ ऐं फ्रें शिरसे स्वाहा ।
ॐ ऐं क्रीं शिखायै वषट् ।
ॐ ऐं म्लूं कवचाय हुं।
ॐ ऐं घ्रें नेत्रत्रयाय वौषट् ।
ॐ ऐं श्रूं अस्त्राय फट् ।।
।।ध्यानमंत्रम्।।
या चण्डी मधुकैटभादि दैत्यदलनी या महिषोन्मूलिनी,
या धूम्रेक्षणचण्डमुण्ड मथनी या रक्तबीजाशिनी।
शक्तिः शुम्भनिशुम्भदैत्यदलनी या सिद्धि लक्ष्मीः परा,
सा दुर्गा नवकोटि मूर्तिसहिता मां पातु विश्वेश्वरी।।
।।बीजात्मक तंत्र श्रीदुर्गा सप्तशती प्रारम्भ।।
।।ॐ नमश्चण्डिकायै।।
प्रथम चरित्र।।
।।प्रथमोऽध्यायः।।
विनियोगः-ॐ प्रथमचरित्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, महाकाली देवता, गायत्री छन्दः,नन्दा शक्तिः,रक्तदन्तिका बीजम्, अग्निस्तत्त्वम्,ऋग्वेदः स्वरूपम्, श्रीमहाकालीप्रीत्यर्थे प्रथमचरित्रजपे विनियोगः।
ध्यानम् 
ॐ खड्‌गं चक्रगदेषुचापपरिघाञ्छूलं भुशुण्डीं शिरः शङ्खं संदधतीं करैस्त्रिनयनां सर्वाङ्गभूषावृताम्।
नीलाश्मद्युतिमास्यपाददशकां सेवे महाकालिकां यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधुं कैटभम्॥
‘ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।’ 
‘ॐ बीजाक्षरायै विद्महे तत् प्रधानायै धीमहि तन्नः शक्तिः प्रचोदयात्।’
ॐ ऐं श्रीं नमः॥१॥
ॐ ऐं ह्रीं नम:॥२॥
ॐ ऐं क्लीं नम:॥३॥
ॐ ऐं श्रीं नम:॥४॥
ॐ ऐं प्रीं नम:॥५।।
ॐ ऐं ह्रां नम:॥६॥
ॐ ऐं ह्रीं नम:॥७॥
ॐ ऐं स्रौं नमः॥८।।
ॐ ऐं प्रें नम:॥९॥
ॐ ऐं म्रीं नमः॥१०।।
ॐ ऐं ह्लीं नमः॥११॥
ॐ ऐं म्लीं नमः॥१२॥
ॐ ऐं स्त्रीं नमः॥१३॥
ॐ ऐं क्रां नमः॥१४॥
ॐ ऐं ह्स्लीं नमः॥१५॥
ॐ ऐं क्रीं नमः॥१६॥
ॐ ऐं चां नमः॥१७॥
ॐ ऐं भें नमः॥१८॥
ॐ ऐं क्रीं नमः॥१९॥
ॐ ऐं वैं नमः॥२०॥
ॐ ऐं ह्रौं नमः॥२१॥
ॐ ऐं युं नमः॥२२॥
ॐ ऐं जुं नमः॥२३॥
ॐ ऐं हं नमः॥२४॥
ॐ ऐं शं नमः॥25॥
ॐ ऐं रौं नमः॥26॥
ॐ ऐं यं नमः॥27॥
ॐ ऐं विं नमः॥२८॥
ॐ ऐं वैं नमः॥२९॥
ॐ ऐं चें नमः॥३०॥
ॐ ऐं ह्रीं नमः॥३१॥
ॐ ऐं क्रूं नमः॥३२॥
ॐ ऐं सं नमः॥३३॥
ॐ ऐं कं नमः॥३४॥
ॐ ऐं श्रां नमः॥३५॥
ॐ ऐं त्रों नमः॥३६॥
ॐ ऐं स्त्रां नमः॥३७॥
ॐ ऐं ज्यं नमः॥३८॥
ॐ ऐं रौं नमः॥३९॥
ॐ ऐं द्रां नमः॥४०॥
ॐ ऐं ह्रां नमः।।४१।।
ॐ ऐं ह्रां नमः॥४२॥
ॐ ऐं द्रूं नमः॥४३॥
ॐ ऐं शां नमः॥४४॥
ॐ ऐं क्रीं नमः॥४५॥
ॐ ऐं श्रौं नमः॥४६॥
ॐ ऐं जुं नमः॥४७॥
ॐ ऐं ह्ल्रूं नमः॥४८॥
ॐ ऐं श्रूं नमः॥४९॥
ॐ ऐं प्रीं नमः॥५०॥
ॐ ऐं रं नमः॥५१॥
ॐ ऐं वं नमः॥५२॥
ॐ ऐं व्रीं नमः॥५३॥
ॐ ऐं ब्लूं नमः॥५४॥
ॐ ऐं स्त्रौं नमः॥५५॥
ॐ ऐं व्लां नमः॥५६॥
ॐ ऐं लूं नमः॥५७॥
ॐ ऐं सां नमः॥५८॥
ॐ ऐं रौं नमः॥५९॥
ॐ ऐं स्हौं नमः॥६०॥
ॐ ऐं क्रूं नमः॥६१॥
ॐ ऐं शौं नमः॥६२॥
ॐ ऐं श्रौं नमः॥६३॥
ॐ ऐं वं नमः॥६४॥
ॐ ऐं त्रूं नमः॥६५॥
ॐ ऐं क्रौं नमः॥६६॥
ॐ ऐं क्लूं नमः॥६७॥
ॐ ऐं क्लीं नमः॥६८॥
ॐ ऐं श्रीं नमः॥६९॥
ॐ ऐं ब्लूं नमः॥७०॥
ॐ ऐं ठां नमः॥७१॥
ॐ ऐं ठ्रीं नमः॥७२॥
ॐ ऐं स्त्रां नमः॥७३॥
ॐ ऐं स्लूं नमः॥७४॥
ॐ ऐं क्रैं नमः॥७५॥
ॐ ऐं च्रां नमः॥७६॥
ॐ ऐं फ्रां नमः॥७७॥
ॐ ऐं ज्रीं नमः॥७८॥
ॐ ऐं लूं नमः॥७९॥
ॐ ऐं स्लूं नमः॥८०॥
ॐ ऐं नों नमः॥८१॥
ॐ ऐं स्त्रीं नमः॥८२॥
ॐ ऐं प्रूं नमः॥८३॥
ॐ ऐं स्रूं नमः॥८४॥
ॐ ऐं ज्रां नमः॥८५॥
ॐ ऐं बौं नमः॥८६॥
ॐ ऐं ओं नमः॥८७॥
ॐ ऐं श्रौं नमः॥८८॥
ॐ ऐं ऋं नमः॥८९॥
ॐ ऐं रूं नमः॥९०॥
ॐ ऐं क्लीं नमः॥९१॥
ॐ ऐं दुं नमः॥९२॥
ॐ ऐं ह्रीं नमः॥९३॥
ॐ ऐं गूं नमः॥९४॥
ॐ ऐं लां नमः॥९५॥
ॐ ऐं ह्रां नमः॥९६॥
ॐ ऐं गं नमः॥९७॥
ॐ ऐं ऐं नमः॥९८॥
ॐ ऐं श्रौं नमः॥९९॥
ॐ ऐं जूं नमः॥१००॥
ॐ ऐं डें नमः॥१०१॥
ॐ ऐं श्रौं नमः॥१०२॥
ॐ ऐं छ्रां नमः॥१०३॥
ॐ ऐं क्लीं नमः॥१०४॥
ॐश्रीं क्लीं ह्रीं ह्रीं फट् स्वाहा॥
इति: प्रथमोध्यायः॥
बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती
।।मध्यम चरित्र।।
।।द्वितीयोऽध्यायः।।
विनियोगः- ॐ मध्यमचरित्रस्य विष्णुर्ऋषिः, महालक्ष्मीर्देवता, उष्णिक् छन्दः, शाकम्भरी शक्तिः,दुर्गा बीजम्, वायुस्तत्त्वम्, यजुर्वेदः स्वरूपम्, श्रीमहालक्ष्मीप्रीत्यर्थं मध्यमचरित्रजपे विनियोगः।
ध्यानम्
ॐ अक्षस्रक्‌परशुं गदेषुकुलिशं पद्मं धनुष्कुण्डिकां दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम्।
शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तैः प्रसन्नाननां सेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम्॥
