न काड्.क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ।।१।३२।।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ।।१।३२।।
न = नहीं; काड्.क्षे = चाहता हूँ; विजयम् = विजय को; कृष्ण = हे कृष्ण; च = और; राज्यम् = राज्य; सुखानि =सुखों को; गोविन्द = हे गोविन्द; न: = हमें; राज्येन = राज्य से; किम् = क्या ; भोगै: = भोगों से; जीवितेन =जीवन से; किम् = क्या; वा = अथवा।
हे कृष्ण! न तो मैं विजय चाहता हूँ और न ही राज्य तथा सुखों को ही। हे गोविन्द ! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है? ।।१।३२।।
हे कृष्ण! विजय नहीं चाहता, न राज्य सुख की चाह है।
जीवन राज्य भोग व्यर्थ हैं, ज्यों स्वजनों की आह है।।१।३२।।
जीवन राज्य भोग व्यर्थ हैं, ज्यों स्वजनों की आह है।।१।३२।।
हरि ॐ तत्सत् ।
- श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'
हरि ॐ तत्सत्।
जवाब देंहटाएंअध्ययन की सुगमता हेतु यह सरल और सहज क्रमिक रूप से उपलब्ध रहेगा। स्वरचित हिन्दी पद्यानुवाद मूल श्लोकों के भाव को याद रखने में पाठकों के लिए श्रेष्ठ-सेव्य है।
जवाब देंहटाएं