गुरु : अध्यात्मिक -ज्ञान का केन्द्र
‘गुरु’ एक विशिष्ट , पवित्र एवं भाव-पूर्ण मधुर शब्द है जो श्रद्धा,भक्ति और आस्था से परिपूर्ण है। यह दो व्यंजन वर्ण ‘गु’ तथा ‘रु’ के योग से बना है। ‘गु’ प्रतीक है अंधकार का जिसका तात्पर्य अज्ञानता से है और ‘रु’ प्रतीक है प्रकाश का जो अध्यात्मिक तेज-पुञ्ज का द्योतक है। ‘गु’ प्रतीक है तम का - माया का - मोह का - भ्रांति का अविद्या,जीव और गुणातीत का तथा ‘रु’ का तात्पर्य ज्ञान, विद्या ,ब्रह्म, चेतना और निराकारता से है। जब जीव भक्ति,श्रद्धा एवं विश्वासपूर्वक गुरु का सान्निध्य प्राप्त करता है तो वह उनके कृपा और मार्गदर्शन से अपने माया-मोह, भ्रम, अज्ञानता, अविद्या आदि से मुक्त होकर परम तेजस्वरूप चैतन्य परमसत्ता से सायुज्य प्राप्त कर लेता है।
गुकारश्चान्धकारो हि रुकारस्तेज उच्यते।
अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरुरेव न संशय:।।
गुकारश्चान्धकारस्तु रुकारस्तन्निरोधकृत्।
अंधकारविनाशित्वात् गुरुरित्यभिधीयते।।
गुकारश्च गुणातीतौ रूपातीतौ रुकारक: ।
गुणरूपविहीनत्वात् गुरुरित्यभिधीयते ।।
गुकार: प्रथमोवर्णो मायादि गुणभासक: ।
रुकारोsस्ति परं ब्रह्म मायाभ्रांति विमोचकम् ।
( स्क० पु० उ० ख०)
गुरु का होना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है जो अध्यात्मिक अज्ञान रूपी अंःधकार को मिटाते हैं और उसे आध्यात्मिक अनुभूतियां और आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करते हैं ।
जब हम पाशविक- सभ्यता से ऊपर उठकर अपना उन्नयन चाहने लगे, मानवीय और दैवी-सत्ता को जानने के लिए व्यग्र होकर कहने लगे - तमसो मा ज्योतिर्गमय ---असतो मा सदगमय - --मृत्योर्मामृत गमय । हम सहायतार्थ बेचैन थे - कोई तो हो जो हमारी मदद कर सके -- हमें अज्ञान से ज्ञान का मार्ग बता सके -- सत्य का परिज्ञान करा सके -- जरा-रोग, जन्म-मृत्यु तथा कर्म के बंधन से मुक्त करके सास्वत आत्मज्ञान प्रदान कर मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सके।जी हाँ - हमें मिलें --- सद्गुरु और गुरु रूप में साक्षात् परमपिता परमेश्वर ने हमारी सहायता की और तभी से गुरु-शिष्य के भक्ति,श्रद्धा, विश्वास और पवित्र-प्रेम का उदात्त एवं उदार संबंध का मार्ग प्रशस्त हुआ ।
यूँ तो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हमें मार्गदर्शन के लिए एक प्रवीण, विज्ञ तथा अनुभवी व्यक्ति की आवश्यकता होती है जिसे बोल-चाल की भाषा में गुरु की ही संज्ञा देते हैं लेकिन हम यहाँ केवल आध्यात्मिक गुरु की ही बात करेंगे जो नररूप में साक्षात् नारायण ही हैं जिन्हें ब्रह्मा, विष्णु औरत महेश की समकक्षता प्राप्त है। वे हमारे समस्त पापों का नाश करके, विशुद्धात्मा बनाकर ईश्वरीय ज्ञान के द्वारा हमारे मुक्ति का मार्ग बताकर हमारा मानव-जीवन सफल करते हैं । समस्त दैनिक और दैविक क्रियाएँ गुरु के कृपा और मार्गदर्शन के बिना अधूरे हैं।