ॐ ऐं श्रौं नमः॥१॥
ॐ ऐं श्रीं नमः॥२॥
ॐ ऐं ह्सूं नमः॥३॥
ॐ ऐं हौं नमः॥४॥
ॐ ऐं ह्रीं नमः॥५॥
ॐ ऐं अं नमः॥६॥
ॐ ऐं क्लीं नमः॥७॥
ॐ ऐं चां नमः॥८॥
ॐ ऐं मुं नमः॥९॥
ॐ ऐं डां नमः॥१०॥
ॐ ऐं यैं नमः॥११॥
ॐ ऐं विं नमः॥१२॥
ॐ ऐं च्चें नमः॥१३॥
ॐ ऐं ईं नमः॥१४॥
ॐ ऐं सौं नमः॥१५॥
ॐ ऐं व्रां नमः॥१६॥
ॐ ऐं त्रौं नमः॥१७॥
ॐ ऐं लूं नमः॥१८॥
ॐ ऐं वं नमः॥१९॥
ॐ ऐं ह्रां नमः॥२०॥
ॐ ऐं क्रीं नमः॥२१॥
ॐ ऐं सौं नमः॥२२॥
ॐ ऐं यं नमः॥२३॥
ॐ ऐं ऐं नमः॥२४॥
ॐ ऐं मूं नमः॥२५॥
ॐ ऐं सं नमः॥२६॥
ॐ ऐं हं नमः॥२७॥
ॐ ऐं सं नमः॥२८॥
ॐ ऐं सों नमः॥२९॥
ॐ ऐं शं नमः॥३०॥
ॐ ऐं हं नमः॥३१॥
ॐ ऐं ह्रौं नमः॥३२॥
ॐ ऐं म्लीं नमः॥३३॥
ॐ ऐं यूं नमः॥३४॥
ॐ ऐं त्रूं नमः॥३५॥
ॐ ऐं स्त्रीं नमः॥३६॥
ॐ ऐं आं नम:॥३७॥
ॐ ऐं प्रें नम:॥३८॥
ॐ ऐं शं नमः॥३९॥
ॐ ऐं ह्रां नम:॥४०॥
ॐ ऐं स्मूं नमः॥४१॥
ॐ ऐं ऊं नमः॥४२॥
ॐ ऐं गूं नमः॥४३॥
ॐ ऐं व्यं नमः॥४४॥
ॐ ऐं ह्रं नमः॥४५॥
ॐ ऐं भैं नमः॥४६॥
ॐ ऐं ह्रां नमः॥४७॥
ॐ ऐं क्रूं नमः॥४८॥
ॐ ऐं मूं नमः॥४९॥
ॐ ऐं ल्रीं नमः॥५०॥
ॐ ऐं श्रां नमः॥५१॥
ॐ ऐं द्रूं नमः॥५२॥
ॐ ऐं ह्रूं नमः॥५३॥
ॐ ऐं ह्सौं नमः॥५४॥
ॐ ऐं क्रां नमः॥५५॥
ॐ ऐं स्हौं नमः॥५६॥
ॐ ऐं म्लूं नमः॥५७॥
ॐ ऐं श्रीं नमः॥५८॥
ॐ ऐं गैं नमः॥५९॥
ॐ ऐं क्रीं नमः॥६०॥
ॐ ऐं त्रीं नमः॥६१॥
ॐ ऐं क्सीं नमः॥६२॥
ॐ ऐं कं नमः॥६३॥
ॐ ऐं फ्रौं नमः॥६४॥
ॐ ऐं ह्रीं नमः॥६५॥
ॐ ऐं शां नमः॥६६॥
ॐ ऐं क्ष्म्रीं नमः॥६७॥
ॐ ऐं रों नमः॥६८॥
ॐ ऐं ङूं नमः॥६९॥
ॐ ऐं क्रीं क्रां सौं स: फट् स्वाहा ॥
इति द्वितीयोऽध्यायः।।
॥ बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती ।।
।। तृतीयोऽध्यायः॥
ध्यानम्
ॐ उद्यद्भानुसहस्रकान्तिमरुणक्षौमां शिरोमालिकां रक्तालिप्तपयोधरां जपवटीं विद्यामभीतिं वरम्।
हस्ताब्जैर्दधतीं त्रिनेत्रविलसद्वक्त्रारविन्दश्रियं देवीं बद्धहिमांशुरत्ननमुकुटां वन्देऽरविन्दस्थिताम्॥
ॐ ऐं श्रौं नमः॥१॥
ॐ ऐं क्लीं नमः॥२॥
ॐ ऐं सां नम:॥३॥
ॐ ऐं त्रों नम:॥४॥
ॐ ऐं प्रूं नमः॥५॥
ॐ ऐं म्लीं नमः॥६॥
ॐ ऐं क्रौं नम:॥७॥
ॐ ऐं व्रीं नम:॥८॥
ॐ ऐं स्लीं नम:॥९॥
ॐ ऐं ह्रीं नमः॥१०॥
ॐ ऐं ह्रौं नम:॥११॥
ॐ ऐं श्रां नमः॥१२॥
ॐ ऐं ग्रों नमः॥१३॥
ॐ ऐं क्रूं नम:॥१४॥
ॐ ऐं क्रीं नमः॥१५॥
ॐ ऐं यां नम:॥१६॥
ॐ ऐं द्लूं नमः॥१७॥
ॐ ऐं द्रूं नम:॥१८॥
ॐ ऐं क्षं नमः॥१९।।
ॐ ऐं ओं नमः॥२०॥
ॐ ऐं क्रौं नमः॥२१॥
ॐ ऐं क्ष्म्क्ल्रीं नम:॥२२॥
ॐ ऐं वां नम:॥२३॥
ॐ ऐं श्रूं नमः॥२४॥
ॐ ऐं ब्लूं नमः॥२५॥
ॐ ऐं ल्रीं नमः॥२६॥
ॐ ऐं प्रें नम:॥२७॥
ॐ ऐं हूं नम:॥२८॥
ॐ ऐं ह्रौं नमः॥२९॥
ॐ ऐं दें नम:॥३०॥
ॐ ऐं नूं नमः॥३१॥
ॐ ऐं आं नमः॥३२॥
ॐ ऐं फ्रां नम:॥३३॥
ॐ ऐं प्रीं नम:॥३४॥
ॐ ऐं दूं नम:॥३५॥
ॐ ऐं फ्रीं नमः॥३६॥
ॐ ऐं ह्रीं नम:॥३७॥
ॐ ऐं गूं नम:॥३८॥
ॐ ऐं श्रौं नम:॥३९॥
ॐ ऐं सां नम:॥४०॥
ॐ ऐं श्रीं नम:॥४१॥
ॐ ऐं जुं नम:॥४२॥
ॐ ऐं हं नम:॥४३॥
ॐ ऐं सं नम:॥४४॥
‘ॐ ह्रीं श्रीं कुं फट् स्वाहा’ इति तृतीयोऽध्यायः॥
।।बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती ।।
।।चतुर्थोऽध्यायः॥
ध्यानम्
ॐ कालाभ्राभां कटाक्षैररिकुलभयदां मौलिबद्धेन्दुरेखां शड्‌खं चक्रं कृपाणं त्रिशिखमपि करैरुद्वहन्तीं त्रिनेत्राम्।
सिंहस्कन्धाधिरूढां त्रिभुवनमखिलं तेजसा पूरयन्तीं ध्यायेद् दुर्गां जयाख्यां त्रिदशपरिवृतां सेवितां सिद्धिकामैः।
ॐ ऐं श्रौं नमः॥१॥
ॐ ऐं सौं नमः॥२॥
ॐ ऐं दों नम:॥३॥
ॐ ऐं प्रें नमः॥४॥
ॐ ऐं यां नम:॥५॥
ॐ ऐं रूं नमः॥६॥
ॐ ऐं भं नम:॥७॥
ॐ ऐं सूं नमः॥८॥
ॐ ऐं श्रां नमः॥९॥
ॐ ऐं औं नमः॥१०॥
ॐ ऐं लूं नमः॥११॥
ॐ ऐं डूं नमः॥१२॥
ॐ ऐं जूं नमः॥१३॥
ॐ ऐं धूं नम:..१४॥
ॐ ऐं त्रें नमः॥१५॥
ॐ ऐं ह्रीं नमः॥१६॥
ॐ ऐं श्रीं नमः॥१७॥
ॐ ऐं ईं नमः॥१८॥
ॐ ऐं ह्रां नमः॥१९॥
ॐ ऐं ह्लरूं नमः॥२०॥
ॐ ऐं क्लूं नम:॥२१॥
ॐ ऐं क्रां नमः॥२२॥
ॐ ऐं ल्लूं नम:..२३॥
ॐ ऐं फ्रें नम:॥२४॥
ॐ ऐं क्रीं नम:॥२५॥
ॐ ऐं म्लूं नम:॥२६॥
ॐ ऐं घ्रें नम:॥२७॥
ॐ ऐं श्रौं नम:॥२८॥
ॐ ऐं ह्रौं नम:॥२९॥
ॐ ऐं व्रीं नम:॥३०॥
ॐ ऐं ह्रीं नम:॥३१॥
ॐ ऐं त्रौं नम:॥३२॥
ॐ ऐं हसौं नम:॥३३॥
ॐ ऐं गीं नम:॥३४॥
ॐ ऐं यूं नमः ॥३५॥
ॐ ऐं ह्रीं नमः ॥३६॥
ॐ ऐं ह्लूं नमः॥३७॥
ॐ ऐं श्रौं नम:॥३८॥
