यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतस: ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ।।१।३८।।
कथं न ज्ञेयमस्माभि: पापादस्मान्निवर्तितुम् ।कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ।।१।३९।।
(यद्यप्येते = यदि+अपि+ते); यदि = यदि; अपि = भी; एते = ये; न = नहीं; पश्यन्ती = देखते हैं; (लोभोपहतचेतस: = लोभ+उपहत+चेतस: ); लोभ =लोभ; उपहत= अभिभूत; चेतस: = चित्त वाले; (कुलक्षयकृतम् = कुल +क्षय +कृतम्); कुल = कुल; क्षय = नाश; कृतम् = किया हुआ;
दोषम् = दोष को; मित्रद्रोहे = मित्रों के साथ विरोध करने में; पातकम् = पापको;कथम् = क्यों; न =नहीं; ( ज्ञेयमस्माभि: = ज्ञेयम्+अस्माभि: ); ज्ञेयम् = विचार करना चाहिए; अस्माभि: = हम लोगों को;( पापादस्मान्निवर्तितुम् =पापात् +अस्मान्+निवर्तितुम् ); पापात् =पाप से; अस्मान् = हमलोगों को; निवर्तितुम् = बचने के लिये; कुलक्षयकृतम् = कुल के नाश करने से किए गए; दोषम् = दोष ( प्रपश्यद्भिर्जनार्दन = प्रपश्यद्भि:+ जनार्दन); प्रपश्यभ्दि: = जानने वालों के द्वारा; जनार्दन = हे जनार्दन (श्री कृष्ण)!
यद्यपि लोभ से अभिभूत होकर ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों के साथ विरोध करने में किए गए पाप को नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन ! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से बचने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए ।।१।३८-३९।।
ये मित्र द्रोही लोभ के वश, कुल नाश करने को खड़े।
मित्र द्रोह परम दोष है, कुलक्षयी को लगेंगे पाप बड़े।।
हम जानते कुल नाश से , क्या दोष लगता है प्रभु!
हमें ज्ञात है यह पाप है, बचें न क्यों हे अखिल विभू।।१।३८-३९।।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ।।१।३८।।
कथं न ज्ञेयमस्माभि: पापादस्मान्निवर्तितुम् ।कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ।।१।३९।।
(यद्यप्येते = यदि+अपि+ते); यदि = यदि; अपि = भी; एते = ये; न = नहीं; पश्यन्ती = देखते हैं; (लोभोपहतचेतस: = लोभ+उपहत+चेतस: ); लोभ =लोभ; उपहत= अभिभूत; चेतस: = चित्त वाले; (कुलक्षयकृतम् = कुल +क्षय +कृतम्); कुल = कुल; क्षय = नाश; कृतम् = किया हुआ;
दोषम् = दोष को; मित्रद्रोहे = मित्रों के साथ विरोध करने में; पातकम् = पापको;कथम् = क्यों; न =नहीं; ( ज्ञेयमस्माभि: = ज्ञेयम्+अस्माभि: ); ज्ञेयम् = विचार करना चाहिए; अस्माभि: = हम लोगों को;( पापादस्मान्निवर्तितुम् =पापात् +अस्मान्+निवर्तितुम् ); पापात् =पाप से; अस्मान् = हमलोगों को; निवर्तितुम् = बचने के लिये; कुलक्षयकृतम् = कुल के नाश करने से किए गए; दोषम् = दोष ( प्रपश्यद्भिर्जनार्दन = प्रपश्यद्भि:+ जनार्दन); प्रपश्यभ्दि: = जानने वालों के द्वारा; जनार्दन = हे जनार्दन (श्री कृष्ण)!
यद्यपि लोभ से अभिभूत होकर ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों के साथ विरोध करने में किए गए पाप को नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन ! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से बचने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए ।।१।३८-३९।।
ये मित्र द्रोही लोभ के वश, कुल नाश करने को खड़े।
मित्र द्रोह परम दोष है, कुलक्षयी को लगेंगे पाप बड़े।।
हम जानते कुल नाश से , क्या दोष लगता है प्रभु!
हमें ज्ञात है यह पाप है, बचें न क्यों हे अखिल विभू।।१।३८-३९।।
हरि ॐ तत्सत्।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'
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