यद्यपि गुरु और ब्रह्म में समतुल्यता है तथापि सांसारिक मानव गुरु का दायित्व परमात्मा को नहीं दे सकते । देहधारी मानव अपनी क्षमता, पात्रता और दिव्यता का ध्यान रखते हुए नर-तनधारी ज्ञानी श्रेष्ठ धर्मपरायण सदाचारी ब्रह्मज्ञानी व्यक्ति को ही अपना गुरु बना लें। आधुनिक परिवेश में कुछ लोग शास्त्रों के अर्थ को अनर्थ करते हुए ‘शिव’ अथवा अन्याय देवों को ही गुरु मानकर अपने दायित्व से पल्ला झाड़ लेते हैं --यह यथोचित कर्म नहीं है। यद्यपि ‘शिव’ और ‘गुरु’ में भेद-दृष्टि उचित नहीं है तथापि शिवजी ने स्वयं ही बार-बार गुरु की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए गुरु को स्वयं से श्रेष्ठ बताया है। उन्होंने बताया है कि शिव के अप्रसन्न होने पर गुरु साधक की रक्षा कर सकते हैं लेकिन गुरु के अप्रसन्न होने पर साधक की रक्षा करने में स्वयं शिव भी सक्षम नहीं है।
शिवे क्रुद्धे गुरुस्त्राता गुरौ क्रुद्धे शिवो न हि।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन श्रीगुरुं शरणं व्रजेत् ।।
यद्यपि शिव गुरु हैं तथापि मानव क्या अपने इस पात्रता एवं दिव्यता के सहारे उनसे सीधे दिशा-निर्देश प्राप्त कर सकते हैं ? शिव तक पहुँचने से पहले माया साधक को अपनी जाल में दिग्भ्रमित कर देती है और उसका उद्देश्य सफल नहीं हो पाता । फिर गुरु बनने-बनाने की प्रक्रिया में शिष्य के साथ-साथ गुरु की भी सहमति आवश्यक है चाहे गुरु मनुष्य ही क्यों न हो । आपने उनसे (शिव से) सहमति तो लिया ही नहीं । अगर आपने शिव को गुरु माना है तो कोई जरूरी नहीं कि उन्होंने आपको शिष्य स्वीकार कर ही लिया हो। शिव की दिव्यता के समक्ष अगर साधक में पात्रता नहीं है तो यह गुरु-शिष्य का संबंध कैसा ? अज्ञान,दंभ और भ्रम का त्याग कर दें तथा किसी योग्य सदाचारी ब्रह्मज्ञानी देहधारी व्यक्ति को ही अपना गुरु बनाकर उन्हें उचित मान-सम्मान देकर ,उनकी सेवा-सुश्रुषा कर, उनके मार्गदर्शन में साधना द्वारा इहलोक और परलोक को सुधार लें। अहंकार में जीवन को व्यर्थ न गँवा दें । परमात्मा माता,पिता,बंधु,मित्र,धन-धान्य सबकुछ हैं तो क्या आप संसार के सारे संबंधों को नकार सकते हैं ? शास्त्रों के भाव को समझने की कोशिश करें - अर्थ का अनर्थ करते हुए अविवेक और अविद्या को आत्मसात करते हुए महापाप से बचें, अनाचार की प्रवृत्ति का त्याग करें। साधना-पथ पर भ्रम-जाल से बचने हेतु, शंका के समाधान हेतु कदम-कदम पर देहधारी सदगुरु की जरूरत है - जिनकी पात्रता दिव्य हो , एेसे दिव्य लोगों की , दिव्य साधकों की बात कुछ और है -सभी लोगों को ऐसा सौभाग्य कहाँ कि वे शिव को अपना गुरु बना सके? गुरु और शिष्य का संबंध तो कुम्हार और घड़े जैसा होना चाहिए जिसे कबीर ने इस तरह निर्देशित किया है-
गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़े खोट।