ॐ ऐं ओं नम:॥३९॥
ॐ ऐं अं नम:॥४०॥
ॐ ऐं म्हौं नम:॥४१॥
ॐ ऐं प्रीं नम:॥४२॥
ॐ अं ह्रीं श्रीं हंसः फट्स्वाहा’ 
इतिचतुर्थोऽध्यायः।

।।बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती।।
॥उत्तरचरित्र॥
॥पञ्चमोऽध्यायः॥
विनियोगः-ॐ अस्य श्रीउत्तरचरित्रस्य रूद्र ऋषिः, महासरस्वती देवता, अनुष्टुप् छन्दः, भीमा शक्तिः,
भ्रामरी बीजम्, सूर्यस्तत्त्वम्, सामवेदः स्वरूपम्, महासरस्वतीप्रीत्यर्थे उत्तरचरित्रपाठे विनियोगः।
ध्यानम्
ॐ घण्टाशूलहलानि शङ्‌खमुसले चक्रं धनुः सायकं हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम्।
गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महा-पूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम्॥
ॐ ऐं श्रौं नमः।।१॥
ॐ ऐं प्रीं नमः।।२॥
ॐ ऐं आं नम:।‌।३।।
ॐ ऐं ह्रीं नम:।।४।।
ॐ ऐं ल्रीं नम:।।५।।
ॐ ऐं त्रों नम:।।६।।
ॐ ऐं क्रीं नम:।।७।‌
ॐ ऐं ह्सौं नमः।।८।।
ॐ ऐं ह्रीं नमः।।९।।
ॐ ऐं श्रीं नमः।।१०।।
ॐ ऐं हूं नमः।‌११।
ॐ ऐं क्लीं नमः।।१२।।
ॐ ऐं रौं’ नमः।।१३।।
ॐ ऐं स्त्रीं नमः।।१४।।
ॐ ऐं म्लीं नमः।।१५।।
ॐ ऐं प्लूं नमः।।१६।।
ॐ ऐं स्हां नमः।‌१७।।
ॐ ऐं स्त्रीं नमः।।१८।।
ॐ ऐं. ग्लूं नमः।।१९।।
ॐ ऐं व्रीं नम:।‌।२०।।
ॐ ऐं सौं नम:।‌२१।।
ॐ ऐं लूं नमः।।२२।।
ॐ ऐं ल्लूं नमः।।२३।।
ऊं ऐं द्रां नमः।।२४।।
ॐ ऐं क्सां नम:।।२५।।
ॐ ऐं क्ष्म्रीं नम:।।२६।।
ॐ ऐं ग्लौं नमः।।२७।।
ॐ ऐं स्कूं नमः।।२८।।
ॐ ऐं त्रूं नम:।।२९।।
ॐ ऐं स्क्लूं नमः।।३०।।
ॐ ऐं क्रौं नम:।।३१।।
ॐ ऐं छ्रीं नम:।‌३२॥
ॐ ऐं म्लूं नम:।।३३।।
ॐ ऐं क्लूं नमः।।३४।।
ॐ ऐं शां नम:।।३५।।
ॐ ऐं ल्हीं नम:।।३६‌।।
ॐ ऐं स्त्रूं नम:।।३७।।
ॐ ऐं ल्लीं नमः।।३८॥
ॐ ऐं लीं नम:।।३९।।
ॐ ऐं सं नम:।।४०।।
ॐ ऐं लूं नमः ।‌४१।
ॐ ऐं ह्सूं नमः।।४२।।
ॐ ऐं श्रूं नम:।।४३।।
ॐ ऐं जूं नम:।।४४।।
ॐ ऐं ह्स्ल्रीं नम:।।४५।।
ॐ ऐं स्कीं नम:।।४६।।
ॐ ऐं क्लां नम:।।४७।।
ॐ ऐं श्रूं नम:।।४८।।
ॐ ऐं हं नम:।।४९।।
ॐ ऐं ह्लीं नम:।‌।५०।।
ॐ ऐं क्स्रूं नमः।।५१।।
ॐ ऐं द्रौं नम:।‌।५२।।
ॐ ऐं क्लूं नम:।।५३।।
ॐ ऐं गां नम:।।५४।।
ॐ ऐ सं नम:।।५५।।
ॐ ऐं ल्स्रां नम:।‌।५६।।
ॐ ऐं फ्रीं नम:।।५७।।
ॐ ऐं स्लां नम:‌‌।।५८।।
ॐ ऐं ल्लूं नमः।।५९।।
ॐ ऐं फ्रें नमः।।६०।।
ॐ ऐं ओं नमः।।६१।
ॐ ऐं स्म्लीं नमः।।६२।।
ॐ ऐं ह्रां नम:।।६३।।
ॐ ऐं ओं नम:।।६४।।
ॐ ऐं ह्लूं नम:।।६५।।
ॐ ऐं हूं नम:।।६६।।
ॐ ऐं नं नम:।।६७।।
ॐ ऐं स्रां नम:।।६८।।
ॐ ऐं वं नमः।।६९।।
ॐ ऐं मं नम:।।७०।।
ॐ ऐं म्क्लीं नम:।।७१।।
ॐ ऐं शां नम:।।७२।।
ॐ ऐं लं नम:।।७३।।
ॐ ऐं भैं नम:।।७४।।
ॐ ऐं ल्लूं नम:।।७५।।
ॐ ऐं हौं नम:।।७६।।
ॐ ऐं ईं नम:।।७७।।
ॐ ऐं चें नम:।।७८।।
ॐ ऐं ल्क्रीं नम:।।७९।।
ॐ ऐं ह्ल्रीं नम:।।८०।।
ॐ ऐं क्ष्म्ल्रीं नम:।।८१।।
ॐ ऐं यूं नमः।।८२।।
ॐ ऐं श्रौं नम:।।८३।।
ॐ ऐं ह्रौं नमः।।८४।
ॐ ऐं भ्रूं नमः‌‌।।८५।।
ॐ ऐं क्स्त्रीं नमः।।८६।।
ॐ ऐं आं नमः।।८७।।
ॐ ऐं क्रूं नम:।।८८।।
ॐ ऐं त्रूं नमः।।८९।।
ॐ ऐं डूं नम:।।९०।।
ॐ ऐं जां नम:।।९१।।
ॐ ऐं ह्ल्रूं नम:।।९२।।
ॐ ऐं फ्रौं नमः।।९३।।
ॐ ऐं क्रौं नम:।।९४।।
ॐ ऐं किं नम:।।९५।।
ॐ ऐं ग्लूं नमः।।९६।।
ॐ ऐं छ्रक्लीं नम:।।९७।।
ॐ ऐं रं नमः।।९८॥
ॐ ऐं क्सैं नमः।।९९।।
ॐ ऐं स्हुं नमः।।१००।।
ॐ ऐं श्रौं नमः।।१०१।।
ॐ ऐं ह्श्रीं नमः।।१०२।।
ॐ ऐं ओं नमः।।१०३।।
ॐ ऐं लूं नमः।।१०४।।
ॐ ऐं ल्हूं नमः।।१०५।।
ॐ ऐं ल्लूं नमः।।१०६।।
ॐ ऐं स्क्रीं नम:।।१०७।।
ॐ ऐं स्स्रौं नमः।।१०८।।
ॐ ऐं स्श्रूं नमः।।१०९।।
ॐ ऐं क्ष्म्क्लीं नम:।।११०।।
ॐ ऐं व्रीं नम:।।१११।।
ॐ ऐं सीं नमः।।११२।।
ॐ ऐं भ्रूं नमः।।११३।।
ॐ ऐं लां नमः।।११४।।
ॐ ऐं श्रौं नमः।।११५।।
ॐ ऐं स्हैं नमः।‌११६।।
ॐ ऐं ह्रीं नमः।।११७।।
ॐ ऐं श्रीं नमः११८।।
ॐ ऐं फ्रें नमः११९।।
ॐ ऐं रूं नमः१२०॥
ॐ ऐं च्छूं नमः।।१२१।।
ॐ ऐं ल्हूं नमः।।१२२।।
ॐ ऐं कं नमः।‌१२३।।
ॐ ऐं द्रें नमः।।१२४।।
ॐ ऐं श्रीं नमः।।१२५।।
ॐ ऐं सां नमः।।१२६।।
ॐ ऐं ह्रीं नमः।।१२७।।
ॐ ऐं ऐं नमः।।१२८।।
ॐ ऐं स्क्लीं नमः१२९॥
‘ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे स्वाहा'इति पंचमोऽध्यायः॥ 
।।बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती।।
