गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मन: ।।१।।३०।।
गाण्डीवम् = गाण्डीव धनुष; स्रंसते =गिरता है; (हस्तात्त्वक्चैव =हस्तात्+त्वक्+च+एवं); हस्तात् = हाथ से ; च =और; त्वक् = त्वचा; एव =भी; परिदह्यते = बहुत जलती है; न=नहीं ;च=और ; ( शक्नोम्यवस्थातुम् = शक्नोमि +अवस्थातुम् ) ; शक्नोमि = समर्थ ;अवस्थातुम् = खड़ा रहने को; भ्रमति इव =भ्रमित सा हो रहा है; में=मेरा; मन: = मन ।
हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है, इसलिये मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूँ ।।१।।३०।।
गाण्डीव जैसे धनुष मेरे, हस्त गिरते, त्वचा मेरी जल रही है।
मन भ्रमित-सा , असमर्थ स्थित, दशा अजब -सी हो रही है।।१।३०।।
हरि ॐ तत्सत्।
श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'
अध्ययन की सुगमता हेतु यह सरल और सहज क्रमिक रूप से उपलब्ध रहेगा। स्वरचित हिन्दी पद्यानुवाद मूल श्लोकों के भाव को याद रखने में पाठकों के लिए श्रेष्ठ-सेव्य है।
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