अंतर हाथ सहार दे, बाहर मारे चोट ।।
आत्म-सुधार के लिए सद्गुरु के प्रेम, वात्सल्य और कृपा के साथ जरूरत पड़ने पर डाँट-फटकार और चोट की जरूरत भी जनसाधारण को है। कोई अनपढ़ व्यक्ति सीधे पी०एच०डी नहीं कर सकता। पहले पात्रता तो प्राप्त कर लो। अहंकार का परित्याग करें -सद्भावनापूर्वक मत-मतांतर छोड़कर आत्मोद्धार के लिए किसी सद्गुरु की शरण में जाएँ -अपनी जिज्ञासा प्रकट करें - उनकी कृपा प्राप्त करें - निश्चय ही आपको मार्ग , मार्गी और ध्येय सभी मिल जाएंगे। आपके अमूल्य जीवन सार्थक हो जाएंगे ।
यह संसार अविद्यात्मक मायारूप है और शरीर अज्ञान से उत्पन्न है, केवल गुरु की कृपा से ही इस आत्मज्ञान को समझा जा सकता है। गुरु की चरणों की सेवा से ही मानव सभी पापों से रहित होकर विशुद्धात्मा ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। गुरुदेव की चरण-सेवा, चरणोदक-पान, नाम-कीर्तन, स्वरूप-चिंतन द्वारा शिष्य जन्म-जन्मांतरों के पाप से मुक्त होकर शुद्ध-चित्त, ज्ञान और बैराग्य को प्राप्त कर लेते हैं। अपनी जाति, धर्म, आश्रम, यश, कीर्ति , धन आदि का मिथ्याभिमान त्यागकर गुरु की सेवा करनी चाहिए । ऐसा करने पर आप निश्चय ही आत्मकल्याण प्राप्त कर लेंगे। चित्त के भ्रमित होने पर संसाररूपी भवसागर को पार कराने में केवल सद्गुरु ही समर्थ हो सकते हैं। गुरु की महिमा का गुणगान करने में साक्षात् सरस्वती,शेष, महेश, गणेश,ब्रह्मा, विष्णु, महर्षि,देव, मुनि,गंधर्व, ज्योतिषी आदि भी अपने को अक्षम पाते हैं । सद्गुरु की कृपा के बिना साधक के सिद्धि की परिकल्पना व्यर्थ है ।
गुरु त्रिविध-ताप और विविध पापों को हर लेते हैं। तार्किक, वैदिक, लौकिक अथवा ज्योतिषीय आदि किसी भी ज्ञान द्वारा गुरु-तत्व को जानना असंभव है। गुरुसेवा से विमुख कोई भी जन मुक्त नहीं हो सकता। गुरु ब्रह्मानंदस्वरूप, ज्ञानस्वरूप, सूक्ष्म, व्यापक, नित्य, मलरहित, अचल, त्रिगुणातीत तथा परमसुखदायक होते हैं। उनके उपदिष्ट मार्ग से मन की शुद्धि करनी चाहिए। गुरु का वाक्य शास्त्रों से भी श्रेष्ठ है।
करुणारूपी तलवार के प्रहार से जो शिष्य के संशय, दया, भय, संकोच, निंदा, प्रतिष्ठा, कुलाभिमान और संपत्ति के अभिमान जैसे आठों पाशों से जो मुक्ति दिला दें, उन्हें सद्गुरु कहते हैं।
विज्ञ जन ज्ञान-प्राप्ति के बाद भी गुरु का साथ नहीं छोड़ते हैं। प्रज्ञावान शिष्य गुरु के समक्ष डींग नहीं मारते हैं। उनके सामने असत्य-सम्मभाषण सर्वथा निंदनीय है। गुरुदेव का तिरस्कार आदि करनेवाले मरुभूमि में ब्रह्मराक्षस बनता है। सद्गुरु की पूजा प्रपंच से मुक्ति दिलाने में समर्थ है। गुरुदेव द्वारा दिए गए द्रव्य आदि को गरीब की तरह यत्नपूर्वक रखें। उनकी आज्ञा का हमेशा पालन करें। जो धन गुरुदेव ने नहीं दिया हो ,उसका उपयोग न करें। गुरुदेव के पीछे ही चलना चाहिए। उनके परछाईं का भी उल्लंघन