।।षष्ठोऽध्यायः॥
ध्यानम्
ॐ नागाधीश्वसरविष्टरां फणिफणोत्तंसोरुरत्नावली- भास्वद्देहलतां दिवाकरनिभां नेत्रत्रयोद्भासिताम्।
मालाकुम्भकपालनीरजकरां चन्द्रार्धचूडां परां सर्वज्ञेश्वारभैरवाङ्‌कनिलयां पद्मावतीं चिन्तये॥
ॐ ऐं श्रौं नमः।।१।।
ॐ ऐं ओं नमः।।‌२।।
ॐ ऐं त्रूं नम:।।३।।
ॐ ऐं ह्रौं नम:।।४।।
ॐ ऐं क्रौं नम:।।५।।
ॐ ऐं श्रौं नमः।।६।।
ॐ ऐं त्रीं नम:।।७।।
ॐ ऐं क्लीं नम:।।८।।
ॐ ऐं प्रीं नम:।।९।।
ॐ ऐं ह्रीं नम:।।१०।।
ॐ ऐं ह्रौं नम:।।११।।
ॐ ऐं श्रौं नमः।।१२।।
ॐ ऐं ऐं नम:।‌१३।।
ॐ ऐं ओं नमः।।१४।।
ॐ ऐं श्रीं नमः।।१५।।
ॐ ऐं क्रां नमः।।१६।।
ॐ ऐं हूं नम:।।१७।।
ॐ ऐं छ्रां नमः।।१८।।
ॐ ऐं क्ष्म्क्ल्रीं नमः।।१९।।
ॐ ऐं ल्लूं नमः।।२०।।
ॐ ऐं सौं नमः।।२१।।
ॐ ऐं ह्लौं नमः।।२२।।
ॐ ऐं क्रूं नमः।।२३।।
ॐ ऐं सौं नम।।:२४।।
‘ॐ श्रीं यं ह्रीं क्लीं ह्रीं फट् स्वाहा इति षष्ठोऽध्यायः॥ 
।।बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती।। 
।।।सप्तमोऽध्यायः॥
ध्यानम्
ॐ ध्यायेयं रत्नपीठे शुककलपठितं शृण्वतीं श्यामलाङ्‌गीं
न्यस्तैकाङ्‌घ्रिं सरोजे शशिशकलधरां वल्लकीं वादयन्तीम्।
कह्लाराबद्धमालां नियमितविलसच्चोलिकां रक्तवस्त्रां
मातङ्‌गीं शङ्खमपात्रां मधुरमधुमदां चित्रकोद्भासिभालाम्॥
ॐ ऐं श्रौं नमः।।१।
ॐ ऐं कूं नमः।।२।।
ॐ ऐं ह्लीं नम:।।३।
ॐ ऐं ह्रं नम:।।४।।
ॐ ऐं मूं नम:।।५।।
ॐ ऐं त्रौं नमः।।६।।
ॐ ऐं ह्रौं नम:।।७।।
ॐ ऐं ओं नमः।।८।।
ॐ ऐं ह्सूं नमः।।९।।
ॐ ऐं क्लूं नमः।।१०।।
ॐ ऐं कें नमः।।११।।
ॐ ऐं नें नमः।।१२।।
ॐ ऐं लूं नमः।।१३।।
ॐ ऐं ह्स्लीं नमः।।१४।।
ॐ ऐं प्लूं नमः।।१५।।
ॐ ऐं शां नमः।।१६।।
ॐ ऐं स्लूं नमः।।१७।।
ॐ ऐं प्लीं नमः।।१८।।
ॐ ऐं प्रैं नमः।।१९।।
ॐ ऐं अं नम:।‌२०।।
ॐ ऐं औं नम:।।२१।।
ॐ ऐं म्ल्रीं नम:।।२२।।
ॐ ऐं श्रां नम:‌।।२३।।
ॐ ऐं सौं नम:।।२४।।
ॐ ऐं श्रौं नम:।।२५।।
ॐ ऐं प्रीं नम:।।२६।।
ॐ ऐं ह्स्व्रीं नम:।।२७।।
‘ॐरं रं रं कं कं कं जं जं जं चामुण्डायै फट् स्वाहा’
इति सप्तमोऽध्यायः॥
।।बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती।। 
।।अष्टमोऽध्यायः॥
ध्यानम्
ॐ अरुणां करुणातरङ्‌गिताक्षीं धृतपाशाङ्‌कुशबाणचापहस्ताम्।
अणिमादिभिरावृतां मयूखै-रहमित्येव विभावये भवानीम्॥
ॐ ऐं श्रौं नमः।।१।।
ॐ ऐं म्ह्ल्रीं नम:।।२।।
ॐ ऐं प्रूं नम:।।३।।
ॐ ऐं ऐं नम:।।४।।
ॐ ऐं क्रों नम:।।५।।
ॐ ऐं ईं नमः।।६।।
ॐ ऐं ऐं नम:।।७।।
ॐ ऐं ल्रीं नमः।।८।।
ॐ ऐं फ्रौं नमः।।९।।
ॐ ऐं म्लूं नमः।।१०॥
ॐ ऐं नों नमः।।११।।
ॐ ऐं हूं नमः।।१२।।
ॐ ऐं फ्रीं नमः।।१३।।
ॐ ऐं ग्लौं नमः।।१४।।
ॐ ऐं स्मौं नमः।।१५।।
ॐ ऐं सौं नमः।।१६।।
ॐ ऐं श्रीं नमः।।१७।।
ॐ ऐं स्हौं नमः।।१८।।
ॐ ऐं ख्सें नमः।।१९।।
ॐ ऐं क्ष्म्लीं नम:।।२०।।
ॐ ऐं ह्रां नम:।।२१।।
ॐ ऐं वीं नम:।।२२।।
ॐ ऐं लूं नम:।।२३।।
ॐ ऐं ल्सीं नमः।।२४।।
ॐ ऐं ब्लों नमः।।२५।।
ॐ ऐं त्स्रों नमः।।२६।।
ॐ ऐं ब्रूं नम:।।२७।।
ॐ ऐं श्ल्कीं नमः।।२८॥
ॐ ऐं श्रूं नम।।:२९।।
ॐ ऐं ह्रीं नमः।।३०।।
ॐ ऐं शीं नम:।।१।।
ॐ ऐं क्लीं नम:।।३२।।
ॐ ऐं क्लौं नमः।।३३।।
ॐ ऐं प्रूं नम:।।३४।।
ॐ ऐं ह्रूं नमः।।३५।।
ॐ ऐं क्लूं नम:।।३६।।
ॐ ऐं तौं नम:।।३७।।
ॐ ऐं म्लूं नमः‌‌।।३८।।
ॐ ऐं हं नम:।।३९।।
ॐ ऐं स्लूं नमः।।४०॥
ॐ ऐं औं नम:।।४१।।
ॐ ऐं ल्हीं नम:।।४२॥
ॐ ऐं.श्ल्रीं नम:।।४३॥
ॐ ऐं यां नम:।।४४।।
ॐ ऐं थ्लीं नम:।।४५।‌
ॐ ऐं ल्हीं नम:।।४६।।
ॐ ऐं ग्लौं नम:।।४७।।
ॐ ऐं ह्रौं नम:।।४८।।
ॐ ऐं प्रां नम:।।४९।।
ॐ ऐं क्रीं नम:।।५०।।
ॐ ऐं क्लीं नम।।:५१।।
ॐ ऐं नस्लूं नम:।।५२।।
ॐ ऐं हीं नम:।।५३।।
ॐ ऐं ह्लौं नमः।।५४।।
ॐ ऐं ह्रैं नम:।।५५।।
ॐ ऐं भ्रं नम:।।५६।।
ॐ ऐं सौं नम:।।५७।।
ॐ ऐं श्रीं नम:।।५८।।
ॐ ऐं सूं नमः।।५९।।
ॐ ऐं द्रौं नम:।।६०।।
ॐ ऐं स्स्रां नमः।।६१।।
ॐ ऐं ह्स्लीं नम:।।६२।
ॐ ऐं स्ल्ल्रीं नमः।।६३।।
ॐ शां सं श्रीं श्रं अं अः क्लीं ह्लीं फट् स्वाहा’ – इत्यष्टमोऽध्यायः।
॥ बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती।।
।।नवमोऽध्याय:।।
ध्यानम्
ॐ बन्धूककाञ्चननिभं रुचिराक्षमालां
पाशाङ्कुशौ च वरदां निजबाहुदण्दैः।
बिभ्राणमिन्दुशकलाभरणं त्रिनेत्र-
मर्धाम्बिकेशमनिशं वपुराश्रयामि।।
ॐ ऐं रौं नमः।।१।।
ॐ ऐं क्लीं नमः।।२।।
ॐ ऐं म्लौं नम:।।३।।
ॐ ऐं श्रौं नम:।।४।।
ॐ ऐं ग्लीं नम:।।५।।
ॐ ऐं ह्रौं नम:।।६।।
ॐ ऐं ह्सौं नम:।।७।।
ॐ ऐं ईं नम:।।८।।
ॐ ऐं ब्रूं नम:।।९।।
ॐ ऐं श्रां नमः।।१०।।
ॐ ऐं लूं नम:।।११।।
ॐ ऐं आं नमः।।१२।।
ॐ ऐं श्रीं नमः।।१३।।
ॐ ऐं क्रौं नमः।।१४।।
ॐ ऐं प्रूं नमः।।१५।।
ॐ ऐं क्लीं नम:।।१६।।
ॐ ऐं भ्रं नमः।।१७।।
ॐ ऐं ह्रौं नम:।।१८।।
ॐ ऐं क्रीं नम:।।१९।।
ॐ ऐं म्लीं नम:।।२०॥
ॐ ऐं ग्लौं नमः।।२१।
ॐ ऐं ह्सूं नम:।।२२।।
ॐ ऐं ल्पीं नम:।।२३।।
ॐ ऐं ह्रौं नम:।।२४।।
ॐ ऐं ह्स्रां नम:।।२५।।
ॐ ऐं स्हौं नमः।।२६।।
ॐ ऐं ल्लूं नम:।।२७।।
ॐ ऐं क्स्लीं नम:।।२८।।
ॐ ऐं श्रीं नम:।।२९।।
ॐ ऐं स्तूं नमः।।३०।।
ॐ ऐं च्रें नम:।।३१।।
ॐ ऐं वीं नम:।।३२।।
ॐ ऐं क्ष्लूं नमः।।३३।।
ॐ ऐं श्लूं नम:।।३४।।
ॐ ऐं क्रूं नम:।।३५।।
ॐ ऐं क्रां नमः।।३६।।
ॐ ऐं ह्रौं नमः।।३७।।
ॐ ऐं क्रां नम:।।३८।।
ॐ ऐं स्क्ष्लीं नम:।।३९।।
ॐ ऐं सूं नमः।।४०।।
ॐ ऐं फ्रूं नम:।।४१।।
‘ॐ ऐं ह्रीं श्रीं सौं फट् स्वाहा’ इति नवमोऽध्यायः।
॥ बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती।।
ध्यानम्॥ 
।।बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती।।
।।दशमोऽध्यायः॥
ध्यानम्ॐ उत्तप्तहेमरुचिरां रविचन्द्रवह्नि-नेत्रां धनुश्शरयुताङ्‌कुशपाशशूलम्।
रम्यैर्भुजैश्चर दधतीं शिवशक्तिरूपां कामेश्वभरीं हृदि भजामि धृतेन्दुलेखाम्॥ॐ ऐं श्रौं नमः।।१।।
ॐ ऐं ह्रीं नम:।।२।।
ॐ ऐं ब्लूं नमः।।३।।
ॐ ऐं ह्रीं नम:।।४।।
ॐ ऐं म्लूं नमः।।५।।
ॐ ऐं श्रौं नम:।।६।।
ॐ ऐं ह्रीं नम:।।७।।
ॐ ऐं ग्लीं नम:।।८।।
ॐ ऐं श्रौं नमः।।९।।
ॐ ऐं ध्रूं नमः।।१०।।
ॐ ऐं हुं नमः।।११।
ॐ ऐं द्रौं नमः।।१२।
ॐ ऐं श्रीं नमः।।१३।
ॐ ऐं श्रूं नमः।।१४।।
ॐ ऐ ब्रूं नमः।।१५।।
ॐ ए फ्रें नमः।।१६।।
ऐं ह्रां नमः।।१७।।
ॐ ऐं जुं नमः।।१८।।
ॐ ऐं स्रौं नमः।।१९।।
ॐ ऐं स्लूं नमः।‌२०।।
ॐ ऐं प्रें नम:।।२१।।
ॐ ऐं ह्स्वां ननम।।२२॥
ॐ ऐं प्रीं नम:।।२३।
ॐ ऐं फ्रां नमः।।२४।।
ॐ ऐं क्रीं नमः।।२५॥
ॐ ऐं श्रीं नम:।।२६।।
ॐ ऐं क्रां नमः।।२७।।
ॐ ऐं सः नम:।।‌२८।‌।
ॐ ऐं क्लीं नम:।।२९।।
ॐ ऐं व्रें नमः।‌३०।।
ॐ ऐं ईं नमः।।३१।।
ॐ ऐं ज्स्ह्ल्रां नमः।।३२॥
ॐ ऐं ञ्स्ह्लीं नमः३३।
ॐ ऐं ह्रीं नमः क्लीं ह्रीं फट् स्वाहा’ इति दशमोऽध्याय: ।
॥ बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती।।
।। एकादशोऽध्यायः॥
ध्यानम्ॐ बालरविद्युतिमिन्दुकिरीटां तुङ्‌गकुचां नयनत्रययुक्ताम्।
स्मेरमुखीं वरदाङ्‌कुशपाशाभीतिकरां प्रभजे भुवनेशीम्॥
ॐ ऐं श्रौं नम:‌।‌१।।
ॐ ऐं क्रूं नमः।‌।२।।
ॐ ऐं श्रीं नम:।।३।।
ॐ ऐं ल्लीं नम:।।४।।
ॐ ऐं प्रें नम:।।५।।
ॐ ऐं सौं नमः।।६।।
ॐ ऐं स्हौं नम:।।७।।
ॐ ऐं श्रूं नमः।।८।।
ॐ ऐं क्लीं नम:।।९।।
ॐ ऐं स्क्लीं नमः।।१०।।
ॐ ऐं प्रीं नम:।।११।।
ॐ ऐं ग्लौं नमः१२।
ॐ ऐ ह्ह्रीं नमः।।१३।।
ॐ ऐं स्तौं नमः।।१४।।
ॐ ऐं क्लीं नम:।।१५।।
ॐ ऐं म्लीं नमः।।१६।।
ॐ ऐं स्तूं नमः।।१७।।
ॐ ऐं ज्स्ह्रीं नमः।।१८।।
ॐ ऐं फ्रूं नमः।।१९।।
ॐ ऐं क्रूं नम:।।२०।।
ॐ ऐं ह्रीं नमः।।२१।।
ॐ ऐं ल्लूं नम:।।२२।।
ॐ ऐं क्ष्म्रीं नम।।:२३।।
ॐ ऐं श्रूं नम:‌।२४।।
ॐ ऐं इं नमः‌।२५।।
ॐ ऐं जुं नमः।।२६।।
ॐ ऐं त्रैं नम:।।२७।।
ॐ ऐं द्रूं नमः।।२८।।
ॐ ऐं ह्रौं नम:।।२९।।
ॐ ऐं क्लीं नम:।।३०॥
ॐ ऐं सूं नम:।।३१।।
ॐ ऐं हौं नमः३२।
ॐ ऐं श्व्रं नमः।।३३।
ॐ ऐं व्रूं नम:।।३४।
ॐ ऐं फां नम:।।३५।।
ॐ ऐं ह्रीं नम:।।३६।।
ॐ ऐं लं नम:३७।
ॐ ऐं ह्सां नमः।।३८।।
ॐ ऐं सें नम:‌‌।।३९।।
ॐ ऐं ह्रीं नम:।।४०।।
ॐ ऐं ह्रौं नम:‌‌।।४१।।
ॐ ऐं विं नम:४२।
ॐ ऐं प्लीं नम।।:४३।।
ॐ ऐं क्ष्म्क्लीं नम:।।४४।।
ॐ ऐं त्स्रां नम:।।४५।।
ॐ ऐं प्रं नम:।।४६।।
ॐ ऐं म्लीं नम:‌।‌४७।।
ॐ ऐं स्रूं नम:।‌४८।‌।
ॐ ऐं क्ष्मां नम:।।४९।।
ॐ ऐं स्तूं नम: ।।५०।।
ॐ ऐं स्ह्रीं नम:।।५१।।
ॐ ऐं थ्प्रीं नम:।।५२।।
ॐ ऐं क्रौं नम:।।५३।।
ॐ ऐं श्रां नम:।।५४।।
ॐ ऐं म्लीं नम:।।५५।।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं सौं नमः फट् स्वाहा’
इति एकादशोऽध्यायः॥ 
।।बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती।।
।। द्वादशोऽध्यायः॥
ध्यानम्