न करें। पादुका, आसन, बिस्तर आदि जो उनके उपयोग में आते हों, उन सबको नमस्कार करना चाहिए। उनके समक्ष कीमती वस्त्र, आभूषण आदि धारण नहीं करना चाहिए। गुरु की निंदा खुद न करें , नहीं दूसरों को करने दें । सद्गुरु की कृपा से शिष्य पाशों से भी मुक्ति पा सकते हैं। उनके श्रीचरणों की सेवा करके जो महावाक्य के अर्थ को समझते हैं, वे ही सच्चे संयासी हैं , अन्य तो मात्र वेधशाला हैं। गुरु का हमेशा ध्यान करें, उन्हें नमन करें ।
सद्गुरु का सदा ध्यान करने से जीव ब्रह्ममय हो जाता है। वह किसी भी स्थान में रहता हो, वह मुक्त ही है। इसमें कोई संशय नहीं है।
गुरोर्ध्यानेनैव नित्यं देही ब्रह्ममयो भवेत् ।
स्थितश्च यत्रकुत्रापि मुक्तोsसौ नात्र संशय: ।।
( स्क० पु० उ० ख०)
मनुष्य के लिए गुरु ही शिव है, गुरु ही देव है, गुरु ही बांधव है, गुरु ही आत्मा है तथा गुरु ही जीव है, अर्थात् गुरु के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
गुरु: शिवो गुरुर्देवो गुरुर्बन्धु: शरीरिणाम्।
गुरुरात्मा गुरुर्जीवो गुरोरत्यन्न विद्यते।।
( स्क० पु० उ० ख०)
ज्ञानहीन, मिथ्यावादी, ढोंगी गुरु का त्याग करें । जो अपना कल्याण नहीं कर सकते, वे दूसरों का कल्याण कैसे कर सकते हैं। पाषाण का टुकड़ा भला अनेक टुकड़ों को तैरना कैसे सिखा सकता जबकि वह स्वयं तैरना नहीं जानता ?
ज्ञानहीनो गुरुत्याजो मिथ्यावादी विडंबक: ।
स्वविश्रान्ति न जानाति परशान्तिं करोतिकिम्।।
शिलाया: किं परं ज्ञानं शिलासंघप्रतारणे।
स्वयं तर्त्तु न जानाति परं निसतारेयेत्कथम्।।
( स्क० पु० उ० ख०)
सद्गुरु की महिमा अपरम्पार है कल्प-पर्यंत के, करोड़ों जन्मों के यज्ञ, व्रत, तप और शास्त्रोक्त क्रियाएँ, ये सब गुरुदेव के संतोषमात्र से सफल हो जाते हैं। स्वयं शिव ने कहा है -
आकल्पजन्मकोटीनाम् यज्ञ व्रत तप: क्रिया: ।
ता: सर्वा सफला देवि गुरुसंतोषमात्रत: ।।
( स्क० पु० उ० ख०)
उनका मानव-जीवन व्यर्थ है जो गुरु-तत्व को नहीं जानते हैं । गुरु-दीक्षा से विमुख लोग भ्रांत हैं और ज्ञान से रहित हैं वे सचमुच पशु के ही समान है । वे परम-तत्व को नहीं जानते हैं ।
गुरुरेको जगत्सर्वं ब्रह्मविषणुशिवात्कम्।
गुरो:परतरं नास्ति तस्मात्संपूजयेद्गुरुम्।।
( स्क० पु० उ० ख०)
ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव सहित संपूर्ण विश्व गुरुदेव में ही समाविष्ट है। गुरुदेव से अधिक और कुछ भी नहीं है। इसलिए गुरुदेव की ही पूजा करनी चाहिए।
( निबंधमिदं सद्गुरवे परमहंसचिदात्मनदेवाय समर्पितम्)
सद्गुरु चरणानुरागी
श्री तारकेश्वर झा 'आचार्य'
बी०एस०सी भौतिकी (प्रतिष्ठा)
एम०ए (ज्योतिष-विज्ञान)
ग्राम+पो० -- धनकौल,
जिला- शिवहर(बिहार) -843325
गुरु रूपी अध्यात्मिक तेज-पुंज के दिव्य आलोक को शब्दों में चित्रित करने का एक प्रयास। अवश्य पढ़ें और अनुभव करें।
जवाब देंहटाएंहरि ॐ तत्सत्।
जवाब देंहटाएं