ॐ विद्युद्दामसमप्रभां मृगपतिस्कन्धस्थितां भीषणां कन्याभिः करवालखेटविलसद्धस्ताभिरासेविताम्।
हस्तैश्च क्रगदासिखेटविशिखांश्चातपं गुणं तर्जनीं बिभ्राणामनलात्मिकां शशिधरां दुर्गां त्रिनेत्रां भजे॥ॐ ऐं ह्रीं नमः।।१।।
ॐ ऐ ओं नम:।।२।।
ॐ ऐं श्रीं नम:।।३।।
ॐ ऐं ईं नम:।।४।।
ॐ ऐं क्लीं नम:।।५।।
ॐ ऐं क्रूं नमः।।६।।
ॐ ऐं श्रूं नम:।।७।।
ॐ ऐं प्रां नमः।।८।।
ॐ ऐं क्रूं नमः।।९।।
ॐ ऐं दिं नमः।।१०।।
ॐ ऐं फ्रें नमः।।११।।
ॐ ऐं हं नम:।।१२।।
ॐ ऐं सः नमः।।१३।।
ॐ ऐं चें नम:।।१४।।
ॐ ऐं सूं नमः।।१५।।
ॐ ऐं प्रीं नमः।।१६।।
ॐ ऐं ब्लूं नमः।।१७।।
ॐ ऐं आं नमः।।१८।।
ॐ ऐं औं नमः।।१९।।
ॐ ऐं ह्रीं नमः।।२०‌।।
ॐ ऐं क्रीं नम:।।२१।।
ॐ ऐं द्रां नमः।।२२॥
ॐ ऐं श्रीं नम:।‌।२३।।
ॐ ऐं स्लीं नम:।।२४।।
ॐ ऐं क्लीं नम:।।२५।।
ॐ ऐं स्लूं नम:।।२६।।
ॐ ऐं ह्रीं नम:।।२७।।
ॐ ऐं ब्लीं नम:।।२८।।
ॐ ऐं त्रों नमः।।२९।।
ॐ ऐं ओं नमः।।३०।।
ॐ ऐं श्रौं नम।।:३१।
ॐ ऐं ऐं नम:३२।
ॐ ऐं प्रें नम:।।३३।
ॐ ऐं द्रूं नम:।।३४।
ॐ ऐं क्लूं नम:।।३५।।
ॐ ऐं औं नम:।।३६।।
ॐ ऐं सूं नम:।।३७।।
ॐ ऐं चें नम:।।३८।।
ॐ ऐं हैं नम:।।३९।।
ॐ ऐं प्लीं नम:।।४०।।
ॐ ऐं क्षां नम:।।४१।।
‘ॐ यं यं यं रं रं रं ठं ठं ठं फट् स्वाहा’ इति द्वादशोऽध्यायः॥
।।बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती।।
।।त्रयोदशोऽध्यायः॥
ध्यानम्
ॐ बालार्कमण्डलाभासां चतुर्बाहुं त्रिलोचनाम्। पाशाङ्‌कुशवराभीतीर्धारयन्तीं शिवां भजे॥
ॐ ऐं श्रौं नमः।।१।।
ॐ ऐं व्रीं नमः।।२।।
ॐ ऐं ओं नमः।।३।।
ॐ ऐं औं नम:।।४।।
ॐ ऐं ह्रां नम:।।५।।
ॐ ऐं श्रीं नम:।६।।
ॐ ऐं श्रां नम:।।७।।
ॐ ऐं ओं नमः‌ ‌।।८।।
ॐ ऐं प्लीं नम:।।९।।
ॐ ऐं सौं नमः।।१०।।
ॐ ऐं ह्रीं नम:।।११।।
ॐ ऐं क्रीं नमः।।१२।।
ॐ ऐं ल्लूं नमः।।१३।।
ॐ ऐं क्लीं नमः।।१४।।
ॐ ऐं ह्रीं नमः।।१५।।
ॐ ऐं प्लीं नमः।।१६।।
ॐ ऐं श्रीं नम:।।१७।।
ॐ ऐं ल्लीं नमः।।१८।।
ॐ ऐं श्रूं नमः।।१९।।
ॐ ऐं ह्रीं नमः।।:२०।।
ॐ ऐं त्रूं नम:।।२१।।
ॐ ऐं हूं नम:।।२२।।
ॐ ऐं प्रीं नम:।।२३।।
ॐ ऐं ओं नमः।।२४।।
ॐ ऐं सूं नम:।।२५।।
ॐ ऐं श्रीं नम:।।२६।।
ॐ ऐं ह्लौं नमः।।२७।।
ॐ ऐं यौं नमः।।२८।।
ॐ ऐं यौं नम:।।२९॥
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे’ स्वाहा॥ इति त्रयोदशोऽध्यायः।।
हरि ॐ तत्सत्।
इसके बाद पुनः सप्तशती न्यास आदि करने उपरांत नवार्ण मंत्र का जप करके देवी सूक्तम् का पाठ करें।शापोद्धार मंत्र- शापोद्धार के लिए नीचे वर्णित मंत्र का ७ बार आदि व अन्त में जप करना चाहिये।
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा’ ।।१।।
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा’।।२।।
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा’।।३।।
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा’।।४।।
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा’।।५।।
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा’ ।।६।
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा ।।७।।
उत्कीलन मंत्र- शापोद्धार के बाद उत्कीलन-मंत्र का २१ बार  अन्त में जप करना चाहिये।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।
नवार्णमन्त्र जपविधि:
तांत्रिक देवीसूक्त के पाठ के उपरान्त नवार्ण मंत्र का कम से कम १०८ बार जप किया जाना चाहिये । नवार्ण मंत्र के जप के पहले विनियोग, न्यास आदि सम्पन्न करें।
नवार्ण मंत्र का विनियोग-न्यासादि:
विनियोग:—
ॐ अस्य श्रीनवार्णमन्त्रस्य ब्रह्मविष्णुरुद्रा ऋषय:, गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छदांसि,
श्रीमहाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वत्यो देवता:, ऐं बीजम्, ह्रीं शक्ति:, क्लीं कीलकम्,
श्रीमहाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वतीप्रीत्यर्थे जपे विनियोग:।
तत्पश्चात् मंत्रों द्वारा इस भावना से की शरीर के समस्त अंगों में मंत्ररूप से देवताओं का वास हो रहा है , न्यास करें। ऐसा-करने से पाठ या जप करने वाला व्यक्ति मंत्रमय हो जाता है तथा मंत्र में अधिष्ठित देवता उसकी रक्षा करते हैं | इसके अतिरिक्त न्यास द्वारा उसके बाहर-भीतर की शुद्धि होती है और साधना निर्विघ्न पूर्ण होती है । ऋष्यादिन्यास ,करन्यास, हृदयादिन्यास, अक्षरन्यास, तथा दिड्.न्यास  के लिए सम्पूर्ण दुर्गासप्तशती देखें।
ऋष्यादिन्यास:—
ब्रह्मविष्णुरुद्रऋषिभ्यो नम: शिरसि । गायत्र्युष्णिण-गनुष्टुप्छन्दोभ्यो नम: मुखे ।
महाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वतीदेवताभ्यो नम: हृदि ।
ऐं बीजाय नम: गुह्ये ।
ह्रीं शक्तये नम: पादयो: ।
क्लीं कीलकाय नम: नाभौ ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै सर्वाङ्गे।
करन्यास:—
ॐ ऐं अङ्गुष्ठाभ्यां नम: ।
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नम: ।
ॐ क्लीं मध्यमाभ्यां नम: ।
ॐ चामुण्डायै अनामिकाभ्यां नम: ।
ॐ विच्चे कनिष्ठिकाभ्यां नम: ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे करतल-करपृष्ठाभ्यां नम: ।हृदयादिन्यास:—
ॐ ऐं हृदयाय नम: ।
ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा ।
ॐ क्लीं शिखायै वषट् ।
ॐ चामुण्डायै कवचाय हुम् ।
ॐ विच्चे नेत्रत्रयाय वौषट् ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे अस्त्राय फट् ।
अक्षरन्यास:—
ॐ ऐं नम: शिखायाम् ।
ॐ ह्रीं नम: दक्षिणनेत्रे ।
ॐ क्लीं नम: वामनेत्रे ।
ॐ चां नम: दक्षिणकर्णे ।
ॐ मुं नम: वामकर्णे ।
ॐ डां नम: दक्षिणनासायाम् ।
ॐ यैं नम: वामनासायाम् ।
ॐ विं नम: मुखे ।
ॐ च्चें नम: गुह्ये ।
एवं विन्यस्य ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे’ इति नवार्णमन्त्रेण अष्टवारं व्यापकं कुर्यात् ।
दिङ्न्यास:—
ॐ ऐं प्राच्यै नम: ।
ॐ ऐं आग्नेय्यै नम: ।
ॐ ह्रीं नैऋत्यै नम: ।
ॐ क्लीं प्रतीच्यै नम: ।
ॐ क्लीं वायव्यै नम: ।
ॐ चामुण्डायै उदीच्यै नम: ।
ॐ चामुण्डायै ऐशान्यै नम: ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डा
यै विच्चे ऊर्ध्वायै नम: ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे भूम्यै नम: ।
अंगन्यासः-
ॐ ऐं स्लूं अंगुष्ठाभ्यां नमः।
ॐ ऐं फ्रें तर्जनीभ्यां नमः।
ॐ ऐं क्रीं मध्यमाभ्यां नमः।
ॐ ऐं म्लूं अनामिकाभ्यां नमः।
ॐ ऐं घ्रें कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।
ॐ ऐं श्रूं करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
ऋष्यादिन्यासः-
ॐ ऐं स्लूं हृदयाय नमः।
ॐ ऐं फ्रें शिरसे स्वाहा ।
ॐ ऐं क्रीं शिखायै वषट् ।
ॐ ऐं म्लूं कवचाय हुं।
ॐ ऐं घ्रें नेत्रत्रयाय वौषट् ।
ॐ ऐं श्रूं अस्त्राय फट् ।।
।।ध्यानमंत्रम्।।
या चण्डी मधुकैटभादि दैत्यदलनी या महिषोन्मूलिनी,
या धूम्रेक्षणचण्डमुण्ड मथनी या रक्तबीजाशिनी।
ध्यानम्
खड्‌गं चक्रगदेषुचापपरिघाञ्छूलं भुशुण्डीं शिरः शङ्खं संदधतीं करैस्त्रिनयनां सर्वाङ्गभूषावृताम्।
नीलाश्मद्युतिमास्यपाददशकां सेवे महाकालिकां यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधुं कैटभम्॥१॥
अक्षस्रक्परशुं गदेषुकुलिशं पद्मं धनुष्कुण्डिकां दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम्।
शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तैः प्रसन्नाननां सेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम्॥२॥
घण्टाशूलहलानि शङ्‌खमुसले चक्रं धनुः सायकं हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम्।
गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महा- पूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम्॥३॥
माला प्रार्थना
फिर “ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः” इस मन्त्र से माला की पूजा करके प्रार्थना करें-
ॐ मां माले महामाये सर्वशक्तिस्वरूपिणि। चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्तस्तस्मान्मे सिद्धिदा भव॥
ॐ अविघ्नं कुरु माले त्वं गृह्णामि दक्षिणे करे। जपकाले च सिद्ध्यर्थं प्रसीद मम सिद्धये॥
ॐ अक्षमालाधिपतये सुसिद्धिं देहि देहि सर्वमन्त्रार्थसाधिनि
साधय साधय सर्वसिद्धिं परिकल्पय परिकल्पय मे स्वाहा।
इसके बाद “ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे” इस मन्त्र का १०८ बार जप करें और-
गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम्।
सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादान्महेश्वरि॥
इस श्लो्क को पढ़कर देवी के वामहस्त में जप निवेदन करें ।।। 
।। बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती न्यासः।।
विनियोगः-प्रथममध्यमोत्तरचरित्राणां ब्रह्मविष्णुरुद्रा ऋषयः, श्रीमहाकाली महालक्ष्मी महासरस्वत्यो देवताः,गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छंन्दांसि, नन्दाशाकम्भरीभीमाः शक्तयः, रक्तदन्तिकादुर्गाभ्रामर्यो बीजानि,अग्नि वायु सूर्यास्तत्त्वानि, ऋग्यजुः सामवेदा ध्यानानि, सकलकामनासिद्धयेश्रीमहाकाली महालक्ष्मी महासरस्वती देवताप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः।
इसे पढ़कर जल गिरायें ।
अंगन्यासः-
ॐ ऐं स्लूं अंगुष्ठाभ्यां नमः।
ॐ ऐं फ्रें तर्जनीभ्यां नमः।
ॐ ऐं क्रीं मध्यमाभ्यां नमः।
ॐ ऐं म्लूं अनामिकाभ्यां नमः।
ॐ ऐं घ्रें कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।
ॐ ऐं श्रूं करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
हृदयादिन्यासः-
ॐ ऐं स्लूं हृदयाय नमः।
ॐ ऐं फ्रें शिरसे स्वाहा ।
ॐ ऐं क्रीं शिखायै वषट् ।
ॐ ऐं म्लूं कवचाय हुं।
ॐ ऐं घ्रें नेत्रत्रयाय वौषट् ।
ॐ ऐं श्रूं अस्त्राय फट् ।।
।।ध्यानमंत्र।।
या चण्डी मधुकैटभादि दैत्यदलनी या महिषोन्मूलिनी,
या धूम्रेक्षणचण्डमुण्ड मथनी या रक्तबीजाशिनी।
शक्तिः शुम्भनिशुम्भदैत्यदलनी या सिद्धि लक्ष्मीः परा,
सा दुर्गा नवकोटि मूर्तिसहिता मां पातु विश्वेश्वरी।।॥ 
अथ देवी सूक्तम् ॥
ॐ ऐं ह्रीं नमः॥१॥
ॐ ऐं श्रीं नमः॥२॥
ॐ ऐं हूं नमः॥३॥
ॐ ऐं क्लीं नमः॥४॥
ॐ ऐं रौं’ नमः॥५॥
ॐ ऐं स्त्रीं नमः॥६॥
ॐ ऐं म्लीं नमः॥७॥
ॐ ऐं प्लूं नमः॥८॥
ॐ ऐं स्हां नमः॥९॥
ॐ ऐं स्त्रीं नमः॥१०॥
ॐ ऐं. ग्लूं नमः॥११॥
ॐ ऐं व्रीं नम:॥१२॥
ॐ ऐं सौं नम:॥१३॥
ॐ ऐं लूं नमः॥१४॥
ॐ ऐं ल्लूं नमः॥१५॥
ॐ ऐं द्रां नमः॥१६॥
ॐ ऐं क्सां नम:॥१७॥
ॐ ऐं क्ष्म्रीं नम:॥१८॥
ॐ ऐं ग्लौं नमः॥१९॥
ॐ ऐं स्कूं नमः॥२०॥
ॐ ऐं त्रूं नम:॥२१॥
ॐ ऐं स्क्लूं नमः॥२२॥
ॐ ऐं क्रौं नम:॥२३॥
ॐ ऐं छ्रीं नम:॥२४॥
ॐ ऐं म्लूं नम:॥२५॥
ॐ ऐं क्लूं नमः॥२६॥
ॐ ऐं शां नम:॥२७॥
ॐ ऐं ल्हीं नम:॥२८॥
ॐ ऐं स्त्रूं नम:॥२९॥
ॐ ऐं ल्लीं नमः॥३०॥
ॐ ऐं लीं नम:॥३१॥
ॐ ऐं सं नम:॥३२॥
ॐ ऐं लूं नमः ॥३३॥
ॐ ऐं ह्सूं नमः॥३४॥
ॐ ऐं श्रूं नम:॥३५॥
ॐ ऐं जूं नम:॥३६॥
ॐ ऐं ह्स्ल्रीं नम:॥३७॥
ॐ ऐं स्कीं नम:॥३८॥
ॐ ऐं क्लां नम:॥३९॥
ॐ ऐं श्रूं नम:॥४०॥
ॐ ऐं हं नम:॥४१॥
ॐ ऐं ह्लीं नम:॥४२॥
ॐ ऐं क्स्रूं नमः॥४३॥
ॐ ऐं द्रौं नम:॥४४॥
ॐ ऐं क्लूं नम:॥४५॥
ॐ ऐं गां नम:॥४६॥
ॐ ऐ सं नम:॥४७॥
ॐ ऐं ल्स्रां नम:॥४८॥
ॐ ऐं फ्रीं नम:॥४९॥
ॐ ऐं स्लां नम:॥५०॥
ॐ ऐं ल्लूं नमः॥५१॥
ॐ ऐं फ्रें नमः॥५२॥
ॐ ऐं ओं नमः॥५३॥
ॐ ऐं स्म्लीं नमः॥५४॥
ॐ ऐं ह्रां नम:॥५५॥
ॐ ऐं ओं नम:॥५६॥
ॐ ऐं ह्लूं नम:॥५७॥
ॐ ऐं हूं नम:॥५८॥
ॐ ऐं नं नम:॥५९॥
ॐ ऐं स्रां नम:॥६०॥
ॐ ऐं वं नमः॥६१॥
ॐ ऐं मं नम:॥६२॥
ॐ ऐं म्क्लीं नम:॥६३॥
ॐ ऐं शां नम:॥६४॥
ॐ ऐं लं नम:॥६५॥
ॐ ऐं भैं नम:॥६६॥
ॐ ऐं ल्लूं नम:॥६७॥
ॐ ऐं हौं नम:॥६८॥
ॐ ऐं ईं नम:॥६९॥
ॐ ऐं चें नम:॥७०॥
ॐ ऐं ल्क्रीं नम:॥७१॥
ॐ ऐं ह्ल्रीं नम:॥७२॥
ॐ ऐं क्ष्म्ल्रीं नम:॥७३॥
ॐ ऐं यूं नमः॥७४॥इति देवी सूक्तम्॥
॥ हवन विधि -बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती॥
बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती के प्रत्येक बीज मंत्र के अंत में स्वाहा लगाकर हवन करें तथा प्रथम अध्याय के अंत में निम्न मंत्र से हवन करें-
ॐ ऐं जयन्ती सांगायै सायुधायै सशक्तिकायै सपरिवारायै सवाहनायै वाग्बीजाधिष्ठात्र्यै महाकालिकायै नमः अहमाहुति समर्पयामि स्वाहा ।
द्वितीय से लेकर चतुर्थ अध्याय तक के अंत में निम्न मंत्र से हवन करें-
ॐ ह्रीं जयन्ती सांगायै सायुधायै सशक्तिकायै सपरिवारायै सवाहनायै हृल्लेखाबीजाधिष्ठात्र्यै महालक्ष्म्यै नमः अहमाहुति समर्पयामि स्वाहा ।
पंचम से लेकर त्रयोदश अध्याय तक के अंत में निम्न मंत्र से हवन करें-
ॐ क्लीं जयन्ती सांगायै सायुधायै सशक्तिकायै सपरिवारायै सवाहनायै कामबीजाधिष्ठात्र्यै महासरस्व्त्यै नमः अहमाहुति समर्पयामि स्वाहा । ॥
इति: श्री बीजात्मक तंत्र दुर्गा सप्तशती सम्पूर्ण ॥
हरि ॐ तत्सत्।